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राज्यसभा

द बिग पिक्चर: नागरिकता संशोधन विधेयक-2016

  • 15 May 2018
  • 20 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
19 जुलाई, 2016 को लोकसभा में पेश किये गए नागरिकता संशोधन विधेयक-2016 के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से विचार करने और उस पर रिपोर्ट पेश करने के लिये इसे संसद की संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया था ताकि इस पर विभिन्न पक्षों, संस्थाओं एवं लोगों के सुझाव लिये जा सकें। 

  • हाल ही में 7 मई को नागरिकता (संशोधन) विधेयक-2016 पर संयुक्त संसदीय समिति की बैठक जब गुवाहाटी में हुई तो ब्रह्मपुत्र घाटी में इसका खुलकर विरोध किया गया। 
  • उत्तर-पूर्व के लगभग सभी राज्यों, विशेषकर असम में विभिन्न संगठन विदेशी हिंदुओं को भारतीय नागरिकता दिये जाने का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह असम के स्थानीय लोगों के लिये खतरा होगा। 
  • इस मुद्दे पर राज्य अस्मिता के नाम पर असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल का कहना है कि यदि वह राज्य के लोगों के हितों की रक्षा नहीं कर पाए तो उनका इस पद पर बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। 

दरअसल, जुलाई 2005 में सर्बानंद सोनोवाल की ओर से दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध प्रवासी (ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारित) अधिनियम-1983 को रद्द कर दिया था। अब केंद्र सरकार के प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) विधेयक-2016 से उनकी इस छवि की विश्वसनीयता पर सवाल उठ सकता है। कुछ ऐसा ही मेघालय में भी देखने को मिला, जहाँ मुख्यमंत्री कोनार्ड के. संगमा की सरकार ने नागरिकता (संशोधन) विधेयक का सर्वसम्मति से विरोध करने का निर्णय लिया।

मुद्दा क्या है असम में?

  • असम में बांग्लादेशी शरणार्थियों का मुद्दा राज्य की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक रहा है।
  • 1971 में बांग्लादेश के अलग देश बनने से पहले और उसके बाद भारी संख्या में लोग असम में आकर बसने लगे थे। 
  • इससे यहाँ की जनसांख्यिकी में भारी परिवर्तन हुए और स्थानीय विरोधी गुटों के उग्र प्रतिरोध के बाद असम समझौता अमल में आया। 
  • इसमें तय किया गया कि 24 मार्च, 1971 से पहले असम आए लोग ही भारतीय नागरिकता के हकदार होंगे।
  • इसके बाद 1986 में नागरिकता अधिनियम में संशोधन किया गया। 
  • 1947 से 1971 तक जो भी विदेशी असम आए थे उन्हें भारत की नागरिकता मिल चुकी है। 

हो रहा है विरोध 

  • इस प्रस्तावित संशोधन का विरोध भी हो रहा है क्योंकि यह पहली बार है जब देश में स्पष्ट तौर से धार्मिक आधार पर नागरिकता दिये जाने की बात कही जा रही है। 
  • इस संशोधन को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ माना जा रहा है, जो समानता के अधिकार की बात करता है।
  • साथ ही इस संशोधन को अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी नियमों के भी विरुद्ध माना जा रहा है।
  • ‘भारत के विदेशी नागरिकों’ (ओसीआई) के पंजीकरण को रद्द करने संबंधी जो बदलाव इस विधेयक में किये जाने हैं, उन पर भी विवाद है। 
  • इस संशोधन विधेयक के विरोधियों का मानना है कि इससे अवैध प्रवास की समस्या को बढ़ावा मिलेगा।

इस मुद्दे पर क्या कहता है नागरिकता अधिनियम-1955?
नागरिकता अधिनियम-1955 कहता है कि किसी भी ‘अवैध प्रवासी’ को भारतीय नागरिकता नहीं दी जा सकती। इस कानून के तहत ‘अवैध प्रवासी’ की परिभाषा में दो तरह के लोग आते हैं--1. वे विदेशी जो बिना वैध पासपोर्ट या अन्य यात्रा दस्तावेज़ों के भारत आए हैं; 2. वे विदेशी जो वीज़ा अवधि समाप्त होने या अनुमत समय बीतने के बाद भी भारत में रुके हुए हैं।

क्या है इस संशोधन विधेयक-2016 में?

  • नागरिकता अधिनियम-1955 में संशोधन करने वाले इस नागरिकता संशोधन विधेयक-2016 में पड़ोसी देशों (बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान) से आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी तथा ईसाई अल्पसंख्यकों (मुस्लिम शामिल नहीं) को नागरिकता प्रदान करने की बात कही गई है, चाहे उनके पास ज़रूरी दस्तावेज़ हों या नहीं।
  • विधेयक के कारण और उद्देश्यों में कहा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के कई भारतीय मूल के लोगों ने नागरिकता के लिये आवेदन किया है, लेकिन उनके पास भारतीय मूल के होने का प्रमाण उपलब्ध नहीं है। 
  • फिलहाल जो नागरिकता कानून लागू है, उसके तहत नैसर्गिक नागरिकता के लिये अप्रवासी को तभी आवेदन करने की अनुमति है, जब वह आवेदन से ठीक पहले 12 महीने से भारत में रह रहा हो और पिछले 14 वर्षों में से 11 वर्ष भारत में रहा हो। 
  • प्रस्तावित विधेयक के माध्यम से अधिनियम की अनुसूची 3 में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है ताकि वे 11 वर्ष के बजाय 6 वर्ष पूरे होने पर नागरिकता के पात्र हो सकें। इससे वे ‘अवैध प्रवासी’ की परिभाषा से बाहर हो जाएंगे।
  • यह प्रस्तावित संशोधन ‘अवैध प्रवासी’ की इस परिभाषा में बदलाव करते हुए कहता है कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पकिस्तान से आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई लोगों को ‘अवैध प्रवासी’ नहीं माना जाएगा। 
  • यह संशोधन पड़ोसी देशों से आने वाले मुस्लिम लोगों को ही ‘अवैध प्रवासी’ मानता है, जबकि लगभग अन्य सभी लोगों को इस परिभाषा के दायरे से बाहर कर देता है।

इस विधेयक को लेकर ब्रह्मपुत्र घाटी में रहने वाले और बराक घाटी में रहने वाले लोगों के बीच मतभेद हैं। बंगाली प्रभुत्व वाली बराक घाटी में ज़्यादातर लोग इस विधेयक के पक्ष में हैं, जबकि ब्रह्मपुत्र घाटी में लोग इसके विरोध में हैं। 

समस्या के मूल में क्या है?

  • असम में बाहरी बनाम असमिया का मुद्दा काफी पुराना है। औपनिवेशिक काल में बिहार और बंगाल से चाय बागानों में काम करने के लिये बड़ी संख्या में श्रमिक असम आए और अंग्रेज़ों ने उन्हें यहाँ खाली पड़ी ज़मीनों पर खेती करने के लिये प्रोत्साहित किया। 
  • इसके अलावा विभाजन के बाद नए बने पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के साथ-साथ असम में भी बड़ी संख्या में बंगाल वासी  आए और तब से ही वहाँ बाहरी बनाम स्थानीय का मुद्दा बराबर बना रहता है। 
  • आज़ादी के बाद 1951 में एक नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न तैयार किया गया था, जो 1951 की जनगणना के बाद तैयार हुआ था और इसमें तात्कालिक असम के रहने वाले लोगों को शामिल किया गया था। 
  • लेकिन इसके बाद 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के खिलाफ पाकिस्तानी सेना की हिंसक कार्रवाई शुरू हुई तो वहाँ के लगभग 10 लाख लोगों ने असम में शरण ली। बांग्लादेश बनने के बाद इनमें से अधिकांश लौट गए, लेकिन लगभग 1 लाख बांग्लादेशी असम में ही अवैध रूप से रह गए। 
  • 1971 के बाद भी बांग्लादेशी अवैध रूप से असम आते रहे। तब स्थानीय लोगों को लगा कि ये लोग उनके संसाधनों पर कब्ज़ा कर लेंगे और इस तरह जनसंख्या में हो रहे इन बदलावों ने असम के मूल निवासियों में भाषायी, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर दी।

(टीम दृष्टि इनपुट)

शुरू हुआ आंदोलन

  • इसकी प्रतिक्रयास्वरूप 1978 के आस-पास वहाँ एक शक्तिशाली आंदोलन शुरू हुआ, जिसका नेतृत्व वहाँ के युवाओं और छात्रों के संगठनों--आल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) और आल असम गण संग्राम परिषद (AAGSP) के हाथों में था। 
  • इसी समय यह मांग की गई कि विधानसभा चुनाव कराने से पहले विदेशी घुसपैठियों की समस्या का हल निकाला जाए। 
  • बांग्लादेशियों को वापस भेजने के अलावा आंदोलनकारियों ने 1961 के बाद राज्य में आने वाले लोगों को वापस भेजे जाने या उन्हें कई और बसाने की माँग की। आंदोलन उग्र होता गया और राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गई। 
  • 1983 के विधानसभा चुनाव में राज्य की बड़ी आबादी ने मतदान का बहिष्कार किया। 
  • इस बीच 1983 में राज्य में आदिवासी, भाषायी और सांप्रदायिक पहचानों के नाम पर बड़े पैमाने पर हिंसा हुई तथा 1984 के आम चुनावों में राज्य के 14 संसदीय क्षेत्रों में चुनाव ही नहीं हो पाए।

क्या कहता है 1985 का असम समझौता?

  • 1983 की इस भीषण हिंसा के बाद समझौते के लिये बातचीत की प्रक्रिया शुरू हुई तथा 15 अगस्त 1985 को केंद्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच समझौता हुआ जिसे असम समझौते (Assam Accord) के नाम से जाना जाता है।
  • इस समझौते के तहत 1951 से 1961 के बीच असम आए सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का फैसला हुआ। 
  • 1961 से 1971 के बीच आने वाले लोगों को नागरिकता तथा अन्य अधिकार दिये गए, लेकिन उन्हें मतदान का अधिकार नहीं दिया गया।
  • इस समझौते का पैरा 5.8 कहता है: 25 मार्च, 1971 या उसके बाद असम में आने वाले विदेशियों को कानून के अनुसार निष्कासित किया जाएगा। 
  • ऐसे विदेशियों को बाहर निकालने के लिये तात्कालिक एवं व्यावहारिक कदम उठाए जाएंगे।
  • असम के आर्थिक विकास के लिये पैकेज भी दिया गया।
  • यह भी फैसला किया गया कि असमिया भाषी लोगों के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषायी पहचान की सुरक्षा के लिये विशेष कानून और प्रशासनिक उपाय किये जाएंगे।
  • असम समझौते के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन किया गया। 
  • विधानसभा भंग करके 1985 में चुनाव कराए गए जिसमें नवगठित असम गण परिषद् को बहुमत मिला और AASU के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महंत को मुख्यमंत्री बनाया गया।

(टीम दृष्टि इनपुट)

सर्वोच्च न्यायालय में गया मामला 
2005 में 1951 के नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न को अपडेट करने का फैसला किया गया था, लेकिन इस पर कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। असम में मुसलमानों की आबादी 34% से ज्यादा है और इनमें से 85% ऐसे हैं जो बाहर से आकर बसे हैं तथा ऐसे लोग ज़्यादातर बांग्लादेशी हैं, जो अलग-अलग समय में आते रहे। बाद में इस मुद्दे को लेकर मामले विभिन्न अदालतों तक गए और 2015 में सभी मामलों को इकट्ठा कर सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में लाया गया। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर 31 दिसंबर, 2017 की रात असम के लिये नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न का मसौदा जारी किया गया जिसमें दो करोड़ से ज्यादा लोगों के नाम हैं। इस मसौदे को लेकर भी राज्य में असंतोष देखा जा रहा है।

भारतीय नागरिकता से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • भूमि अधिग्रहण, कार्यमुक्ति, संकट, भारतीय नागरिकता की पहचान और अन्य संबंधित मुद्दों के लिये भारतीय नागरिकता अधिनियम-1955 है। 
  • इस अधिनियम के तहत जन्म, पीढ़ी, पंजीकरण, विशेष परिस्थितियों में स्थान का विलय या किसी स्थान में शामिल किये जाने के साथ ही नागरिकता समाप्त होने और संकट के समय में भी भारतीय नागरिकता प्रदान की जाती है। 
  • भारत में एकल नागरिकता का प्रावधान है। 

भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार निम्न में से किसी एक के आधार पर नागरिकता प्राप्त की जा सकती है:

जन्म से: वह प्रत्येक व्यक्ति जिसका जन्म संविधान लागू होने यानी कि 26 जनवरी, 1950 को या उसके पश्चात् भारत में हुआ हो, वह जन्म से भारत का नागरिक होगा। राजनयिकों और विदेशियों की संतान इसका अपवाद हैं। 

वंश-परंपरा द्वारा नागरिकता: भारत के बाहर अन्य देश में 26 जनवरी, 1950 के बाद जन्म लेने वाला व्यक्ति भारत का नागरिक माना जाएगा, यदि उसके जन्म के समय उसके माता-पिता में से कोई भारत का नागरिक हो। 

(नोट: माता की नागरिकता के आधार पर विदेश में जन्म लेने वाले व्यक्ति को नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान नागरिकता संशोधन अधिनियम-1992 द्वारा किया गया है।)

देशीयकरण द्वारा नागरिकता: भारत सरकार से देशीयकरण का प्रमाण-पत्र प्राप्त कर भारत की नागरिकता प्राप्त की जा सकती है।

पंजीकरण द्वारा नागरिकता: निम्नलिखित वर्गों में आने वाले लोग पंजीकरण के द्वारा भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं:

  • वे व्यक्ति जो पंजीकरण प्रार्थना-पत्र देने की तिथि से छह महीने पहले से भारत में रह रहे हों
  • वे भारतीय, जो अविभाज्य भारत से बाहर किसी देश में निवास कर रहे हों 
  • वे स्त्रियाँ, जो भारतीयों से विवाह कर चुकी हैं या भविष्य में विवाह करेंगी
  • भारतीय नागरिकों की अवयस्क संतान 
  • राष्ट्रमंडलीय देशों के नागरिक, जो भारत में रहते हों या भारत सरकार की नौकरी कर रहें हों, आवेदन देकर भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं

भूमि-विस्तार द्वारा: यदि किसी नए भू-भाग को भारत में शामिल किया जाता है, तो उस क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को स्वतः भारत की नागरिकता प्राप्त हो जाती है। 

कब होता है भारतीय नागरिकता का अंत? 
भारतीय नागरिकता का अंत निम्न प्रकार से हो सकता है:

  • नागरिकता का परित्याग करने से 
  • किसी अन्य देश की नागरिकता स्वीकार कर लेने पर
  • सरकार द्वारा नागरिकता छीने जाने पर

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 को लोकसभा में ‘नागरिकता अधिनियम’ 1955 में बदलाव के लिये लाया गया है। हमारे संविधान ने संसद को यह अधिकार दिया है कि वह भारतीय नागरिकता से संबंधित सभी प्रकार के मामलों में समुचित व्यवस्था करे। जब नागरिकता की बात आती है तो इससे हर नागरिक की संवेदनाएँ जुड़ जाती हैं। भारत ने हमेशा से ही हर वर्ग और स्थान से आने वाले लोगों को अंगीकार किया है और इस विधेयक में उसी दिशा में पहल की गई है। 1971 के बाद से अनुमानतः 20 लाख बंगाली हिंदू अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं। इसके अलावा बांग्लादेश से घुसपैठ एवं असम की समस्या को देखते हुए यह विषय बेहद संवेदनशील हो गया है तथा इस पर आगे बढ़ने से पहले इसके हर अच्छे-बुरे पहलू की व्यापक पड़ताल की जानी चाहिये। 

इस विधेयक में बांग्लादेश से आने वाले समस्त हिंदुओं को नागरिकता प्रदान करने की बात कही गई है, वहीं यह भी कहा है कि बंगाली मुस्लिम आप्रवासियों को 'अवैध घुसपैठिये' करार देकर बांग्लादेश वापस भेजा जाएगा। ऐसा करना भौतिक रूप में संभव होगा भी या नहीं, यह अलग बात है। प्रश्न यह भी है कि क्या बंगलादेश इन्हें स्वीकार करने को तैयार हो जाएगा, क्योंकि वह बार-बार यही कहता है कि उसका एक भी नागरिक असम में नहीं रह रहा है। 

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