देश-देशांतर: शिक्षा सुधारों की नई एकीकृत योजना | 30 Mar 2018
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
2009 में शिक्षा का अधिकार (RTE) कानून पारित हुआ और 2010 में इसके लागू होने के साथ ही शिक्षा देश में हर बच्चे का हक बन गई या कहें कि हर बच्चे का मौलिक अधिकार बन गई। इस कानून में अन्य बातों के अलावा यह व्यवस्था भी की गई थी कि सभी निजी स्कूल अपनी कुल सीटों का एक-चौथाई EWS यानी आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों के लिये आरक्षित रखेंगे। 2017 में इस कानून में एक संशोधन कर 2019 तक सभी शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। इसका उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना था।
हाल ही में राइट टू एजुकेशन फोरम द्वारा जारी एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा का अधिकार कानून अभी तक हकीकत में बहुत कारगर नहीं बन पाया है और इसमें कई लूपहोल हैं। जैसे-
- समाज के वंचित वर्गों में शिक्षा के प्रति उदासीनता।
- अधिकांश परिवारों में रोटी पहले, शिक्षा बाद में अर्थात् परिवार का भरण-पोषण प्राथमिकता है।
- केवल 8 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जो RTE नियमों के तहत विद्यार्थियों को दाखिला दे रहे हैं।
- 20% शिक्षक प्रशिक्षित नहीं हैं।
- देश में 8% स्कूल ऐसे हैं जिन्हें केवल एक ही शिक्षक चलाता है।
- 5 राज्य ऐसे हैं जिन्होंने इस कानून को अधिसूचित ही नहीं किया है।
- धनाभाव के कारण आवश्यक संरचना का अभाव।
- प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव।
- शिकायत निवारण तंत्र का अभाव।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम
- भारत में शिक्षा का अधिकार’ संविधान के अनुच्छेद 21A के अंतर्गत मूल अधिकार के रूप में उल्लिखित है।
- 2 दिसंबर, 2002 को संविधान में 86वाँ संशोधन किया गया था और इसके अनुच्छेद 21A के तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया।
- इस मूल अधिकार के क्रियान्वयन हेतु वर्ष 2009 में नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम (Right of Children to Free and Compulsory Education-RTE Act) बनाया गया।
- इसका उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सार्वभौमिक समावेशन को बढ़ावा देना तथा माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन के नए अवसर सृजित करना है।
- इसके तहत 6-14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे के लिये शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में अंगीकृत किया गया।
समस्या क्या है?
लेकिन इतने वर्षों बाद भी इस अधिनियम के अपेक्षानुरूप कार्यान्वित न होने के पीछे अनेकानेक कारण हैं:
- इसके दिशा-निर्देशों के संबंध में अधिकांश माता-पिता को जानकारी न होने के कारण वे अपने बच्चों के लिये अधिकारों की मांग नहीं कर पाते।
- अनेक विद्यालय मानते हैं कि RTE के अंतर्गत गरीब बच्चों के प्रवेश से उनके विद्यालय के परिणाम का स्तर गिर जाएगा, अतः वे इन बच्चों के प्रवेश को हतोत्साहित करते हैं।
- सरकार स्कूलों को समय पर क्षतिपूर्ति राशि प्रदान नहीं करती, अतः स्कूल प्रशासन इन बच्चों को प्रवेश देने में आनाकानी करता है।
- इस अधिनियम के कार्यान्वयन के संबंध में कोई पुख्ता शिकायत निवारण तंत्र मौजूद नहीं है।
- इस अधिनियम के अंतर्गत सीमांत वर्गों, जैसे-LGBT, विकलांगों, अनाथों, भिखारियों आदि के बच्चों के लिये पृथक् प्रावधान नहीं किया गया है।
'सर्व शिक्षा अभियान' में धन की कमी सबसे बड़ी बाधा
- सर्वशिक्षा अभियान RTE अधिनियम के कार्यान्वयन का एक मुख्य साधन है।
- यह दुनिया में अपनी तरह के सबसे बड़े कार्यक्रमों में से एक है।
- यह मुख्यतया केंद्रीय बजट से प्राथमिक तौर पर वित्तपोषित है और पूरे देश में चलाया जाता है।
केंद्र सरकार सर्व शिक्षा अभियान तथा राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की केंद्र प्रायोजित योजनाओं के माध्यम से कई स्तरों पर अध्यापकों के नियमित सेवाकालीन प्रशिक्षण, नए भर्ती अध्यापकों के लिये प्रवेश प्रशिक्षण, आईसीटी कम्पोनेन्ट पर प्रशिक्षण, विस्तृत शिक्षा, लैंगिक संवेदनशीलता तथा किशोरावस्था शिक्षा सहित गुणवत्ता सुधार के लिये राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की मदद करती है। इनके तहत प्राथमिक तथा माध्यमिक दोनों स्तरों पर अध्यापकों को उनकी पेशेवर उन्नति के लिये विशिष्ट विषयक, आवश्यकता आधारित तथा अध्यापकीय सेवाकाल के दौरान सुसंगत प्रशिक्षण देने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
शिक्षा सुधार के लिये नई एकीकृत योजना
सतत विकास के लक्ष्यों के अनुरूप शिक्षा
योजना के मुख्य उद्देश्य
क्या होगा प्रभाव?
क्या होंगे लाभ?
(टीम दृष्टि इनपुट) |
और क्या किया जाना चाहिये?
- हितधारकों को संवेदनशील बनाने के लिये जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिये, जिसमें मीडिया, सोशल मीडिया, प्रसिद्ध व्यक्तियों, स्थानीय नेताओं, सिविल सोसायटी आदि को शामिल किया जाना चाहिये।
- स्कूलों की समुचित निगरानी करनी चाहिये एवं समय-समय पर इस अधिनियम के प्रावधानों के कार्यान्वयन की रिपोर्ट लेनी चाहिये।
- स्कूलों की रियल टाइम आधार पर निगरानी के लिये ऑनलाइन प्रबंधन प्रणाली का प्रयोग करना चाहिये।
- अध्ययन गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिये सतत् और व्यापक मूल्यांकन को महत्त्व देना चाहिये।
- अध्यापन गुणवत्ता में सुधार के लिये शिक्षण-प्रशिक्षण व्यवस्थाओं पर ध्यान देना चाहिये।
- 25% कोटा का पालन न करने के मामले में कड़े दंड का प्रावधान किया जाना चाहिये।
RTE का विस्तार किया जाए
सरकार को इस अधिनियम के प्रावधानों के समुचित कार्यान्वयन के लिये अग्रसक्रिय नीति अपनानी चाहिये। इसके लिये स्कूलों को विश्वास में लेना एवं समय पर क्षतिपूर्ति राशि प्रदान करना भी आवश्यक है। इस प्रकार, सरकार वंचितों एवं गरीबों के बच्चों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था कर शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित कर सकती है। इसके अलावा कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि इसका विस्तार करके परिणामों की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है।
- 14-18 वर्ष आयु वर्ग के लोगों के इसमें समावेशन से उन्हें श्रमबल में शामिल होने के लिये आवश्यक परिष्कृत शिक्षा प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।
- यह उन बच्चों के सशक्तीकरण में सहायक होगा जिनका अब तक कहीं भी नामांकन नहीं हुआ है।
- जनसांख्यिकीय लाभांश की सार्थकता के लिये इन सभी युवाओं को कौशल और रोज़गार आधारित शिक्षा उपलब्ध कराना आवश्यक है।
- सभी बच्चों को एक स्कूल, कॉलेज या प्रशिक्षण संस्थान के अंतर्गत लाकर इनकी कंप्यूटर और इंटरनेट तक पहुँच सुनिश्चित की जा सकती है।
- नामांकन में प्रगति के साथ ही लर्निंग आउटकम पर ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि उच्च नामांकन का अर्थ सदैव उच्च उपस्थिति नहीं होता।
वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2018: लर्निंग टू रियलाइज एजुकेशन प्रॉमिस
रिपोर्ट में भारत
क्या हो सकते हैं उपाय?
(टीम दृष्टि इनपुट) |
निष्कर्ष: शिक्षा का अधिकार अधिनियम को आरंभ करते समय कल्पना की गई थी कि यह न केवल लाखों गरीब एवं कमज़ोर बच्चों को स्कूल तक लाएगा, बल्कि भविष्य में भारत की कार्यशील जनसंख्या के बहुत बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व भी करेगा। इससे न केवल देश के प्रत्येक बच्चे तक अनिवार्य शिक्षा पहुँचेगी, बल्कि इससे सामाजिक विभेदन की सीमा को पार करने में भी सफलता हासिल होगी। हालाँकि, परिणाम ऐसे नहीं रहे। यदि इस संबंध में गहराई से विचार करें तो ज्ञात होता है कि इस अधिनियम के लागू होने के 8 वर्ष बाद भी यह न तो अपेक्षाओं पर खरा उतरा है और न ही इसका लाभ समाज के उस वर्ग तक पहुँचा है, जिसे ध्यान में रखकर यह लाया गया था।
शिक्षा किसी भी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि हम बच्चों को सही शिक्षा दें तभी हम योग्य और कुशल मानव संसाधन का विकास कर सकेंगे। शिक्षा वस्तुतः शोध और नवाचार का माहौल बनाने में देश की मदद करती है। शिक्षा देश के नागरिकों के व्यक्तित्व, आचरण और मूल्यों को निखारती है तथा उन्हें एक विश्व नागरिक बनने में मदद करती है। यही कारण है कि सभी देश एक निश्चित अंतराल पर शिक्षा में सुधार करने का कठिन प्रयास करते हैं और अपनी शिक्षा नीति की समीक्षा करते हैं। भारत में बच्चों के भविष्य को सही राह दिखाने में समावेशी विकास को बढ़ावा देने हेतु यह आवश्यक है कि शिक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त किया जाए और इसके लिये अन्य सुधारों के साथ-साथ उचित प्रशासन मानकों, सरकार द्वारा पर्याप्त प्रोत्साहन तथा चेक और बैलेंस की नीति अपनाने की ज़रूरत है।