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द बिग पिक्चर : न्यायपालिका के विरुद्ध षड्यंत्र

  • 30 Apr 2019
  • 13 min read

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न से संबंधित मामले में साजिश के आरोपों की जाँच के लिये शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश ए.के. पटनायक को जाँच का जिम्मा सौंपा है। पटनायक एडवोकेट उत्सव सिंह बैंस के उस आरोप की जाँच करेंगे जिसमें कहा गया था कि मुख्य न्यायाधीश को फँसाने की कोशिश की जा रही है।

  • तीन जजों की बेंच जिसमें अरुण मिश्रा, रोहिंटन नरिमन और दीपक गुप्ता हैं, को ये भी निर्देश दिये गए हैं कि केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) और आईबी के निदेशकों व दिल्ली पुलिस आयुक्त ज़रूरत पड़ने पर न्यायमूर्ति पटनायक का सहयोग करें।
  • अदालत ने कहा कि जाँच पूरी होने के बाद जस्टिस पटनायक एक सीलबंद लिफाफे में जाँच रिपोर्ट दाखिल करेंगे।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि पटनायक केवल न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मामले का संज्ञान लेंगे। मुख्य न्यायाधीश पर लगे यौन उत्पीड़न मामले से उनका कोई संबंध नहीं होगा।

क्या है मामला?

  • सुप्रीम कोर्ट ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों की जाँच करने का संकल्प लिया है।
  • कोर्ट का मानना है कि ऐसे आरोप असंतुष्ट कर्मचारियों, कॉरपोरेट हस्तियों और फिक्सर गिरोह द्वारा रची गई एक बड़ी साजिश का हिस्सा हैं।
  • न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली विशेष पीठ में एक युवा वकील, उत्सव सिंह बैंस द्वारा एक सीलबंद लिफाफे में हलफनामा दाखिल कर दावा किया गया था कि मुख्य न्यायाधीश को एक झूठे मामले में फ़ँसाने के लिये उन्हें डेढ़ करोड़ रुपए देने की पेशकश की गई थी।
  • बैंस ने महत्त्वपूर्ण सबूत के साथ दावा किया है कि एक लॉबी मुख्य न्यायाधीश और न्यायपालिका को बदनाम करने के काम में सक्रिय है।
  • गौरतलब है कि 19 अप्रैल, 2019 को नौकरी से बर्खास्त महिला ने सुप्रीम कोर्ट के 22 न्यायाधीशों को पत्र लिखा था, जिसमें अक्तूबर 2018 में CJI द्वारा यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था।

न्यायालय का अपमान

  • अवमानना ​ कानून के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति या मीडिया हाउस न्यायाधीशों या न्याय प्रणाली के खिलाफ आरोप लगाता है जिससे कि न्यायपालिका विवाद में घिर जाती है तो न्यायपालिका के इस अपमान के लिये दंडित किया जा सकता है।
  • मीडिया द्वारा इस तरह की अवमानना को रचनात्मक अवमानना की संज्ञा दी जाती है। यह भारत के न्यायालय की अवमानना अधिनियम, [(Contempt of Court Act, 1971 की धारा 2 (C) (iii))] के तहत आपराधिक अवमानना ​​की परिभाषा में शामिल है।
  • जबकि न्यायाधीशों को अभिप्रेरित आरोपों के खिलाफ संरक्षण की आवश्यकता होती है, क्योंकि सम्यक प्रक्रिया की मांग यह है कि किसी मामले की जाँच त्वरित, पूर्ण, उचित तथा निष्पक्ष होनी चाहिये।
  • देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था में इस तरह का असाधारण घटनाक्रम न्यायिक जवाबदेही को लेकर कुछ बड़े सवालों पर पुनर्विचार करने का अवसर प्रदान करता है।

‘अच्छे व्यवहार’ का प्रश्न

  • भारत का संविधान जजों को जनता की इच्छा, संसद और शक्तिशाली कार्यपालिका से रक्षा प्रदान करता है।
  • महाभियोग एक राजनीतिक प्रक्रिया है जिसमें सांसद पार्टी-लाइन के साथ मतदान करते हैं।
  • 1993 में जस्टिस वी. रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही कॉन्ग्रेस द्वारा महाभियोग के खिलाफ मतदान करने के कारण विफल रही।
  • पिछले साल राज्यसभा के सभापति ने सीजेआई दीपक मिश्रा पर महाभियोग चलाने के लिये विपक्ष के कदम को अस्वीकार कर दिया था।
  • संविधान 'दुर्व्यवहार' और 'अक्षमता' को परिभाषित नहीं करता है।
  • न्यायाधीश (जाँच) विधेयक, [(Judges (Enquiry) Bill)], 2006, जिसमें उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की अक्षमता या दुर्व्यवहार के आरोपों की जाँच के लिये एक राष्ट्रीय न्यायिक परिषद की स्थापना करने की बात की गई थी, में ‘दुर्व्यवहार’ को परिभाषित किया गया है।
  • इसके अनुसार जान बूझकर किया गया ऐसा व्यवहार जो न्यायपालिका को अपमानित या बदनाम करे, या एक न्यायाधीश के कर्त्तव्यों को पूरा करने में विफलता, या न्यायिक पद का दुरुपयोग, भ्रष्टाचार, सत्यनिष्ठा में कमी या नैतिक मर्यादा से जुड़े अपराध ‘दुर्व्यवहार’ (Misbehaviour) की श्रेणी में आते हैं।
  • सी. रविचंद्रन अय्यर बनाम न्यायमूर्ति ए.एम. भट्टाचार्जी व अन्य (1995) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘दुर्व्यवहार’ की एक स्थिर परिभाषा नहीं हो सकती है। लेकिन अगर किसी न्यायाधीश के आचरण से न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग रहा हो तो इसे दुर्व्यवहार माना जाना चाहिये।

न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक, 2010

  • इस विधेयक में अधिकतम न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायाधीशों की जवाबदेही बढ़ाने का प्रावधान है।
  • इसमें किसी न्यायाधीश के दुराचार के बारे में शिकायतों की जाँच के लिये एक विश्वसनीय तंत्र बनाने तथा जाँच की प्रक्रिया के नियमन का भी प्रावधान किया गया है।
  • इसमें सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की शक्ति संसद के पास ही रखने का प्रावधान शामिल है।
  • इसमें उच्‍चतम न्‍यायालय या उच्‍च न्‍यायालय के न्‍यायाधीश के कदाचार या असमर्थता की शिकायतों का अन्‍वेषण करने के लिये विद्यमान प्रणाली को परिवर्तित करने और साथ-ही-साथ अधिक जवाबदेही निर्धारित करने का प्रस्‍ताव है। 
  • विधेयक शिकायतों पर गौर करने तथा शास्तियों के लिये जो कि जाँच के पूरा होने पर अधिरोपित की जा सकती हैं, व्‍यापक प्रणाली का उपबंध करने के अतिरिक्त न्‍यायिक मानकों को अधिकथित करता है और पदस्‍थ न्‍यायाधीशों के लिये भी अधिकथित करता है कि वे अपनी आस्तियों/दायित्‍वों को घोषित करें।

सीजेआई के खिलाफ आपराधिक मामले की शिकायत करने की क्या है प्रक्रिया?

  • के. रामास्वामी (1991) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि न्यायाधीश का पद संवैधानिक होता है, अतः उन्हें आपराधिक मामलों के अंतर्गत नहीं हटाया जा सकता।
  • किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध आपराधिक मामला दर्ज करने से पूर्व भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति लेनी आवश्यक है।
  • CJI के विरुद्ध मामले के लिये सरकार को उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों से सलाह लेनी आवश्यक है, तत्पश्चात् अग्रिम कार्यवाही के संबंध में निर्णय लिया जाएगा।
  • CJI या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के विरुद्ध आपराधिक दुर्व्यवहार की शिकायत के लिये आतंरिक तंत्र (In-house-mechanism) की व्यवस्था है।
  • इसके अंतर्गत मामले की जाँच के लिये जजों की एक कमेटी गठित की जाती है तथा जाँच से संबंधित रिपोर्ट मुख्य न्यायाधीश को सौंपी जाती है।
  • तत्पश्चात् मुख्य न्यायाधीश द्वारा अन्य न्यायाधीशों के साथ विचार-विमर्श के बाद अग्रिम कार्यवाही का निर्णय लिया जाता है।
  • न्यायाधीश के खिलाफ आरोप सिद्ध होने पर संविधान में केवल महाभियोग का प्रावधान है, सज़ा का कोई प्रावधान नहीं है।

न्यायिक जवाबदेही और कानून का शासन

  • न्यायिक प्रदर्शन को जाँच से परे रखना अदूरदर्शी होगा, क्योंकि जवाबदेही के बिना स्वतंत्रता मूर्खतापूर्ण स्वतंत्रता है।
  • ज़िम्मेदारी के बिना शक्ति संवैधानिकता के विरुद्ध है। न्यायाधीशों सहित लोक सेवकों की जवाबदेही एक परिपक्व लोकतंत्र का सार है।
  • न्यायिक जवाबदेही कम-से-कम तीन पृथक मूल्यों को बढ़ावा देती है, कानून का शासन, न्यायपालिका में जनता का विश्वास और संस्थागत ज़िम्मेदारी।
  • न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक जवाबदेही उद्देश्यपूर्ण उपकरण हैं जिन्हें संवैधानिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये डिज़ाइन किया गया है।
  • यद्यपि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है, लेकिन यह अपने आप में एक अनंत नहीं है।
  • कानून का शासन न्यायिक जवाबदेही की मांग करता है। जवाबदेही शक्ति के प्रदर्शन को अधिक कुशल और प्रभावी बनाती है।

निष्कर्ष

भारत की न्यायपालिका पर संकट उसकी साख और विश्वसनीयता को लेकर उत्पन्न हुआ है। मामला अधिक चिंताजनक इसलिये है कि देश के आम नागरिक से लेकर अमीर-गरीब और सत्ता प्रतिष्ठान सबके लिये न्याय की आखिरी उम्मीद उच्चतम न्यायालय से ही होती है। यहाँ से मिला विधि-सम्मत न्याय अंतिम माना जाता है, साथ ही वह संदेह से परे भी होता है। यदि न्याय की इस सर्वोच्च संस्था के बारे में ऐसी बातें आमजन के भीतर उत्पन्न होती हैं तो इसकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह पैदा होता है। न्याय करने वाले न्यायाधीशों पर यदि गंभीर आरोप लगने लगें तो लोकतंत्र के इस महत्त्वपूर्ण स्तंभ के लिये इससे ज़्यादा बुरा कुछ नहीं हो सकता। आरोप सही हैं या झूठ, इसकी पड़ताल होनी चाहिये। इसकी भी जाँच होनी चाहिये कि क्या न्यायपालिका को अस्थिर करने के लिये कोई षड्यंत्र किया जा रहा है?

प्रश्न : क्या न्यायपालिका को अस्थिर करने वाले तत्त्व सक्रिय हो रहे हैं? मुख्य न्यायाधीश सहित सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायत के आतंरिक तंत्र की विवेचना कीजिये।

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