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उपचारात्मक याचिका

  • 14 Jan 2020
  • 12 min read

संदर्भ

हाल ही में निर्भया केस के चारों दोषियों को 22 जनवरी, 2020 को सुबह 7 बजे फाँसी देने की सज़ा सुनाई गई। इस मामले के चार दोषियों में से दो के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में उपचारात्मक याचिका (Curative Petition) दायर की गई थी। जिसपर 14 जनवरी 2020 को सुनवाई करते हुए न्यायालय ने याचिका को ख़ारिज कर मृत्युदंड की सज़ा को बनाए रखा। विदित है कि उपचारात्मक याचिका के लंबित रहने तक डेथ वारंट (Death Warrant) पर रोक लगी रहती है।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट से मृत्युदंड प्राप्त किसी व्यक्ति के पास इस सज़ा से बचने के लिये दो विकल्प होते हैं- दया याचिका और पुनर्विचार याचिका। दया याचिका (संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत), जो कि राष्ट्रपति के पास भेजी जाती है जबकि, पुनर्विचार याचिका सुप्रीम कोर्ट में ही दायर की जाती है। लेकिन इन दोनों याचिकाओं के खारिज हो जाने के बाद भी दोषी के पास क्यूरेटिव पिटीशन का विकल्प बचता है।

  • दायर याचिका में याचिकाकर्त्ता ने यह अपील की थी कि सर्वोच्च न्यायालय को इस बात पर विचार करना चाहिये कि घटना के समय उसकी उम्र मात्र 19 वर्ष की थी तथा पूर्व में उसकी इस अपील पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया।
  • याचिकाकर्त्ता ने कहा कि उसकी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ, बीमार माता-पिता सहित परिवार के आश्रितों की संख्या, जेल में अच्छा आचरण और सुधार की संभावना पर विचार नहीं किया गया जो न्याय के सिद्धांत का अतिक्रमण (Grave Miscarriage Of Justice) है।
  • याचिका में यह भी उल्लेख किया गया कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय ‘समाज के सामूहिक अंतःकरण’(Collective Conscience Of Society) तथा ‘जनमत’ (Public Opinion) जैसे कारकों से भी प्रभावित था।

क्या है उपचारात्मक याचिका ?

  • क्यूरेटिव पिटीशन शब्द की उत्त्पत्ति ‘Cure’ शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘उपचार’ होता है। उपचारात्मक याचिका में यह बताना आवश्यक होता है कि याचिकाकर्त्ता किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दे रहा है।
  • उपचारात्मक याचिका का सर्वोच्च नायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता (Senior Advocate) द्वारा प्रमाणित होना अनिवार्य होता है।
  • अधिवक्ता द्वारा प्रमाणित होने के बाद यह याचिका उच्चतम न्यायलय के तीन वरिष्टतम न्यायाधीशों (जिनमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल होते हैं) को भेजी जाती है तथा इसके साथ ही यह याचिका से संबंधित मामले में फैसला देने वाले न्यायाधीशों को भी भेजी जाती है।
  • यदि उच्चतम न्यायालय की यह पीठ उपरोक्त मामले पर पुनः सुनवाई का निर्णय बहुमत से लेती है तो उपचारात्मक याचिका को सुनवाई के लिये पुनः उसी पीठ के पास भेज दिया जाता है जिसने मामले में पहली/पिछली बार फैसला दिया था।
  • उपचारात्मक याचिका पर निर्णय आने के बाद अपील के सारे रास्ते समाप्त हो जाते हैं क्योंकि उपचारात्मक याचिका में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्त्ता द्वारा रेखांकित बिंदुओं के साथ उन सभी मुद्दों या विषयों को चिन्हित किया जाता है जिसमें न्यायालय को लगता है कि इनपर ध्यान दिये जाने की जरूरत है।
  • सामान्यतः उपचारात्मक याचिका की सुनवाई जजों के चेंबर (कार्यालय) में ही हो जाती है परंतु याचिकाकर्त्ता के आग्रह पर इसकी सुनवाई ओपन कोर्ट (Open Court) में भी की जा सकती है।
  • उपचारात्मक याचिका की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय की पीठ किसी भी स्तर पर किसी वरिष्ठ अधिवक्ता को न्याय मित्र (Amicus Curiae) के रूप में मामले पर सलाह के लिये आमंत्रित कर सकती है।

उपचारात्मक याचिका दाखिल करने के लिये जरूरी/आवश्यक स्थितियाँ:

उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक मामले में दोषी के पास उपचारात्मक याचिका का विकल्प उपलब्ध नहीं होता है। उपचारात्मक याचिका की व्यवस्था ऐसे विशेष/असामान्य मामलों के लिये की गई है जहाँ उच्चतम न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी न्यायलय के निर्णय से न्याय के सिद्धांत का अतिक्रमण (Grave Miscarriage Of Justice) हो रहा हो।

उपचारात्मक याचिका दाखिल करने के लिये निम्नलिखित परिस्थितियों का होना अनिवार्य है-

  • मामले में याचिकाकर्त्ता द्वारा पुनर्विचार याचिका पहले दाखिल की जा चुकी हो।
  • उपचारात्मक याचिका में याचिकाकर्त्ता जिन मुद्दों को आधार बना रहा हो उन पर पूर्व में दायर पुनर्विचार याचिका में विस्तृत विमर्श न हुआ हो।
  • सर्वोच्च न्यायालय में उपचारात्मक याचिका पर सुनवाई तभी होती है जब याचिकाकर्त्ता यह प्रमाणित कर सके कि उसके मामले में न्यायालय के फैसले से न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है साथ ही अदालत द्वारा आदेश जारी करते समय उसे नहीं सुना गया है।
  • इसके अलावा उस स्थिति में भी यह याचिका स्वीकार की जाएगी जहाँ एक न्यायाधीश तथ्यों को प्रकट करने में विफल रहा हो जो पूर्वाग्रहों की आशंका को बढ़ाता है।

उपचारात्मक याचिका की अवधारणा:

  • उपचारात्मक याचिका की अवधारणा वर्ष 2002 में रूपा अशोक हुरा बनाम अशोक हुरा और अन्य के मामले की सुनवाई के दौरान हुई।
  • मामले की सुनवाई के दौरान यह प्रश्न उठा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी ठहराए गए किसी व्यक्ति की पुनर्विचार याचिका ख़ारिज होने के बाद क्या दोषी के पास सज़ा में राहत के लिये कोई न्यायिक विकल्प बचता है?
  • तब सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने ही दिये गए निर्णय को बदलने के लिये उपचारात्मक याचिका की अवधारणा प्रस्तुत की गई।
  • इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की पीठ द्वारा उपचारात्मक याचिका की रूपरेखा निर्धारित की गई।
  • इसके बाद उपचारात्मक याचिका के तहत अपने ही निर्णयों पर पुनर्विचार करने के लिये तैयार हो गई।

उपचारात्मक याचिका के अन्य उदाहरण:

  • आमतौर पर/ सामान्यतः राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज़ करने के बाद कोई भी मामला समाप्त हो जाता है परन्तु वर्ष 1993 के मुंबई ब्लास्ट मामले में दोषी याकूब अब्दुल रज्ज़ाक मेमन का मामला इस संदर्भ में एक अपवाद है।
  • याकूब अब्दुल रज्ज़ाक मेमन के मामले में राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज़ करने के बाद भी उच्चतम न्यायालय ने जुलाई 2015 में इस मामले में उपचारात्मक याचिका पर सुनवाई की माँग को स्वीकार किया था।

आपराधिक मामलों में न्याय की प्रक्रिया एवं न्यायालय के निर्णयों से किसी भी व्यक्ति के जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, विशेषकर व्यक्ति के जीवन के अधिकार और उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर। ऐसे में न्यायिक पारदर्शिता को सुनिश्चित करने और निचली अदालतों के निर्णयों की जाँच करने के लिये हमारी दंड प्रक्रिया में कुछ विशेष प्रावधान हैं।

ये प्रावधान आपराधिक न्यायालयों के निर्णयों या आदेशों के खिलाफ अपील के रूप में हैं, जिसके तहत सर्वोच्च न्यायलय में याचिका दायर की जा सकती है, इसमें जनहित याचिका से लेकर संवैधानिक मामलों से जुड़े मुद्दे भी शामिल हैं। जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

    • संवैधानिक मामलों में: संविधान के अनुच्छेद 132 के तहत भारत के किसी भी उच्च न्यायालय के निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
    • आपराधिक मामलों में : संविधान के अनुच्छेद 134 के तहत उच्च न्यायालय से सुनवाई के बाद दोषी करार व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है तथा यदि उच्च न्यायालय द्वारा किसी दोषमुक्त व्यक्ति को दोषी घोषित किया गया हो और उसे मृत्युदंड अथवा आजीवन कारावास या 10 वर्ष कारावास की सज़ा दी गई हो।
  • 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में निर्भया से रेप की घटना घटित हुई थी।
  • 29 दिसंबर 2012: पीड़िता की सिंगापुर में इलाज के दौरान मौत हो गई।
  • मार्च 2013: इस मामले के एक आरोपी राम सिंह ने जेल में आत्महत्या कर ली।
  • सितंबर 2013: इस मामले पर सुनवाई करते हुए विशेष फास्ट ट्रैक कोर्ट ने चारों आरोपियों को दोषी ठहराया और उन्हें को मौत की सज़ा सुनाई, जबकि एक अन्य नाबालिक आरोपी को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने तीन वर्ष के लिये सुधार-गृह में भेज दिया।
  • मार्च 2014: दिल्ली उच्च न्यायालय ने चारों आरोपियों की सज़ा को बनाए रखा।
  • मई 2017: उच्चतम न्यायालय ने चारों आरोपियों की सज़ा को बनाए रखा।
  • नवंबर 2017: मामले के एक आरोपी मुकेश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर पुनर्विचार याचिका न्यायालय द्वारा खारिज़ कर दी गई।
  • 9 जुलाई, 2018: बाकी तीन दोषियों की और से सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल पुनर्विचार याचिका को ख़ारिज करते हुए न्यायालय ने मृत्युदंड की सज़ा को बरक़रार रखा।
  • 7 जनवरी, 2020: दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने चारों दोषियों को डेथ वारंट जारी करते हुए 22 जनवरी, 2020 को मृत्युदंड की तारीख के रूप में निर्धारित किया।
  • 9 जनवरी, 2020 को मामले के दो दोषियों ने सर्वोच्च न्यायालय में उपचारात्मक याचिका दाखिल की, जिसपर 14 जनवरी, 2020 को सुनवाई करते हुए न्यायालय ने याचिका को खारिज़ कर मृत्युदंड की सज़ा को बनाए रखा।

अभ्यास प्रश्न: उपचारात्मक याचिका नैसर्गिक न्याय को प्राप्त करने में वृद्धि करती है। कथन की समीक्षा करें।

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