राज्यसभा
विशेष: जजों की नियुक्ति कौन करे...न्यायपालिका या कार्यपालिका?
- 04 May 2018
- 21 min read
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने दो नाम सर्वोच्च न्यायालय में बतौर जज नियुक्ति के लिये सरकार को भेजे थे। सरकार ने उनमें से इंदु मल्होत्रा का नाम तो स्वीकार कर लिया, लेकिन जस्टिस के.एम. जोसेफ का नाम पुनर्विचार के लिये कॉलेजियम को वापस भेज दिया। इस प्रकरण के बाद जजों की नियुक्ति से जुड़ी कॉलेजियम व्यवस्था फिर विवादों के घेरे में है। विवाद में एक तरफ सरकार है, जो कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर बिलकुल भी सहज नहीं है...और दूसरी तरफ है सर्वोच्च न्यायालय, जो हर हाल में कॉलेजियम व्यवस्था को बरकरार रखना चाहता है।
संविधान का संरक्षक है सर्वोच्च न्यायालय
क्या कहता है अनुच्छेद 124?
चूंकि संविधान में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति को लेकर अलग से कोई प्रावधान नहीं किया गया है, इसीलिये दो अपवादों (1973 में जस्टिस ए.एन. रे और 1977 में जस्टिस एम.यू. बेग को वरिष्ठता क्रम को नज़रअंदाज़ कर मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था) को छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को इस पद पर नियुक्त किये जाने की परंपरा अब तक चली आ रही है। (टीम दृष्टि इनपुट) |
वर्तमान में क्या है विवाद का मुद्दा?
उल्लेखनीय है कि जस्टिस के.एम. जोसेफ और इंदु मल्होत्रा के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम की फाइल 22 जनवरी को कानून मंत्रालय को मिली थी, जिस पर सरकार ने तत्काल कोई निर्णय नहीं लिया था। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर केंद्र सरकार से इनकी नियुक्ति को मंजूरी देने का आग्रह किया था।
केंद्र सरकार ने जस्टिस के.एम. जोसेफ की पदोन्नति रोके रखने का फैसला किया है, जो उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम को तय करना है कि सरकार को क्या जवाब दिया जाए। अभी जो व्यवस्था चल रही है उसके तहत केंद्र सरकार कॉलेजियम की सिफारिश को वापस भेज सकती है, क्योंकि ऐसा करना उसके अधिकार क्षेत्र में है। लेकिन यदि कॉलेजियम दोबारा इसी सिफारिश को सरकार के पास भेजता है तो सरकार उसे मानने के लिये बाध्य होगी।
क्या आपत्ति जताई है सरकार ने?
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने देश के मुख्य न्यायाधीश और कॉलेजियम के प्रमुख दीपक मिश्रा को पत्र लिखकर निम्नलिखित तीन कारण बताए कि क्यों जस्टिस के.एम. जोसेफ़ को सर्वोच्च न्यायालय में जज नहीं बनाया जाना चाहिये...
- जस्टिस के.एम. जोसेफ का नाम प्रांतीय-जातीय प्रतिनिधित्व और वरीयता के सिद्धांत के प्रतिकूल बताते हुए यह कहते हुए वापस कर दिया गया कि केरल से दो जज पहले ही सर्वोच्च न्यायालय में हैं।
- जस्टिस के.एम. जोसेफ वरीयता क्रम में देश में 42वें नंबर पर हैं, जो काफी नीचे है। देश में विभिन्न उच्च न्यायालयों के 11 जज उनसे सीनियर हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय में अनुसूचित जाति या जनजाति का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।
इसके अलावा सरकार ने यह भी कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में कोलकाता, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, उत्तराखंड, झारखण्ड, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, मणिपुर और मेघालय उच्च न्यायालय का प्रतिनिधित्व नहीं है।
ऐसे में यह प्रश्न एक बार फिर उठ खड़ा हुआ है कि जजों की नियुक्ति कौन करे?...और कैसे?
कॉलेजियम क्या है?
- देश में सर्वोच्च न्यायालय तथा सभी हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति तथा तबादलों का फैसला कॉलेजियम करता है।
- हाईकोर्ट के कौन से जज पदोन्नत होकर सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे यह फैसला भी कॉलेजियम ही करता है।
- 1990 में सर्वोच्च न्यायालय के दो फैसलों के बाद 1993 में यह व्यवस्था बनाई गई थी।
- उल्लेखनीय है कि कॉलेजियम व्यवस्था का उल्लेख न तो मूल संविधान में है और न ही उसके द्वारा संशोधित किसी प्रावधान में।
वर्तमान में कॉलेजियम व्यवस्था के अध्यक्ष मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा हैं और जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. लोकूर और जस्टिस कुरियन जोसेफ इसके सदस्य हैं।
- कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर विवाद इसलिये है क्योंकि यह व्यवस्था नियुक्ति का सूत्रधार और नियुक्तिकर्त्ता दोनों स्वयं ही है। इस व्यवस्था में कार्यपालिका की भूमिका बिल्कुल नहीं है या है भी तो केवल नाममात्र की।
लंबे समय से चला आ रहा है टकराव
- जस्टिस के.एम. जोसेफ का नाम कॉलेजियम को वापस लौटाने के बाद एक बार फिर कार्यपालिका यानी सरकार और न्यायपालिका के बीच लंबे समय से चली आ रही खींचतान सतह पर आ गई है।
सरकार के तर्क
- सरकार की तरफ से प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि निष्पक्ष न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये न्यायपालिका सरकार पर विश्वास नहीं करती है।
- शासन का काम उनके पास रहना चाहिये, जो शासन करने के लिये निर्वाचित किये गए हों।
- न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का हवाला देते हुए सरकार कहती है कि शक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत न्यायपालिका के लिये भी उतना ही बाध्यकारी है, जितना कार्यपालिका के लिये।
संसदीय समिति कर चुकी है सरकार का समर्थन (टीम दृष्टि इनपुट) |
न्यायपालिका के तर्क
- इस मुद्दे पर न्यायपालिका तर्क देती है कि कोई भी शाखा (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) सर्वोच्चता का दावा नहीं कर सकती।
- सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक संप्रभुता में विश्वास करता है और उसका पालन भी करता है।
- स्वतंत्र न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ संतुलन स्थापित करने के लिये संविधान के अंतिम संरक्षक की शक्ति दी गई है, ताकि इस बात को सुनिश्चित किया जा सके कि संबंधित सरकारें कानून के प्रावधान के अनुसार अपने दायरे के भीतर काम करें।
- सर्वोच्च न्यायालय किसी भी तरह की नीति लाने के पक्ष में नहीं है, लेकिन जिस क्षण नीति बन गई, तो इसकी व्याख्या करने और इसे लागू किया जाए या नहीं, यह देखने का अधिकार अवश्य है।
- संविधान ने न्यायपालिका को जो अधिकार सौंपे हैं, वह उसी का पालन कर रही है। न्यायपालिका तभी हस्तक्षेप करती है, जब कार्यपालिका अपने संवैधानिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहती है।
- संविधान के तहत न्यायपालिका की एक भूमिका है और वे कार्यपालिका से निश्चित तौर पर सवाल पूछ सकती है।
कौन सर्वोच्च?...सरकार या...?
वर्ष 1973 में चर्चित केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 जजों की संविधान पीठ अपने फैसले में यह स्पष्ट कर चुकी है कि भारत में संसद नहीं, बल्कि संविधान सर्वोच्च है। अपने इस ऐतिहासिक फैसले में अदालत ने टकराव की किसी भी स्थिति को खत्म करने के लिये संविधान के मौलिक स्वरूप का सिद्धांत भी पारित किया था, जिसके अनुसार संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती, जो संविधान की मूल संरचना के प्रतिकूल हो। इसके साथ ही न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार के तहत संसद द्वारा किये गए किसी संशोधन से संविधान की मूल संरचना प्रभावित होने की जाँच करने के लिये भी न्यायपालिका स्वतंत्र है।
मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीज़र
(टीम दृष्टि इनपुट) |
121वाँ संविधान संशोधन (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग)
गौरतलब है कि वर्ष 2014 में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों और स्थानान्तरण के लिये 121वाँ संविधान संशोधन कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम बनाया था।
- वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया था कि ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ अपने वर्तमान स्वरूप में न्यायपालिका के कामकाज में सीधा हस्तक्षेप है।
- उल्लेखनीय है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाले इस आयोग की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश को करनी थी। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केन्द्रीय विधि मंत्री और दो जानी-मानी हस्तियाँ भी इस आयोग का हिस्सा थीं।
- आयोग में जानी-मानी दो हस्तियों का चयन तीन सदस्यीय समिति को करना था, जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल थे।आयोग के संबंध में एक दिलचस्प बात यह थी कि अगर आयोग के दो सदस्य किसी नियुक्ति पर सहमत नहीं हुए
- तो आयोग उस व्यक्ति की नियुक्ति की सिफ़ारिश नहीं करेगा।
निष्कर्ष: कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मतभेदों का सार्वजनिक होना लोकतंत्र के लिये नुकसानदायक है। संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका और न्यायपालिका के अपने-अपने अधिकार हैं। संविधान के तहत दोनों की सुपरिभाषित भूमिकाएँ हैं और अदालतों की भूमिका अंततः विधि का शासन सुनिश्चित कराने की है। न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों अपना-अपना काम करती हैं। विधायिका कानून बनाती है और इसे लागू करना कार्यपालिका का और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने की जाँच करना न्यायपालिका का काम है।
न्यायपालिका देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक है और लोगों के मन में इसकी स्वतंत्रता तथा निष्पक्ष न्याय के प्रति इसकी प्रतिबद्धता पर अटूट विश्वास है। हाल ही में जजों की नियुक्ति को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच व्यवधान सामने आया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शक्ति पृथक्करण जैसा बुनियादी सिद्धांत विवाद का विषय बना हुआ है, जबकि इस गंभीर मुद्दे पर सार्वजनिक बहस से बचा जाना चाहिये। कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच यह टकराव लोकतंत्र के हित में नहीं है, क्योंकि इससे पहले से ही उलझी परिस्थितियों के और उलझने का अंदेशा रहता है।