मरुस्थलीकरण | 12 Sep 2019
संदर्भ
वनों की अंधाधुंध कटाई और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली इंसानी गतिविधियों के कारण धरती लगातार सिकुड़ती जा रही है। उपजाऊ ज़मीन मरुस्थल में बदल रही है। आज भारत सहित पूरा विश्व मरुस्थलीकरण की समस्याओं से जूझ रहा है। मरुस्थलीकरण के कारण हर साल लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं। इन्हीं समस्या से निपटने के लिये पूरा विश्व ‘संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम अभिसमय’ (UNCCD) पर सहमत हुआ। UNCCD के पार्टियों का 14वां सम्मेलन (COP14) 2 सितंबर से 13 सितंबर तक भारत में आयोजित किया जा रहा है।
मरुस्थलीकरण एक ऐसी भौगोलिक घटना है, जिसमें उपजाऊ क्षेत्रों में भी मरुस्थल जैसी विशिष्टताएँ विकसित होने लगती हैं। इसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिवधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क, निर्जल इलाकों की ज़मीन रेगिस्तान में बदल जाती है। इससे ज़मीन की उत्पादन क्षमता में ह्रास होता है। मरुस्थलीकरण से प्राकृतिक वनस्पतियों का क्षरण तो होता ही है, साथ ही कृषि उत्पादकता, पशुधन एवं जलवायवीय घटनाएँ भी प्रभावित होती हैं।
वर्तमान स्थिति
- भारत में भू-क्षरण का दायरा 96.40 मिलियन हेक्टेयर है जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 29.30 प्रतिशत है।
- 70 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र शुष्क भूमि के रूप में है, जिसमें से 30 प्रतिशत भूमि भू-क्षरण की प्रक्रिया में तथा 25 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया में है।
- विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (Centre for Science and Environment- CSE) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2003-05 और 2011-13 के बीच 18.7 लाख हेक्टेयर भूमि का मरुस्थलीकरण हुआ है।
- गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु एवं पंजाब के क्रमश: 4, 3, 5 एवं 2 ज़िलों में मरुस्थलीकरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
- हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गोवा, कर्नाटक, केरल, जम्मू-कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश के क्रमश: 2, 4, 4, 1, 2, 2, 5 एवं 3 ज़िले मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं।
- एक अन्य अध्ययन के अनुसार, विश्व में हर वर्ष 12 मिलियन हेक्टयर उत्पादक भूमि मरुस्थलीकरण और सूखे के कारण बंजर हो जाती है।
- हर साल लगभग 20 मिलियन टन के बराबर अनाज के उत्पादन में कमी आ रही है।
- विश्व के कुल क्षेत्रफल का पाँचवां भाग अर्थात् 20% हिस्सा मरुस्थल है।
‘संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम अभिसमय’
(United Nations Convention to Combat Desertification- UNCCD)
संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम अभिसमय संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत तीन रियो अभिसमय (Rio Conventions) में से एक है। अन्य दो अभिसमय हैं-
- जैव विविधता पर अभिसमय (Convention on Biological Diversity- CBD)।
- जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय (United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC)।
UNCCD एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो पर्यावरण एवं विकास के मुद्दों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी है। मरुस्थलीकरण की चुनौती से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 17 जून को ‘विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस’ मनाया जाता है।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय (UNFCCC)
- यह एक अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय है जिसका उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है।
- यह अभिसमय जून, 1992 में रियो डी जनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन के दौरान किया गया था। विभिन्न देशों द्वारा इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद 21 मार्च, 1994 को इसे लागू किया गया।
- वर्ष 1995 से लगातार UNFCCC की वार्षिक बैठकों का आयोजन किया जाता है। इसके तहत ही वर्ष 1997 में बहुचर्चित क्योटो समझौता (Kyoto Protocol) हुआ और विकसित देशों (एनेक्स-1 में शामिल देश) द्वारा ग्रीनहाउस गैसों को नियंत्रित करने के लिये लक्ष्य तय किया गया। क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों को अलग सूची एनेक्स-1 में रखा गया है।
- UNFCCC की वार्षिक बैठक को कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (COP) के नाम से जाना जाता है।
कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज (COP)
- यह UNFCCC सम्मेलन का सर्वोच्च निकाय है। इसके तहत विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों को सम्मेलन में शामिल किया गया है। यह हर साल अपने सत्र आयोजित करता है।
- COP सम्मेलन के प्रावधानों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक निर्णय लेता है और नियमित रूप से इन प्रावधानों के कार्यान्वयन की समीक्षा करता है।
मरुस्थलीकरण के कारण न केवल मानवीय जीवन बल्कि वन्यजीवन भी प्रभावित हो रहा है। भूमि के बंजर होने से लगातार कृषि क्षेत्र घटता जा रहा है और भू-क्षरण बढ़ रहा है जिससे निकट भविष्य में खाद्यान्न संकट गहराने की संभावना जताई जा रही है। यही कारण है कि पूरी दुनिया मरुस्थलीकरण को लेकर चिंतित है। इसी चिंता ने विश्व के सभी देशों को मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये एकजुट किया। UNCCD के पार्टियों के 14वें सम्मेलन का लक्ष्य भी बढ़ते मरुस्थलीकरण को रोकना ही रखा गया है।
मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारण
पानी से कटाव: नदियों से होने वाले ज़मीन के कटाव के कारण सौराष्ट्र और कच्छ के ऊपरी इलाकों के काफी बड़े क्षेत्र प्रभावित हुए हैं। कटाव के कारण ज़मीन की सतह में कई तरह के बदलाव आते हैं और भू-क्षरण बढ़ता है।
हवा से मिट्टी का कटाव: हवा से मिट्टी के कटाव का सबसे बुरा असर थार के रेतीले टीलों और रेत की अन्य संरचनाओं पर पड़ा है। मरुस्थल के अन्य भागों में किसान यह बात स्वीकार करते हैं कि ट्रैक्टरों के जरिये गहरी जुताई, रेतीले पहाड़ी ढलानों में खेती, अधिक समय तक ज़मीन को खाली छोड़ने और अन्य परंपरागत कृषि प्रणालियों से रेत का प्रसार और ज़मीन के मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज़ होती है। साथ ही जनसंख्या के दबाव और आर्थिक कारणों से पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।
एक प्रमुख समस्या ज़मीन में पानी जमा होने और लवणता और क्षारता बढ़ जाने की है। कछारी मैदानों में खारे भूमिगत जल से सिंचाई की वजह से लवणता और क्षारता की समस्या उत्पन्न हो गई है। कच्छ और सौराष्ट्र के कछारी तटवर्ती इलाकों में बहुत अधिक मात्रा में भूमिगत जल निकालने से कई स्थानों पर समुद्र का खारा पानी जल स्रोतों में भर गया है। थार मरुस्थल में इंदिरा गाँधी नहर के कमान क्षेत्र की ज़मीन में पानी जमा होने और लवणता-क्षारता जैसी समस्याएँ बड़ी तेज़ी से बढ़ रही हैं।
औद्योगिक कचरा: हाल के वर्षों में राजस्थान के औद्योगिक कचरे से भूमि और जल प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है। जोधपुर, पाली और बलोत्रा कस्बों में कपड़ा रंगाई और छपाई उद्योगों से निकले कचरे को नदियों में छोड़े जाने से भू-तलीय और भूमिगत जल प्रदूषित हो गया है।
निर्वनीकरण: वनों का कटाव मरुस्थल के प्रसार का प्रमुख कारण है। गुणात्मक रूप से बढ़ती जनसंख्या के कारण ज़मीन पर बढ़ते दबाव की वज़ह से पेड़-पौधों और वनस्पतियों के ह्रास में वृद्धि हो रही है। जंगल सिकुड़ रहे हैं और मरुस्थलीकरण को बढ़ावा मिल रहा है।
बॉन चुनौती (Bonn Challenge)
- बॉन चुनौती एक वैश्विक प्रयास है। इसके तहत दुनिया के 150 मिलियन हेक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर वर्ष 2020 तक और 350 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वर्ष 2030 तक वनस्पतियाँ उगाई जाएंगी।
- पेरिस में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, 2015 में भारत ने स्वैच्छिक रूप से बॉन चुनौती पर स्वीकृति दी थी।
- भारत ने 13 मिलियन हेक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर वर्ष 2020 तक और अतिरिक्त 8 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर 2030 तक वनस्पतियाँ उगाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
जैव विविधता अभिसमय
(Convention on Biological Diversity- CBD)
- यह अभिसमय वर्ष 1992 में रियो डि जेनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन के दौरान अंगीकृत प्रमुख समझौतों में से एक है।
- CBD पहला व्यापक वैश्विक समझौता है जिसमें जैव विविधता से संबंधित सभी पहलुओं को शामिल किया गया है।
- इसमें आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होते हुए विश्व के परिस्थितिकीय आधारों को बनाए रखने हेतु प्रतिबद्धताएँ निर्धारित की गई हैं।
- CBD में पक्षकार के रूप में विश्व के 196 देश शामिल हैं जिनमें से 168 देशों ने हस्ताक्षर किये हैं।
- भारत CBD का एक पक्षकार (Party) है।
- इस अभिसमय में राष्ट्रों के जैविक संसाधनों पर उनके संप्रभु अधिकारों की पुष्टि किये जाने के साथ ही तीन लक्ष्य निर्धारित किये गए है-
- जैव विविधता का संरक्षण।
- जैव विविधता घटकों का सतत् उपयोग।
- आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से प्राप्त होने वाले लाभों में उचित और समान भागीदारी।
नियंत्रण के उपाय
सर्वप्रथम वृक्षारोपण की दर को तेज़ी से बढ़ाना होगा एवं समांतर रूप से निर्वनीकरण पर रोक लगानी होगी। मरुस्थलीय क्षेत्र में क्षेत्र के अनुकूल पौधों को लगाया जाना चाहिये। मिटटी के अपरदन को रोका जाना चाहिये, साथ ही कृषि कार्यों में अत्यधिक रासायनिक उर्वरक का प्रयोग न करते हुए मरुस्थलीय क्षेत्र में सूक्ष्म सिंचाई (Micro Irrigation) को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। अवैध खनन गतिविधियों पर रोक एवं कॉर्पोरेट कंपनियों को ‘कॉर्पोरेट सोशल रेस्पाॅन्सिबिलिटी के तहत वृक्षारोपण का कार्य सौंपा जाना चाहिये।