नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

संसद टीवी संवाद


भारतीय अर्थव्यवस्था

लोकमंच : विकास ने पकड़ी रफ्तार

  • 11 Sep 2018
  • 25 min read

संदर्भ 

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने वित्त वर्ष 2018-19 की प्रथम तिमाही के लिये स्थिर मूल्यों (2011-12) और वर्तमान मूल्यों दोनों को लेकर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के अनुमान जारी किये। अर्थव्यवस्था में आई तेज़ी के माहौल को प्रतिबिंबित करते हुए जीडीपी वृद्धि दर वर्ष 2018-19 की प्रथम तिमाही में वास्तविक अर्थों में 8.2 प्रतिशत के आँकड़े को छू गई जो वित्त वर्ष 2017-18 की अंतिम तिमाही में दर्ज की गई 7.7 प्रतिशत के मुकाबले और ज़्यादा बेहतर स्थिति को दर्शाती है। इस विकास का आधार काफी व्यापक है और यह उपभोग व्यय में 8.4 प्रतिशत की वृद्धि और नियत (फिक्स्ड) निवेश में 10.0 प्रतिशत की उल्लेखनीय बढ़ोतरी की बदौलत संभव हो पाया है। विशेषकर फिक्स्ड निवेश में वृद्धि अत्यंत उत्साहवर्द्धक रही है क्योंकि यह वित्त वर्ष 2017-18 की चौथी तिमाही में दर्ज की गई 14.4 प्रतिशत की उल्लेखनीय वृद्धि के मुकाबले आँकी गई बढ़त को दर्शाती है। यही नहीं, यह आँकड़ा भावी विकास की दृष्टि से भी अच्छे संकेत दे रहा है। तो क्या माना जाए कि विकास की रफ्तार अब सही मायने में पटरी पर आ रही है?

8.2 प्रतिशत जीडीपी के मायने 

8.2 प्रतिशत की समग्र वृद्धि दर, विनिर्माण क्षेत्र में 13.5 प्रतिशत की वृद्धि दर तथा पूंजी सृजन में 10 प्रतिशत से भी अधिक की वृद्धि दर दर्शाती है कि विकास की रफ्तार अब गति पकड़ रही है। 

  • 2018-19 में देश की विकास दर में और भी तेज़ी आने की उम्मीद है जिससे भारत दुनिया में सबसे तेज़ी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में आगे भी बना रहेगा।
  • वित्त वर्ष 2018-19 की प्रथम तिमाही में 8.2 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि दर से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि देश में लागू किये गए ढाँचागत सुधार जैसे कि जीएसटी के अच्छे परिणाम, अब मिलने शुरू हो गए हैं।
  • विनिर्माण क्षेत्र में 13.5 प्रतिशत की वृद्धि दर से भी मांग में व्यापक सुधार होने के संकेत मिलते हैं। यह पिछली चार तिमाहियों में आर्थिक विकास की उल्लेखनीय गति को दर्शाती है जो क्रमशः 6.3, 7, 7.7 प्रतिशत और अब 8.2 प्रतिशत आँकी गई है।
  • कृषि क्षेत्र में जहाँ कहा जा रहा था कि वृद्धि नहीं हो रही है उसमें 5.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। पिछले साल इसी अवधि में यह आँकड़ा 3 प्रतिशत था।
  • मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में 13.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि पिछली अवधि में यह 1.8 प्रतिशत थी। अर्थात् यह आँकड़ा काफी अधिक है। विनिर्माण क्षेत्र में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई जो पिछले साल इसी अवधि में 1.8 प्रतिशत थी। मैन्युफैक्चरिंग और विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि दर का प्रत्यक्ष अर्थ रोज़गार से होता है अर्थात् ऐसा रोज़गार जिसमें कम पढ़े लिखे लोगों को रोज़गार मिलने की संभावना बढ़ जाती है।
  • उपरोक्त आँकड़े प्रोत्साहित करने वाले हैं, इसे बनाए रखने की ज़रूरत है। भारत जैसी अर्थव्यवस्था में ऐसे आंकड़े बेहतर माने जा सकते हैं।
  • महत्त्वपूर्ण कोर सेक्टर जैसे क्रूड आयल, गैस, रिफाइनरी, विद्युत, सीमेंट का उत्पादन या इनकी खरीद की जा रही है, इससे यह संभावना बनती है कि हम लॉन्ग टर्म ग्रोथ की ओर आगे बढ़ रहे हैं।
  • सुधार के चलते जिस तरह से हम वृद्धि कर रहे हैं यदि इसी दर से हम आगे एक साल तक विकास करते रहें तो आर्थिक मज़बूती और बढ़ेगी तथा वैश्विक समुदाय के लिये यह एक अच्छा संकेत होगा।
  • हमारे निवेश और बढ़ेंगे तथा भारत के भीतर निवेश हेतु कॉर्पोरेट सेक्टर, प्राइवेट कॉर्पोरेट सेक्टर, व्यावसायिक समुदाय आगे आएंगे।
  • निवेश बढ़ने से उत्पादन सुविधाएँ और बढेंगी और हमारे आयात कम होंगे तथा बाह्य मुद्दों का समाधान हो सकेगा।

क्या जीडीपी में यह वृद्धि आर्थिक सुधारों के कारण है?

यदि वृद्धि हो रही है तो सहज ही कहा जा सकता है कि यह आर्थिक सुधारों के लिये उठाए गए कदमों जैसे-विमुद्रीकरण तथा जीएसटी का ही नतीजा है। खासतौर से जीएसटी के मामले में। अब ये सुधार कारगर सिद्ध हो रहे हैं।

  • 2016 में हमारी जीडीपी बेहतर थी। उस समय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 9.3 प्रतिशत थी। उसका कारण यह था कि अर्थव्यवस्था जो स्लोडाउन की अवस्था में थी वह वापस पटरी पर आ गई थी। उसके बाद ये दो महत्त्वपूर्ण सुधार हुए।
  • जब भी कोई बड़ा बदलाव आता है तो उसका सीधा असर पहले दिखाई देता है। अचानक सब कुछ व्यवस्थित नहीं हो पाता।
  • जीएसटी के जो मुद्दे या प्रभाव थे या उसके क्रियान्वयन की जो समस्या थी या उसे समझने में जो कमज़ोरी थी वह सब कुछ अब स्पष्ट हो चुका है। उदाहरण के लिये स्लैब से संबंधित चीज़ें काफी हद तक हल हो चुकी हैं और अर्थव्यवस्था में जीएसटी के लाभ अब दिखाई देने लगे हैं।
  • जीडीपी के वर्तमान आँकड़े इसलिये महत्त्वपूर्ण हैं कि पिछले चार या पाँच तिमाही में हम लगातार वृद्धि कर रहे हैं। जीडीपी का 5.3 प्रतिशत से 6.7 प्रतिशत पर आना फिर 7.7 प्रतिशत के बाद 8.2 पर पहुँचना यह दर्शाता है कि तिमाही वृद्धि दर सही दिशा में जा रही है। उम्मीद है कि यह वृद्धि आगे भी कायम रहेगी।
  • मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर 5.3 प्रतिशत की वृद्धि के साथ सही दिशा में जा रहा है। विनिर्माण तथा कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर भी काफी उत्साहजनक है।
  • कृषि क्षेत्र में जो वृद्धि दर दिख रही है वह पिछले कुछ वर्षों से बेहतर हुई है जो कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिये बहुत ज़रूरी है। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में समृद्धि कृषि क्षेत्र में वृद्धि के कारण ही आती है। अभी भी देश की 67 से 68 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है।
  • जब कृषि क्षेत्र वृद्धि करता है तो अकुशल युवा वर्ग के लिये रोज़गार के संसाधन सृजित होते हैं, आय बढ़ती है तथा मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का विकास होता है क्योंकि जब आय बढेगी तो लोग मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से निर्मित अपनी रोजमर्रा की ज़रूरतों पर अधिक रुपए खर्च करेंगे।
  • मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में वृद्धि होने से सेवा क्षेत्र वृद्धि करता है। अगर कृषि क्षेत्र आगे भी 5 प्रतिशत की वृद्धि दर बरकरार रखता है तो आने वाले वर्षों में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में भी वृद्धि होगी।
  • विनिर्माण तथा मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में जो वृद्धि दिखाई दे रही है उससे हम व्यवसाय में वापस पटरी पर आ रहे हैं।

वृद्धि दर को कायम रखने की चुनौती 

यकीनन आर्थिक सुधारों के कारण भारत के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में तेज़ वृद्धि हुई है। जीडीपी के आधार पर भारत दुनिया की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, लेकिन इस समय अर्थव्यवस्था के सामने कई चुनौतियाँ हैं। डॉलर के मुकाबले कमजोर होते रुपए और कच्चे तेल के बढ़ते दामों ने भारत की चिंता को बढ़ा दिया है।

  • हमें बाह्य चुनौतियों जैसे- रुपए के मूल्य में गिरावट, बैलेंस ऑफ पेमेंट, ट्रेड डेफिसिट तथा करेंट अकाउंट डेफिसिट पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
  • विगत दिनों में घरेलू सुधार के जो बहुत अधिक आसार दिखाई दिये या जो सुधार हुए हैं उसका भरपूर लाभ मिलता दिखाई दे रहा है। इसे अब बाह्य क्षेत्रों के साथ भी जोड़ने की ज़रूरत है क्योकि प्रतिस्पर्द्धी वैश्विक अर्थव्यवस्था में बना रहना भी एक बड़ी चुनौती होगी।
  • हमें अपना बाह्य क्षेत्र काफी मज़बूत करना होगा क्योंकि जब हम आयात अधिक करते हैं तो उसका सीधा असर ट्रेड डेफिसिट में वृद्धि तथा करेंट अकाउंट डेफिसिट में वृद्धि के रूप में दिखाई देता है जिससे करेंसी प्रभावित होती है।
  • जब करेंसी प्रभावित होती है तो हमारे आयात और महँगे हो जाते हैं जिसका पूरी अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ने के आसार बन जाते हैं जो हमारे लिये चिंता का विषय है। इसलिये निर्यात वृद्धि को वापस पटरी पर लाने के प्रयास होने चाहिये।
  • वैश्विक नज़रिये से देखा जाए तो हमारी वैश्विक वृद्धि दर 4 प्रतिशत है। इस वृद्धि के साथ यदि हम निर्यात की मात्रा भी बढ़ा लेते हैं तो हमारा ट्रेड डेफिसिट अच्छा रहेगा जिसका लाभ सभी व्यवसायों को मिलेगा।
  • कुछ चीजों पर गंभीरता से विचार किये जाने की ज़रूरत है, उदाहरण के लिये जीएसटी कलेक्शन। जीएसटी में एक लाख करोड़ प्रतिमाह का एवरेज कलेक्शन रेगुलर होना चाहिये।
  • पिछले महीने अर्थात् जुलाई में 98 हज़ार करोड़ का जीएसटी कलेक्शन किया गया, जबकि अगस्त में 93 हज़ार करोड़ का कलेक्शन किया गया। यह कलेक्शन तमाम सेवाओं में टैक्स कटौती की वज़ह से हो पाया है।  
  • कच्चे तेल के भाव एक अलग गति से बढ़ रहे हैं। यह एक ऐसा करक है जिस पर किसी का वश नहीं है। इसका ताल्लुक किसी सरकार से भी नहीं है। कच्चे तेल के बढ़ते दामों का असर भी दिखाई दे रहा है, जैसे- मुद्रास्फीति दर तथा महँगाई आदि।
  • इस वृद्धि के बावजूद अगर कोई सबसे बड़ी चुनौती है तो वह है कच्चे तेल के दामों को मैनेज करना।
  • एक समय सेवा क्षेत्र 12 से 13 प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रहा था लेकिन आँकड़े बताते हैं कि यह वृद्धि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के पास चली गई है। सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर 6.5 के आस-पास पहुँचना निश्चय ही इस क्षेत्र में समस्या का संकेत देता है जो टेलीकम्यूनिकेशन में प्रतिस्पर्द्धा के चलते है।
  • अगर सेवा क्षेत्र 10 प्रतिशत, कृषि क्षेत्र 5 प्रतिशत, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र 13.5 प्रतिशत की दर से वृद्धि करे तो 8 से 10 प्रतिशत का जो सपना, है उसे प्राप्त करना मुश्किल ज़रूर है लेकिन असंभव नहीं।
  • जीडीपी का लगातार बढ़ते रहना ज़रूरी है क्योंकि ट्रेड वार के कारण यह अर्थव्यवस्था के लिये बड़ी चुनौती है। कुछ आर्थिक जानकार ट्रेड वार को भारत के लिये एक मौके के रूप में भी देख रहे हैं।
  • हमें करेंट अकाउंट डेफिसिट रेट पर निगाह रखनी चाहिये इसलिये निर्यात को बढ़ाना बेहद ज़रूरी होगा। भारत ऐसी अर्थव्यवस्था नहीं है जिससे कि करेंसी पर भरोसा हो। जब तक करेंसी मज़बूत नहीं होगी काम बनने वाला नहीं यह तभी होगा जब हमारा निर्यात बढ़ेगा। 

जीएसटी कलेक्शन कैसे स्टेबल हो?

जीएसटी के क्रियान्वयन में शुरुआती खामियों के बाद अब सरकार इस सबसे बड़े कर सुधार को ठीक तरह से लागू कर पा रही है। 

  • जीएसटी में जो बदलाव होने थे वे तकरीबन हो चुके हैं लेकिन कुछ और बदलावों की ज़रूरत है। हमें स्लैब कम करने होंगे। कलेक्शन में उतार-चढ़ाव तो रहेगा लेकिन यह बहुत जल्द स्थिर ज़रूर होगा।
  • जीएसटी के आने में अभी एक साल लगा है आने वाले समय में इसमें और सरलता आने की संभावना है।
  • कलेक्शन में स्थिरता पर ध्यान देने की ज़रूरत है। आँकड़ों के हिसाब से हम कह सकते हैं कि कलेक्शन स्थिर है तथा आने वाले समय में यह और मज़बूत होगा।
  • जिस तरह जीएसटी में सरलता आने में लगभग सवा साल का समय लगा है उसी तरह से जीएसटी के स्थिर होने में भी इतना ही समय लग सकता है।

क्या नोटबंदी का लाभ भी अब मिलना शुरू हो गया है?

विपक्ष अकसर सवाल करता है कि नोटबंदी से देश को क्या लाभ हुआ। लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता कि नोटबंदी के बाद के एक साल में बैंकों ने ब्याज दरों में 1 फीसदी तक की कटौती की। 

  • नोटबंदी के बाद कैशलेस ट्रांजेक्शन को काफी बढ़ावा मिला। यही नहीं कालेधन के खिलाफ लड़ाई में भी नोटबंदी का फैसला काफी काम आया क्योंकि 17.92 लाख ऐसे लोगों की पहचान हुई जिनके बैंक खाते में जमा रकम का मेल उनकी आय से नहीं हुआ। 
  • आयकर रिटर्न फाइल करने में 71 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह वृद्धि जिन वज़हों से हुई है उनमें से एक वजह नोटबंदी भी है जिसके कारण लोगों में आयकर रिटर्न के प्रति खौफ का माहौल बना है।
  • कर प्रशासन में और सुधार की ज़रूरत है। कर प्रशासन में दो तरीकों से सुधार हो सकता है, एक है पारदर्शिता तथा दूसरा है डर का माहौल पैदा करना।
  • बहुत से ऐसे लोग अब आयकर रिटर्न फाइल कर रहे हैं जिन्होंने पहले कभी फाइल नहीं किया था। उनको यह अंदाजा था कि सिस्टम में कुछ हो ही नहीं सकता है। लेकिन नोटबंदी ने इसके प्रति जनता में सकारात्मक संदेश दिया है।

क्रूड आयल के दाम यदि रुक नहीं सकते तो इसका विकल्प क्या है?

अब ऐसे उपाय करना अपरिहार्य हो गया है, जिससे तेल पर हमारी निर्भरता घटे। इस हेतु सरकार इलेक्टिक से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा दे। ऐसे वाहनों पर टैक्स की दरें कम रखी जाएँ और यदि ज़रूरी लगे तो सब्सिडी भी दी जाए। 

  • जिस काम को अर्थव्यवस्था में युद्ध स्तर पर करना है वह है कच्चे तेल के विकल्पों पर काम करना। विद्युत से कार और बाइक चलाने की बात तो काफी समय से की जा रही है लेकिन यह ज़मीनी स्तर पर दिखाई नहीं दे रहा है।
  • सौर ऊर्जा की बातें भी लंबे अरसे से सुनाई देती हैं लेकिन ज़मीनी स्तर पर अपेक्षित सुधार नहीं दिखाई देता। हालाँकि सौर ऊर्जा को लेकर भारत द्वारा उठाए गए कदम की वैश्विक सराहना हुई है।
  • तेल का मूल्य 100 डॉलर प्रति बैरल हो जाने से देश की अर्थव्यवस्था दबाव में ज़रूर आ गई है। भारत और चीन तेल के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। यदि केवल इन दो देशों की मांग कम हो जाए तो तेल के दाम अपने आप कम हो जाएंगे।
  • युद्ध स्तर पर यह काम होना चाहिये कि कम-से-कम दो साल में कार और बाइक को सोलर और इलेक्ट्रिकल प्रणाली पर लाना होगा। अगर ऐसा होता है तो बहुत हद तक तेल का मसला हल हो जाएगा।
  • देश को पेट्रोल और डीज़ल की महंगाई से बचाने के लिये सरकार अपना ध्यान ऊर्जा नीति को नए सिरे से तैयार करने पर केंद्रित करे, ताकि पेट्रोल-डीज़ल की बढ़ती कीमतों से उत्पन्न होने वाली आर्थिक मुश्किलों को कम किया जा सके।

कृषि के आँकड़ों के पीछे कौन से कारक प्रभावी हैं?

कृषि क्षेत्र जिस पर ग्रोथ नहीं हो पाने के आरोप सरकारों पर हमेशा लगते रहे हैं, के वर्तमान आँकड़े बेहतर हैं। किसानों की आय दोगुना करने के मुद्दे पर दोगुनी पैदावार बढ़ानी होगी, इसके व्यापार का दायरा बढ़ाना होगा जिससे किसानों को लाभ हो।

  • कृषि क्षेत्र पर देश की लगभग 50 प्रतिशत जनसंख्या निर्भर है इसका कुल वर्ल्ड फ़ूड एंड एग्री इम्पोर्ट 13000 मिलियन डॉलर के आसपास है और उसमें भारत का हिस्सा मात्र 30 मिलियन डॉलर है जो कि लगभग 1 प्रतिशत से भी कम है, जबकि हमारी अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है। इसे और बढ़ाने की ज़रूरत है।
  • हालिया आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि हमारे पास 100 मिलियन डॉलर की क्षमता है। इस प्रकार यह 70 मिलियन डॉलर कम है जो कि खाद्य प्रसंस्करण के ज़रिये बढ़ाया जा सकता है। इसमें किसी बाहरी इनपुट की ज़रूरत नहीं है।
  • कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 5 प्रतिशत से ऊपर है। अगर हम इसी दर पर वृद्धि करते हैं तो हमें बाहर से इनपुट लेने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
  • हमें अपने कृषि उत्पादों को बाहर भेजने का प्रयास करना चाहिये। अगर इसमें 30 बिलियन डॉलर की और वृद्धि होती है तो किसानों की आय दोगुनी होना शुरू हो जाएगी। 

रोज़गार में बढ़ोतरी हुई है या नहीं? 

जीडीपी के आँकड़े तब आते हैं जब उसमें कृषि, मैन्युफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन के आँकड़े जुड़ जाते हैं और तब राजनीतिक गलियारे से बार-बार यही सवाल उठता है कि रोज़गार के क्षेत्र में सफलता नहीं मिल पा रही है।

  • जीडीपी के आँकड़े रोज़गार में बढ़ोतरी के संकेत देते हैं। 1999 के सुधारों के बाद 2002, 2003, 2004 और 2005 में हमारी वृद्धि दर एक अच्छी दिशा में बढ़नी शुरू हुई फिर उसके बाद गोल्डेन पीरियड आया जहाँ पर हमने 8, 9 प्रतिशत के साथ वृद्धि की।
  • उसके बाद लेमैन क्राइसिस ने प्रभावित किया जिससे हमारी वृद्धि दर नीचे गिर गई और फिर हम पटरी पर आए तथा फिर यूरो क्राइसिस आया जिससे ग्रोथ प्रभावित हुई।
  • जहाँ तक रोज़गार का सवाल है तो इन सबके चलते जिस तरह से जीडीपी में वृद्धि हो रही थी उसी प्रकार रोज़गार में वृद्धि नहीं हो पाई। इसकी ज़िम्मेदार संरचनात्मक समस्याएँ हैं।
  • अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र का योगदान ज़्यादा है लेकिन इस क्षेत्र में जो रोज़गार सृजन हो रहा है वह आनुपातिक नहीं है लेकिन कृषि क्षेत्र जिसका जीडीपी में योगदान केवल 15 से 16 प्रतिशत है, पर निर्भरता बहुत ज़्यादा है। अभी भी देश का 50 प्रतिशत श्रम बल कृषि पर निर्भर है।
  • मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की बात करें तो इसका जीडीपी में 20 से 25 प्रतिशत का योगदान रहता है लेकिन रोज़गार सृजन उस अनुपात में नहीं होता।
  • रोज़गार की सबसे अधिक निर्भरता कृषि क्षेत्र पर है जो वृद्धि नहीं कर पा रही है, इससे रोज़गार के जो संसाधन हैं वह सीमित हो गए हैं। सेवा क्षेत्र में रोज़गार सृजन अधिक नहीं होता।
  • ज़रूरत है मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को एक अच्छी दिशा देने की जो रोज़गार सृजन कर सके।
  • मेक इन इंडिया का मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में जो प्रभाव है वह आने वाले समय में दिखाई देगा और रोज़गार सृजन को बढ़ावा मिलेगा। हमें इस बात को सोचने की ज़रूरत है कि रोज़गार सृजन कैसे होगा।

निष्कर्ष 

सर्वाधिक तेज़ विकास दर के बावजूद विश्व के अन्य कई देशों की तरह ही भारत की अर्थव्यवस्था भी कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना कर रही है। कृषिगत, ग्रामीण अर्थव्यवस्था की चिंताजनक स्थिति, रोज़गार सृजन की चुनौतियाँ और आर्थिक क्षेत्र में कमज़ोर प्रदर्शन भारत की मुख्य समस्याएँ हैं। आर्थिक वृद्धि की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ते भारत के कदमों को कई बार ये तीनों ही चुनौतियाँ एक साथ या बारी-बारी से जकड़ लेती हैं। अर्थव्यवस्था, रोज़गार और कृषि क्षेत्र तीनों ही एक-दूसरे से कुछ इस प्रकार से जुड़े हुए हैं कि किसी एक में भी लाया गया बदलाव अन्य दोनों को प्रभावित करता है। किसी भी तंत्र द्वारा बेहतर कार्य निष्पादन क्षमता के लिये यह आवश्यक है कि इसके सभी अंग एक-दूसरे से समन्वित ढंग से जुड़े हों। जिस प्रकार मानव शरीर में हृदय, रक्त और धमनियों के मध्य आपसी समन्यव से शरीर के प्रत्येक कोने में रक्त का संचार होता है, ठीक उसी प्रकार से अर्थव्यवस्था, समाज और कृषि को एक साथ मिलाकर ही हम वास्तविक संवृद्धि पा सकते हैं। समस्या यह भी है कि आर्थिक विकास के इन घटकों का हम अलग-अलग अध्ययन करते हैं, अर्थशास्त्री केवल अर्थव्यवस्था की चिंता करता है और समाजशास्त्री सामाजिक चिंताओं की बात करता है। विकास की गति  बनाए रखने के लिये प्रचलित तरीकों में बदलाव लाते हुए एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण किये जाने की आवश्यकता है जो इन्हें एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायी बना सकें।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow