विविध
भारत की अफगान नीति
- 15 Oct 2019
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान के मुद्दे पर 8 सितंबर, 2019 को तालिबान नेताओं और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथ प्रस्तावित बैठकों को रद्द कर दिया था। इसके तात्कालिक कारण के रूप में उन्होंने काबुल में तालिबान के हमले का उल्लेख किया था जिसमें एक अमेरिकी सैनिक सहित 12 लोग मारे गए थे।
पृष्ठभूमि
- वर्ष 2001 से ही अफगानिस्तान युद्ध की चपेट में है जब अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन ने तालिबान को सत्ता से उखाड़ फेंका था।
- अक्तूबर 2018 से तालिबान के प्रतिनिधि और अमेरिकी अधिकारी एक शांति संधि की तलाश में कतर की राजधानी दोहा में वार्त्ताएँ आयोजित करते रहे हैं।
- समझौता वार्ता तीन तत्त्वों पर केंद्रित रही:
- अफगानिस्तान से विदेशी सैन्यबलों की वापसी।
- अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी समूहों द्वारा अफगानिस्तान का आधार के रूप में इस्तेमाल करने पर रोक।
- तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच स्थायी युद्धविराम।
- अफगानिस्तान और अन्य देशों के कई सुरक्षा विश्लेषक अमेरिका-तालिबान की इन वार्त्ताओं की आलोचना कर रहे थे क्योंकि इन वार्त्ताओं से अफगानिस्तान सरकार को बाहर रखा गया था। कई लोगों का मानना था कि ये वार्त्ताएँ तालिबान को वैधता प्रदान कर रही हैं।
- अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि भारत, ईरान, रूस और तुर्की जैसे देशों को कभी-न-कभी अफगानिस्तान में आतंकवादियों के विरुद्ध युद्ध करना होगा, उनका आशय यह था कि आतंकवाद के विरुद्ध अभी तक अकेला अमेरिका ही लड़ता रहा है।
- ट्रंप ने यह संकेत भी दिया कि अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से पूर्णरूपेण बाहर नहीं निकलेगी और अमेरिका वहाँ अपनी उपस्थिति बनाए रखेगा ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि तालिबान पुनः अपना नियंत्रण स्थापित न कर ले।
- ट्रंप ने यह भी कहा कि अमेरिका 7,000 मील दूर होने के बावजूद अफगानिस्तान में आतंकवादियों से संघर्ष कर रहा है, जबकि भारत और पाकिस्तान पड़ोस में होने के बाद भी ऐसा नहीं कर रहे हैं।
भारत का दृष्टिकोण
- भारत का हमेशा यह दृष्टिकोण रहा है कि वह तालिबान से किसी प्रत्यक्ष वार्त्ता में संलग्न नहीं होगा।
- हालाँकि वर्ष 2018 में भारत ने मास्को में तालिबान के साथ आयोजित वार्त्ता में शामिल होने के लिये गैर-आधिकारिक स्तर पर अपने दो सेवानिवृत्त राजनयिकों को भेजा था।
- कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि भारत का तालिबान के साथ खुला संपर्क होना चाहिये क्योंकि तालिबान भी अफगानिस्तान की राजनीतिक प्रक्रिया का एक अंग है।
- साथ ही तालिबान ने कभी भी भारत की आलोचना नहीं की है। अगर वह सत्ता में आता हैं, तो भी वह चाहेगा कि भारत अफगानिस्तान में विकास कार्य जारी रखे। वह अफगानिस्तान के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी का भी समर्थन करता हैं।
- भारत एक निकट मित्र राष्ट्र के रूप में पुनर्निर्माण एवं पुनर्वास प्रक्रिया में अफगान राज्य की मदद कर रहा है। इससे बड़ी संख्या में अफगानी युवा आतंकवाद के रास्ते से विमुख हुए हैं।
- भारत ने अफगानिस्तान में 3 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया है।
- भारत उस ‘अफगान- नेतृत्व, नियंत्रण, स्वामित्व’ वाली प्रक्रिया का समर्थन करता है जिसमें सभी हितधारकों की भूमिका हो।
- यह अफगानिस्तान में वैध रूप से निर्वाचित सरकार पर बल देता है।
- अफगानिस्तान भारत को एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में देखता है जो पाकिस्तान पर नियंत्रण रख सकता है।
क्या भारत को अफगानिस्तान में सक्रिय सैन्य हस्तक्षेप करना चाहिये?
यदि भारत सक्रिय सैन्य हस्तक्षेप नहीं करता तो वे आतंकवादी कश्मीर घाटी के रास्ते से राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिये यह अधिक विवेकपूर्ण होगा कि उन आतंकियों से अपने क्षेत्र में संघर्ष करने के बजाय भारत पहले ही उन्हें अफगानिस्तान में चुनौती दे।
- हालाँकि ऐसा सक्रिय सैन्य हस्तक्षेप संवहनीय नहीं है। यह एक लगातार बढ़ती हुई सैन्य प्रतिबद्धता की ओर लेकर जाएगा।
- संसाधन विकल्पों की सीमितता और नकारात्मक छवि निर्माण ऐसे सैन्य कदम के मार्ग की कुछ अन्य प्रमुख चुनौतियाँ हैं। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि अमेरिका के ऐसे सैन्य हस्तक्षेप से वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हुए।
भारत क्या कर सकता है?
- यदि भारत सैन्य रूप से अफगानों की मदद करना चाहता है तो वह उन्हें हथियार और तोपें प्रदान कर सकता है।
- भारत के पास यह विकल्प भी है कि अफगान सेना को प्रशिक्षित करके अफगानिस्तान में एक कमांडो ब्रिगेड तैयार करे।
- वुहान प्रक्रिया (Wuhan Process) के बाद प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी ज़िनपिंग के बीच अफगानिस्तान में ‘चाइना-इंडिया प्लस मॉडल’ (China-India plus one model) पर सहमति बनी थी। इसके तहत दोनों देशों ने अफगान राजनयिकों को प्रशिक्षण देना शुरू किया है। इसी तर्ज़ पर दोनों देश अफगानिस्तान में सुरक्षा सहयोग के लिये भी एक साथ आगे आ सकते हैं।
- यदि भारत को आमंत्रित किया जाता है तो उसे शांति विमर्श में भागीदारी से कोई संकोच नहीं करना चाहिये।
अन्य देशों का दृष्टिकोण
संयुक्त राज्य अमेरिका: अमेरिका के अंदर ‘टू-ट्रैक प्रेसीडेंसी’ (Two-track Presidency) का परिदृश्य है।
- पेंटागन (Pentagon; रक्षा विभाग का मुख्यालय) रणनीतिक कारणों से इस क्षेत्र में एक स्थायी समाधान की इच्छा रखता है।
- दूसरी ओर, ट्रंप एवं अन्य लोकलुभावनवादी नेता घरेलू अमेरिकी जनमत को लुभाने की इच्छा रखते हैं और यह दिखाना चाहते हैं कि अमेरिका अंततः सभी खर्चीले और अवांछित युद्धों से बाहर निकल आया है।
रूस: रूस ने अपने हितों से तालिबान के साथ वार्त्ता की शुरुआत की है।
- मास्को तालिबान की क्षेत्रीय उपस्थिति व शक्ति को पहचानता है और उसे इस्लामिक स्टेट (ISIS) के मुकाबले में अपने अनुकूल पाता है।
- वस्तुतः रूसी नीति निर्माताओं का एक प्रभावशाली वर्ग तालिबान को ISIS के विरुद्ध अपने संघर्ष में एक उपयोगी भागीदार के रूप में देखने लगा है।
पाकिस्तान: पाकिस्तान तालिबान विद्रोहियों के साथ अमेरिका की प्रत्यक्ष शांति वार्ता का एक भागीदार रहा है।
- पाकिस्तान समझता है कि अमेरिकी शांति प्रक्रिया के एक अंग के रूप में जब तालिबान अफगान सरकार के साथ एक शक्ति साझाकरण समझौते में प्रवेश कर लेगा तो वह फिर पहले की तरह पाकिस्तान के प्रभाव में नहीं रह जाएगा।
- अमेरिका द्वारा प्रदत्त वित्तीय सहायता (Aid) पर रोक के बावजूद पाकिस्तान द्वारा अफगानिस्तान के अस्थिरताकारी तत्त्वों का समर्थन व सहायता जारी है।
- इस परिदृश्य में चीन एक ऐसा देश है जो पाकिस्तान पर दबाव बना सकता है और उसकी अफगान नीति को प्रभावित कर सकता है।
- चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (China-Pakistan Economic Corridor- CPEC) के कारण चीन पाकिस्तान पर लेनदार अधिकार (Creditor Rights) रखता है।
- पश्तून तहफुज़ मूवमेंट (Pashtun Tahafuz Movement- PTM) जैसे अन्य आंदोलनों से भी पाकिस्तान में नीति सुधार का आंतरिक दबाव बन सकता है।
- कुछ विशेषज्ञ तो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि पाकिस्तान को अफगानिस्तान से संबंधित मामलों में हस्तक्षेप करने की अनुमति ही नहीं दी जानी चाहिये।
शांति संधि और उसके संभावित परिणाम
- संभव है कि जल्द ही यह शांति संधि संपन्न हो जाए।
- इसका कारण यह है कि अफगानिस्तान तालिबान से मुकाबले के लिये अपने सैन्य बल के प्रबंधन हेतु वित्त के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप पर निर्भर है। इस प्रकार अमेरिका उस पर व्यापक दबाव बना सकता है।
- तालिबान अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में शरीयत कानून लागू करने का अंतिम लक्ष्य रखता है। यह अफगानिस्तान के लोगों की इच्छा के विपरीत है। अफगानिस्तान के पास अब अपना संविधान है और लोग संविधान के अनुसार शासित होना चाहते हैं। इस प्रकार संपन्न हुई कोई भी शांति संधि अस्थायी ही होगी।
- तालिबान अफगान सरकार के साथ सत्ता की साझेदारी की अधिक इच्छा नहीं रखेगा। इस प्रकार इस बात की प्रबल संभावना है कि शांति समझौते के बाद भी देश पुनः गृहयुद्ध में उलझ जाए।
- इसके साथ ही विश्व अब अफगानिस्तान में दोहरी चुनौतियों का सामना करेगा: ISIS और तालिबान।
- ISIS क्षेत्रीय आधार पर प्रत्यक्षतः लोगों पर हमला करता है जो तालिबान से अलग दृष्टिकोण रखता है और अपने हमलों को वृहत जातीय या राष्ट्रवादी आंदोलन के रूप में पेश करता है।
- ISIS तालिबान से अधिक विभाजनकारी है और आम नागरिकों जैसे आसान लक्ष्यों को तालिबान से अधिक निशाना बनाता है।
- इसके अतिरिक्त सीमा पार सक्रिय तथाकथित पाकिस्तानी तालिबान और ISIS गुटों के बीच एक प्रकट संबंध है।
- अफगानिस्तान उन सभी आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र बन जाएगा जो किसी भी देश के लिये शुभ नहीं होगा। इससे मध्य एशिया की समस्याएँ और बढ़ेंगी, अर्थात उज़्बेकिस्तान, ताज़िकिस्तान आदि मध्य एशियाई देशों में तालिबान के हमले और बढ़ सकते हैं।
आगे की राह
- केवल तालिबान के साथ वार्त्ता करना एक अदूरदर्शी नीति है। अफगानिस्तान के सभी हितधारकों के बीच संवाद बढ़ाने की आवश्यकता है।
- अफगानिस्तान के अंदर संघर्ष के समाधान के लिये युद्ध के मैदान को अलग-थलग करने की आवश्यकता है, अर्थात् आतंकवादी गतिविधियों को बाह्य समर्थन की नीति का पूर्ण परित्याग करना होगा। इसके साथ ही अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिये विभिन्न संलग्न देशों को अपने निहित स्वार्थों को अलग रखने की आवश्यकता है।
- अमेरिका को अपनी अफगानिस्तान नीति को स्पष्ट रूप प्रदान करने की आवश्यकता है।
- भारत और मध्य एशियाई गणराज्य क्षेत्र में शांति स्थापित करने में मदद कर सकते हैं।
- उस क्षेत्र में उग्रवाद अधिक प्रबल होता है जहाँ राज्य अपनी भूमिका में विफल रहता है। इस प्रकार, अफगानिस्तान के अंदर प्रशासनिक सुधार समय की एक बड़ी आवश्यकता है।
प्रश्न: अमेरिकी अफगान नीति के आलोक में भारत की अफगान नीति के सभी प्रबल घटकों की समीक्षा कीजिये।