देश देशांतर: भारतीय उच्चत्तर शिक्षा आयोग के गठन के संदर्भ में मसौदा | 03 Jul 2018
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
उच्च शिक्षा प्रणाली के द्वारा ही किसी देश के मानव संसाधन का बेहतर विकास होता है, शोध एवं विकास के क्षेत्र में नवाचार होते हैं तथा देश में कौशल विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।
- हाल ही में उच्च शिक्षा का स्तर बढ़ाने औऱ उसकी निगरानी के लिये मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) को खत्म कर एक नए संस्थान भारतीय उच्चत्तर शिक्षा आयोग (HECI) को लाने के लिये मसौदा जारी किया गया है।
- इस संदर्भ में मंत्रालय द्वारा शिक्षाविदों, हितधारकों और आम जनता से टिप्पणियाँ और सुझाव मांगे गए हैं।
- UGC को भंग करके उसकी जगह HECI के गठन का सुझाव मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत 2014 में गठित 4 सदस्यीय हरी गौतम समिति द्वारा दिया गया था।
- पूर्व में प्रो. यशपाल समिति ने भी इसी प्रकार की सिफारिशें की थीं जिसमें उच्च शिक्षा की सभी प्रमुख नियामक संस्थाओं को एक ही संस्था के तहत काम करने की सिफारिश की गई थी। इसके लिये उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान हेतु सात सदस्यों वाला राष्ट्रीय आयोग बनाने का प्रस्ताव था।
स्वतंत्रता पूर्व भारत में शिक्षा का विकास क्रम
- प्राचीन काल में नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालय भारत में उच्च शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे, जो न केवल देश भर से बल्कि कोरिया, चीन, बर्मा (अब म्याँमार), सिलोन (अब श्रीलंका), तिब्बत और नेपाल जैसे दूरवर्ती देशों से भी छात्रों को आकर्षित करते थे। आज, भारत दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणालियों में से एक का प्रबंधन करता है।
- उच्च शिक्षा की वर्तमान प्रणाली 1823 के माउंटस्टुअर्ट एल्फिंस्टन की रिपोर्ट से शुरू होती है, जिसने अंग्रेज़ी और यूरोपीय विज्ञान को पढ़ाने के लिये स्कूलों की स्थापना की आवश्यकता पर बल दिया।
- बाद में लॉर्ड मैकाले ने 1835 की अपनी रिपोर्ट में देश के मूल निवासियों को अंग्रेज़ी का अच्छा विद्वान बनाए जाने के प्रयासों की वकालत की।
- 1854 के सर चार्ल्स वुड का डिस्पैच, जिसे 'भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्ना कार्टा' के नाम से जाना जाता है, ने प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक की उचित ढंग से योजना बनाने की सिफारिश की। इसने स्वदेशी शिक्षा को प्रोत्साहित करने और शिक्षा की सुसंगत नीति तैयार करने की योजना बनाई। इसके बाद 1857 में कलकत्ता, बॉम्बे (अब मुंबई) और मद्रास विश्वविद्यालय तथा बाद में 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय स्थापित किये गए।
- इंटर-यूनिवर्सिटी बोर्ड (बाद में भारतीय विश्वविद्यालयों के एसोसिएशन के रूप में जाना गया) की स्थापना 1925 में शिक्षा, संस्कृति, खेल और संबद्ध क्षेत्रों में सूचना एवं सहयोग को साझा करते हुए विश्वविद्यालयी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये की गई थी।
(टीम दृष्टि इनपुट)
- भारत में शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली तैयार करने का पहला विचार 1944 में ‘भारत में युद्ध पश्चात शिक्षा का विकास’ विषय पर शिक्षा के केंद्रीय सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट के साथ आया, जिसे सार्जेंट रिपोर्ट भी कहा जाता है। इसने विश्वविद्यालय अनुदान समिति के गठन की सिफारिश की, जिसे 1945 में अलीगढ़, बनारस और दिल्ली के तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कामकाज की देख-रेख करने के लिये गठित किया गया था। 1947 में समिति को सभी तत्कालीन मौजूदा विश्वविद्यालयों के देख-रेख की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में शिक्षा का विकास क्रम
- आज़ादी के तुरंत बाद 1948 में डॉ. एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में भारतीय विश्वविद्यालयी शिक्षा पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये और उन सुधारों तथा विस्तारों के संबंध में सुझाव देने के लिये जो कि वर्तमान एवं भविष्य की ज़रूरतों और देश की आकांक्षाओं के अनुरूप वांछनीय हो सकते हैं, विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की स्थापना की गई थी।
- इसने अनुशंसा की कि यूनाइटेड किंगडम के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सामान्य मॉडल की तर्ज पर विश्वविद्यालय अनुदान समिति का पुनर्गठन किया जाए जिसमें एक पूर्णकालिक अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति प्रतिष्ठित शिक्षाविदों में से की जाए।
नए मसौदे का उद्देश्य
- भारतीय उच्चत्तर शिक्षा आयोग (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग निरसन अधिनियम) विधेयक, 2018 के तहत UGC अधिनियम को निरस्त करना प्रस्तावित है और इसमें भारतीय उच्चत्तर शिक्षा आयोग की स्थापना का प्रावधान किया गया है।
- HECI का ध्यान अकादमिक मानकों और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार, सीखने के परिणामों के मानदंडों को निर्दिष्ट करने, शिक्षण/अनुसंधान के मानकों को निर्धारित करने पर होगा।
- यह मसौदा शिक्षा प्रणाली के समग्र विकास और उच्च शिक्षण संस्थानों को अधिक स्वायत्ता प्रदान करने के लिये सरकार की प्रतिबद्धता के अनुरूप है।
- यह आवश्यक शैक्षिक मानकों को बनाए रखने में विफल पाए गए संस्थानों को परामर्श दिये जाने के लिये एक रोडमैप प्रदान करेगा।
क्या है नया मसौदा?
- इसमें कानूनी प्रावधानों के माध्यम से अपने फैसलों को लागू करने की शक्ति होगी।
- आयोग के पास अकादमिक गुणवत्ता के मानदंडों के अनुपालन के आधार पर अकादमिक परिचालन शुरू करने के लिये अनुमोदन प्रदान करने की शक्ति होगी।
- जहाँ मानदंडों/विनियमों के अनुपालन में इच्छाशक्ति या निरंतर चूक का मामला हो वहाँ उच्च शिक्षा संस्थान के अनुमोदन निरस्त करने की शक्तियाँ भी इस कानून के तहत होंगी।
- आयोग को यह अधिकार भी प्राप्त होगा कि वह छात्रों के हितों को प्रभावित किये बिना उन संस्थानों को बंद करने का आदेश दे सके जो कि न्यूनतम मानकों का पालन करने में असफल रहे हों।
- आयोग उच्च शिक्षण संस्थानों को इस बात के लिये भी प्रोत्साहित करेगा कि वे शिक्षा, शिक्षण एवं शोध के क्षेत्र में सर्वोत्तम पद्धतियों का विकास करें।
- उच्च शिक्षा में नियामक निकायों, अर्थात् एआईसीटीई और एनसीटीई के अध्यक्षों के सहयोजन द्वारा आयोग को और मज़बूती प्रदान की जाएगी। इसके अलावा अध्यक्ष / उपाध्यक्ष और सदस्य, अकादमिक एवं शोध के क्षेत्र में प्रतिष्ठित विद्वान तथा नेतृत्व का गुण रखने वाले, संस्था निर्माण की क्षमताओं से युक्त और उच्च शिक्षा नीति व अभ्यास के मुद्दों की गहरी समझ रखने वाले होंगे।
- विधेयक में दंडित करने के प्रावधान भी होंगे, जो कि चरणबद्ध तरीके से काम करेंगे, इनमें उपाधि या प्रमाण-पत्र जारी करने के अधिकार को वापस लेना तथा शैक्षिक गतिविधियों को रोकने का आदेश देना शामिल होगा और ऐसे मामलों में जहाँ पर जानबूझ कर नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है, वहाँ भारतीय अपराध संहिता की ऐसी धाराओं के तहत मुकदमा चलाने का अधिकार होगा जिसमें अधिकतम तीन वर्ष के कारावास की सज़ा हो सकती है।
- देश में मानकों के समन्वय और निर्धारण से संबंधित मामलों पर आयोग को सलाह देने के लिये एक सलाहकार परिषद होगी। इसका प्रतिनिधित्व उच्च शिक्षा के लिये राज्य परिषदों के अध्यक्षों/उपाध्यक्षों द्वारा किया जाएगा और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री द्वारा इसकी अध्यक्षता की जाएगी।
- आयोग उच्च शिक्षा संस्थानों द्वारा वसूले जाने वाले शुल्क के निर्धारण के लिये मानदंडों और प्रक्रियाओं को भी निर्दिष्ट करेगा और शिक्षा को सभी के लिये वहनीय बनाए जाने हेतु उठाए जाने वाले कदमों के बारे में केंद्र सरकार या राज्य सरकारों को सलाह देगा।
- आयोग एक राष्ट्रीय डेटा बेस के माध्यम से ज्ञान के उभरते क्षेत्रों के विकास और सभी क्षेत्रों में उच्च शिक्षा संस्थानों के संतुलित विकास एवं विशेष रूप से उच्च शिक्षा में अकादमिक गुणवत्ता को बढ़ावा देने से संबंधित सभी मामलों की निगरानी करेगा।
सरकार द्वारा किये जा रहे बदलाव का मंतव्य
- सरकार का दखल कम और अधिक काम: नियामक के दायरे को कम करना। शैक्षिक संस्थानों के प्रबंधन मुद्दों में कोई हस्तक्षेप नहीं।
- अनुदान कार्यों का पृथक्करण: अनुदान कार्य मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा किये जाएंगे और HECI केवल अकादमिक मामलों पर ध्यान केंद्रित करेगा।
- निरीक्षण राज का अंत: पारदर्शी सार्वजनिक सूचना प्रकटीकरण के माध्यम से विनियमन, उच्च शिक्षा में मानकों और गुणवत्ता के संबंध में योग्यता आधारित निर्णय प्रक्रिया का पालन।
- अकादमिक गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करना: HECI को सीखने के परिणामों पर विशेष ध्यान देने, संस्थानों द्वारा अकादमिक प्रदर्शन का मूल्यांकन करने, संस्थानों की सलाह, शिक्षकों का प्रशिक्षण, शैक्षिक प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देने आदि के साथ अकादमिक मानकों में सुधार करने की ज़िम्मेदारी दी गई है। यह संस्थानों को खोलने और बंद करने के मानकों को स्थापित करने के लिये मानदंड विकसित करेगा, संस्थानों को अधिक लचीलापन और स्वायत्तता प्रदान करेगा, विश्वविद्यालय के किसी भी कानून (राज्य कानून सहित) के तहत शुरू किये जाने के बावजूद संस्थागत स्तर पर महत्त्वपूर्ण नेतृत्व की स्थिति में नियुक्तियों के लिये मानक निर्धारित करेगा।
- नियमों के प्रवर्तन की शक्तियाँ: नियामक के पास अकादमिक गुणवत्ता मानकों के अनुपालन को लागू करने की शक्तियाँ होंगी और इसमें घटिया एवं फर्जी संस्थानों को बंद करने की शक्ति होगी। अनुपालन नहीं किये जाने के परिणामस्वरूप ज़ुर्माना या जेल की सज़ा हो सकती है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) 28 दिसंबर, 1953 को अस्तित्व में आया और विश्वविद्यालयी शिक्षा में शिक्षण, परीक्षा और अनुसंधान के मानकों के समन्वय, निर्धारण और रखरखाव के लिये 1956 में संसद के एक अधिनियम द्वारा यह भारत सरकार का एक सांविधिक संगठन बन गया।
पात्र विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को अनुदान प्रदान करने के अतिरिक्त आयोग केंद्र और राज्य सरकारों को उच्च शिक्षा के विकास हेतु आवश्यक उपायों पर सुझाव भी देता है। यह बंगलूरू, भोपाल, गुवाहाटी, हैदराबाद, कोलकाता और पुणे में स्थित अपने 6 क्षेत्रीय कार्यालयों के साथ-साथ नई दिल्ली स्थित मुख्यालय से कार्य करता है।
क्यों पड़ रही है UGC को बदलने की ज़रूरत?
- आज़ादी के बाद के वर्षों में उच्च शिक्षा क्षेत्र की संस्थागत क्षमता में अत्यधिक वृद्धि हुई है। विश्वविद्यालयों की संख्या वर्ष 1950 में 20 विश्वविद्यालयों की तुलना में बढ़कर 2018 में 850 हो गई है। कालेजों की संख्या में भी कई गुना वृद्धि दर्ज की गई है जो 1950 में 500 से बढ़कर वर्तमान में लगभग 40,000 से अधिक हैं। अतः शैक्षिक संस्थाओं की इतनी बड़ी संख्या होने के कारण UGC के पास कार्यों का अत्यधिक बोझ परिलक्षित होता है।
- UGC द्वारा शैक्षिक संस्थाओं को अनुदान प्रदान किये जाने और नियमों के विनियमन के समय प्रदर्शन में काफी अंतर देखा जा रहा था।
- कार्यपालिका और विधायिका की तर्ज पर वित्तीयन और निगरानी का कार्य स्वतंत्र संस्थाओं के द्वारा किये जाने से अधिक पारदर्शिता आने की उम्मीद की जाती है जो कि अभी तक एक ही संस्था अर्थात् UGC के द्वारा ही किया जाता रहा है।
- अभी तक शैक्षिक संस्थाओं के लिये वित्त का आवंटन मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा किया जाता है जो कि UGC के माध्यम से कॉलेजों और विश्वविद्यालाओं तक पहुँचता है, लेकिन नई व्यवस्था के माध्यम से यह वित्त सीधे संस्थाओं तक बिना किसी माध्यम के पहुँचेगा।
- आज हम ज्ञान आधारित अर्थव्यस्था (नॉलेज बेस्ड इकोनॉमी) में काम कर रहे हैं और जिस तरह के श्रमबल की ज़रूरत है, उस पर हमारी शिक्षा प्रणाली द्वारा गौर नहीं किया जा रहा है। हमारे विश्वविद्यालयों से अधिकतर ऐसे छात्र निकल रहे हैं, जो रोज़गार प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं। हमारे विश्वविद्यालयों और कॉलेजों का उद्योगों से बेहतर तालमेल नहीं है।
- भारत का कोई भी शैक्षिक संस्थान विश्व स्तर के अनुरूप नहीं है, अतः UGC की निगरानी प्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं, साथ ही संस्थाओं की रैंकिंग, मूल्यांकन और अन्य मापदंडों ने शिक्षा स्तर में सुधार को अपरिहार्य बना दिया है।
HECI के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ
- शैक्षिक संस्थाओं की अवस्थिति अलग-अलग राज्यों में है, अब जबकि वित्तीयन का अधिकार सीधे केंद्रीय मंत्रालय के पास होगा इससे राज्यों और केंद्र के मध्य राजनैतिक गतिरोध बढ़ेंगे।
- सत्ताधारी दल के बदलने से मंत्रालय की नीतियों में परिवर्तन होना संभव है, अतः राज्य विशेष जहाँ दूसरे दल की सरकार हो वहाँ के शैक्षिक संस्थाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ने की संभावना।
- अनुसंधान गतिविधियाँ भी उच्च स्तरीय नहीं हैं। डीम्ड और निजी विश्वविद्यालय अपनी मनमानी से चलते हैं। ऐसे विश्वविद्यालय ज़्यादातर राजनीतिक बिरादरी और कॉरपोरेट घरानों के हैं। नए आयोग को इन पर लगाम लगाने की ज़रूरत होगी।
- वित्तीयन और विनियमन का प्रबंध अलग-अलग विनियामकों द्वारा किये जाने से विनियामकों के बीच आवश्यक समन्वय बढ़ाने की आवश्यकता होगी।
- देश में उच्च शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों की तादाद 2017 में 3 करोड़ 57 लाख तक पहुँच गई है, जो 2014 के मुकाबले करीब 35 लाख अधिक है। बढ़ती हुई आवश्यकताओं के हिसाब से अवसंरचना एवं विकास के साथ तालमेल बिठाने हेतु आयोग को अधिक प्रयास करना होगा।
- उच्च शिक्षा पर जारी वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात पहली बार 25 फीसदी से अधिक हुआ है। सरकार का लक्ष्य उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात 2022 तक बढ़ाकर 30 फीसदी करने का है। इस दिशा में आयोग की भूमिका महत्त्वपूर्ण होगी।
आगे की राह
- हालाँकि अभी मसौदे के तैयार होने और उस पर देश भर के शोधार्थियों, अभिभावकों, शिक्षाविदों व आम लोगों के सुझावों के आने से लेकर और उनके आधार पर परिवर्तन कर सरकार द्वारा बिल को कैबिनेट में रखने, फिर उसके पास होने, तत्पश्चात् संसद में पास होने और अंततः कानून में बदलने के बाद ही भारतीय उच्चत्तर शिक्षा आयोग का जन्म होगा।
- 1991 के बाद से आर्थिक नीति और उद्योग नीति में तो बहुत परिवर्तन आया है पर इसके समानांतर शिक्षा में परिवर्तन नहीं आया है। इसलिये यहाँ भी सुधार की ज़रूरत है। नियंत्रण की मानसिकता त्यागनी होगी।
- जब से देश स्वतंत्र हुआ है तब से आज तक हमारे देश में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आने के बजाय गिरावट ही आई है और जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये यूजीसी का गठन किया गया था उनको हासिल नहीं किया जा सका है। अतः उच्चत्तर शिक्षा आयोग को शिक्षा के स्तर को उठाने के लिये व्यापक प्रयास करने होंगे।
- नए मसौदे के अनुसार वित्तीयन का कार्य मंत्रालय के पास आ जने से सरकार को अब शोध के लिये ज्यादा राशि आवंटित करनी चाहिये। साथ ही आयोग द्वारा की जाने वाली नियुक्तियों और अन्य महत्त्वपूर्ण मसलों पर राजनीतिक हस्तक्षेप को सीमित करना चाहिये।
- एक तरह से उच्चत्तर शिक्षा आयोग अब एकल नियामक संस्था के रूप में अवतरित होगा, जिसमें सभी तरह के विश्वविद्यालयों जैसे- केंद्रीय, राज्य, निजी और डीम्ड विश्वविद्यालय आदि के लिये एक ही आयोग होगा।
- यही सभी के लिये नियम तय करेगा और शिक्षा संबंधी वे उत्तरदायित्व जो अब तक मंत्रालय द्वारा निर्वहन किये जाते थे, अब उनका निर्वहन उच्चत्तर शिक्षा आयोग करेगा।
निष्कर्ष: HECI-2018 के तैयार मसौदे में शामिल किये गए तथ्य सुनने और पढ़ने में जितने आदर्शवादी प्रतीत हो रहे हैं, यदि वे उतनी ही विशुद्धता के साथ लागू होते हैं और दीर्घकाल तक बने रहते हैं, तब भारत की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में आई गिरावट की जगह उन्नति की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। मसौदे पर 7 जुलाई तक सुझाव मांगे गए हैं। इन सुझावों में क्या विचार आएंगे और कितने शामिल किये जाएंगे, यह अब देखने वाली बात होगी।