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मॉक इंटरव्यू निशा कुमारी

  • 13 Sep 2018
  • 45 min read

उम्मीदवार का परिचय

नामः निशा कुमारी
पिता का नामः रामेश्वर
माता का नामः गायत्री देवी
जन्म स्थानः जौनपुर (उत्तर प्रदेश)
जन्म तिथिः 19 सितंबर, 1991
वर्गः सामान्य 

शैक्षणिक योग्यताः

  • हाईस्कूलः रघुवंश जूनियर हाई स्कूल, जौनपुर (71%)
  • इण्टरमीडिएटः राजकीय महिला इण्टर कॉलेज, जौनपुर (68%)
  • स्नातकः राजा हरपाल सिंह महाविद्यालय, जौनपुर (72%, जीव विज्ञान विषय के साथ)

वैकल्पिक विषयः हिंदी साहित्य
माध्यमः हिंदी
प्रयासः तृतीय
रुचिः बैडमिंटन खेलना
सेवा संबंधी वरीयताएँ: IAS, IPS, IFS , IRS, IC & ES, IRTS, IRAS
राज्य संबंधी वरीयताएँ: उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़,  उत्तराखंड, झारखंड, बिहार, ओडिशा, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, असम- मेघालय, मणिपुर-त्रिपुरा, नागालैंड तथा अग्मुट।

निशा कुमारी उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले के ग्रामीण क्षेत्र् की रहने वाली हैं। आर्थिक तंगी तथा सुविधाओं और संसाधानों के अभाव में एक सामान्य व्यक्ति हिम्मत हार जाता है, लेकिन निशा ने इन विषम परिस्थितियों में भी एक ऐसा लक्ष्य चुनने का निश्चय किया जो असंभव तो नहीं परंतु कठिन अवश्य था। तमाम विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए निशा का तृतीय प्रयास में संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा में इंटरव्यू तक पहुँचना उन लोगों के लिये प्रेरणापरक है, जो जीवन की छोटी-मोटी चुनौतियों से घबराकर अपने मार्ग से भटक जाते हैं। प्रस्तुत हैं निशा के साक्षात्कार के प्रमुख अंश-

साक्षात्कार

(सुरक्षा गार्ड के दरवाज़ा खोलने के पश्चात् निशा सामने बैठे बोर्ड सदस्यों से इंटरव्यू कक्ष में प्रवेश की अनुमति मांगती है।)

निशाः क्या मैं अंदर आ सकती हूँ सर?

अध्यक्षः हाँ-हाँ.......आइये। 

(अध्यक्ष महोदय निशा का बायो-डेटा देख रहे हैं और अन्य सदस्यों से बातें कर रहे हैं, तब तक निशा खड़ी ही है...तभी बोर्ड अध्यक्ष का ध्यान निशा की ओर जाता है....)

अध्यक्षः आप खड़ी क्यू हैं......बैठिये।

निशाः थैंक्यू सर (बैठ जाती है)।

अध्यक्षः अपने बारे में कुछ बताइये।

निशाः मैं निशा कुमारी, उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले से बिलॉन्ग करती हूँ। मैंने जीव विज्ञान विषय के साथ स्नातक किया है। मेरा....
(अध्यक्ष महोदय बीच में ही बात काटकर)

अध्यक्षः आप प्रॉपर जौनपुर से ही हैं?

निशाः जी सर।

अध्यक्षः जौनपुर का संबंध दिल्ली सल्तनत के किस शासक के साथ है?

निशाः फिरोज़ शाह तुगलक के साथ।

अध्यक्षः फिरोज़ तुगलक का शासनकाल क्या था?

निशाः (सोचते हुए)....सॉरी सर...मुझे वर्ष तो याद नहीं आ रहा, परंतु इतना याद है कि वे चौदहवीं सदी में सत्ता में थे।

अध्यक्षः (मुस्कुराते हुए).....वैसे तो पूरी तुगलक डायनेस्टी का शासनकाल ही चौदहवीं सदी में था।... (सारे सदस्य मुस्कुराते हैं)

निशाः सॉरी सर....

अध्यक्षः जौनपुर के नामकरण का ऐतिहासिक आधार क्या है?

निशाः सर, जौनपुर की स्थापना दिल्ली के शासक फिरोज़ शाह तुगलक ने अपने भतीजे जौना खाँ की याद में की थी, इसलिये इस शहर का नाम जौनपुर रखा गया। वैसे हिंदू धर्म की पुरानी मान्यताओं के अनुसार जौनपुर का नाम वैदिक काल के ऋषि जमदाग्नि के नाम पर पड़ा है।

अध्यक्षः आप किस व्याख्या को ज़्यादा सटीक मानती हैं?

निशाः मैं इस संभावना से इनकार नहीं करती कि प्राचीन काल में जमदाग्नि नाम के ऋषि रहे हों और उनके नाम पर इस शहर का नाम पड़ा हो। परंतु अब तक कोई ऐसा पुष्ट साक्ष्य नहीं मिला है, जिसके आधार पर इस व्याख्या को तथ्य माना जा सके जबकि जौना खाँ वाली व्याख्या के पक्ष में इसके अपेक्षाकृत कई पुख्ता प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। इसलिये मैं नामकरण के इस आधार को ज़्यादा  महत्त्व देना उचित समझती हूँ।

अध्यक्षः आपके शहर की सबसे प्रमुख विशेषता क्या है? एक वाक्य में बताइये।

निशाः (सोचते हुए)....जौनपुर ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध शहर है। (अध्यक्ष महोदय के चेहरे पर संतुष्टि के भाव नहीं हैं।)

अध्यक्षः क्या यही आपके शहर की सर्वप्रमुख विशेषता है? इतिहास के नाम पर कब तक अपना सम्मान पोषित करते रहेंगे? क्या वर्तमान की कोई उपलब्धि नहीं है जौनपुर की?

निशाः (चेहरे पर घबराहट के भाव हैं।)...ऐसा नहीं है सर....जौनपुर में......

(अध्यक्ष महोदय बीच में ही टोकते हैं)

अध्यक्षः एक ही वाक्य में बताना है।

(निशा अध्यक्ष महोदय के इस तरह बीच में ही रोक देने से बिल्कुल घबरा जाती है और बिल्कुल चुप हो जाती है। थोड़ी देर तक इंटरव्यू कक्ष में बिल्कुल मौन स्तब्धता छाई रहती है। थोड़ी देर के बाद...)

निशाः सर, जौनपुर का लिंगानुपात 1024 है और यह भारत के औसत लिंगानुपात से काफी अधिक है।

(अध्यक्ष महोदय मुस्कुराते हैं।)

अध्यक्षः क्या है वर्तमान में भारत के लिंगानुपात की स्थिति?

निशाः 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में लिंगानुपात की स्थिति प्रति एक हज़ार पुरुष पर 943 महिला की है।

अध्यक्षः गुड....आपके अनुसार हमारे देश में स्त्रियों की संख्या कम होने के क्या कारण हैं?

निशाः परम्परावादी मानसिकता....आज भी लोग बेटी के जन्म पर दुःखी हो जाते हैं और बेटे के जन्म पर उत्सव मनाते हैं। और दुःख की बात ये है कि इसमें अनपढ़, गरीब एवं देहाती क्षेत्र के लोगों के साथ-साथ शिक्षित, शहरी एवं तथाकथित सभ्य लोग भी शामिल हैं।

अध्यक्षः क्या इसमें महिलाएँ शामिल नहीं हैं?

निशाः (सोचते हुए)...हाँ, इसमें कुछ परम्परावादी मानसिकता वाली महिलाओं का भी दोष है। मुझे खुद ही समझ नहीं आता कि आखिर वे स्वयं क्यों अपना अस्तित्व मिटाने पर तुली हैं। परंतु फिर मुझे लगता है कि शायद वे भी परिस्थितियों की शिकार हैं और समाज के साथ-साथ उन्हें अपनी मानसिकता को उसी अनुरूप ढालना उनकी मज़बूरी है।

(अध्यक्ष महोदय संतुष्ट नज़र आ रहे हैं। वे दाईं ओर बैठे बोर्ड सदस्य को सवाल पूछने के लिये इशारा करते हैं।)

प्रथम सदस्यः निशा जी, आप आई.ए.एस. क्यूँ बनना चाहती हैं?

निशाः सबसे पहले तो मैं अपने आपको एक ऐसे पद पर स्थापित करना चाहती हूँ, जहाँ मैं अपने लिये, अपने परिवार के लिये और समाज के लिये कुछ कर सकूँ। अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकूँ।

प्रथम सदस्यः निशा जी, आपका उत्तर पूरी तरह आत्मकेंद्रित है। अपने लिये, परिवार के लिये, व्यक्तित्व के लिये...यह क्या है? इसके लिये आपको आई.ए.एस. बनने की क्या आवश्यकता है, इतना तो आप बिना आई.ए.एस. बने भी कर सकती हैं।

निशाः सर, मेरे विचार से समाज की शुरुआत स्वयं से ही होती है। एक-एक व्यक्ति मिलकर ही समाज का निर्माण करते हैं। और अगर मैं देश और समाज के लिये कुछ करना चाहती हूँ, शोषितों-वंचितों को न्याय दिलाना चाहती हूँ तो सबसे पहले अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना इसकी पहली शर्त होगी। पूर्ण रूप से व्यक्तिगत हित की उपेक्षा कर समाज के लिये कार्य करना, इसे मैं लफ्फाज़ी मानती हूँ।

प्रथम सदस्यः आप क्या कह रही हैं, आपको पता है?...आपको पता है हमारे समाज में ऐसे कई महान व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने देश और समाज के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। आज भी कई लोग नाम, शोहरत, धन-संपदा का लालच किये बगैर अपना सर्वस्व त्यागकर विभिन्न सामाजिक समस्याओं से लड़ रहे हैं और आप..?

निशाः सॉरी सर....मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। मैं कहना चाहती थी कि मैं देश और समाज के हित के लिये तो कार्य करूंगी ही करूंगी। मैंने अपनी आँखों से जिस शोषण, वंचना, दमन और अन्याय को देखा है और अनुभव किया है, उसे मैं कैसे भूल सकती हूँ। लेकिन इन सबके बावजूद मैं अपने माता-पिता, परिवार और अपने कुछ व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ण रूप से उपेक्षा भी नहीं कर सकती।...(थोड़ी देर रुककर) इसे मेरी एक कमज़ोरी के तौर पर भी माना जा सकता है।
(प्रथम सदस्य तो उतने संतुष्ट नज़र नहीं आ रहे हैं परंतु अध्यक्ष महोदय और एक अन्य सदस्य के चेहरे पर उभर रहे भाव को देखकर लग रहा है कि वे निशा के इस उत्तर से प्रभावित हैं।)

प्रथम सदस्यः आपको या आपके परिवार को अपने जीवन में कभी शोषण या वंचना का शिकार होना पड़ा है?

निशाः सर, मैं ऐसे मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ जहाँ ये समस्याएँ आम हैं। मैंने और मेरे परिवार ने ऐसी कई समस्याओं को झेला भी है और देखा भी है।

प्रथम सदस्यः तो क्या आपने अपने सामने होने वाले अन्याय का प्रतिकार नहीं किया?.....या फिर साहस ही नहीं हुआ?

निशाः किया था सर....कई बार किया, परंतु मैं समझ गई कि मैं इस स्थिति में इनके लिये कुछ नहीं कर सकती और फिर मैंने धीरे-धीरे विरोध करना भी छोड़ दिया। मैंने सोच लिया कि यदि मुझे इनके लिये कुछ करना है तो मुझे उस लायक बनना पड़ेगा और फिर बस आज आपके सामने हूँ।

प्रथम सदस्यः अच्छा....अगर आप आई.ए.एस. नहीं बन पाईं तो क्या करेंगी?

निशाः यूँ तो सर इस बारे में मैं नकारात्मक विचार नहीं रखती, लेकिन फिर भी यदि ऐसा दुस्संयोग हो ही जाता है तो भी मैं हार नहीं मानूंगी और अन्य माध्यमों से समाज के लिये कार्य करने के प्रयत्न करूंगी।

प्रथम सदस्यः आपके कॉन्फिडेंस का मैं सम्मान करता हूँ। अच्छा ये बताइये कॉन्फिडेंस और ओवर कॉन्फिडेंस में क्या अंतर है?

निशाः किसी कार्य को लेकर अपने आप पर यह विश्वास होना कि मैं इस कार्य को कर लूंगी, यह कॉन्फिडेंस है। लेकिन जब इसी विश्वास में अतिवादिता आ जाती है और व्यक्ति को यह भ्रम होने लगता है कि चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी आ जाएँ परंतु ये संभव ही नहीं है कि मैं यह कार्य नहीं कर पाऊँ, तो यह ओवर कॉन्फिडेंस है। क्योंकि मनुष्य परिस्थितियों के अधीन होता है और बहुत हद तक परिस्थितियाँ ही किसी कार्य के होने या न होने का निर्धारण करती हैं।

प्रथम सदस्यः गुड.....।

(प्रथम सदस्य संतुष्ट नज़र आते हैं। साथ ही सारे सदस्य भी निशा के इस उत्तर से प्रभावित लगते हैं। प्रथम सदस्य अगले सदस्य को प्रश्न पूछने के लिये इशारा करते हैं।)

द्वितीय सदस्यः आपकी रुचि बैडमिंटन खेलना है? (निशा सहमति में सिर हिलाती है।) बताइये बैडमिंटन कोर्ट की लंबाई-चौड़ाई क्या होती है?

निशाः बैडमिंटन कोर्ट की लंबाई 44 फीट होती है एवं इसकी चौड़ाई 20 फीट  होती है, जबकि एकल में इसकी चौड़ाई 17 फीट होती है।

द्वितीय सदस्यः बैडमिंटन कोर्ट में नेट की क्या स्थिति होती है?

निशाः नेट कोर्ट के बीचों-बीच दो खंभों की सहायता से खड़ा होता है और इसकी ऊँचाई 5 फीट होती है।

द्वितीय सदस्यः बैडमिंटन को ओलंपिक खेलों में कब शामिल किया गया?

निशाः यूँ तो प्रदर्शन के तौर पर 1972 के समर ओलंपिक में ही बैडमिंटन का प्रदर्शन किया गया था। परंतु बैडमिंटन वर्ल्ड फेडरेशन के अनुसार आधिकारिक तौर पर बैडमिंटन को 1992 में ओलंपिक खेलों में शामिल किया गया।

द्वितीय सदस्यः बैडमिंटन वर्ल्ड फेडरेशन का मुख्यालय कहाँ है?

निशाः मलेशिया के कुआलालम्पुर में।

द्वितीय सदस्यः गुड....(मुस्कुराते हुए) इतने कॉन्फिडेंस के साथ बैडमिंटन की इतनी जानकारी को देखकर लगता है कि आपको बैडमिंटन से गहरा लगाव है या फिर आप पूरा रिसर्च करके आई हैं?

निशाः नहीं सर, मुझे बचपन से ही बैडमिंटन से बहुत अधिक लगाव था। मैं बचपन में खूब बैडमिंटन खेला करती थी। लेकिन गाँव का माहौल, परिवार की मानसिकता कि बस पढ़ो-पढ़ो, नौकरी करो, ये-वो और धीरे-धीरे सब छूट गया। मुझे तो कभी-कभी लगता है सर कि मेरा लड़की होना भी इस रास्ते में एक बाधक रहा। यहाँ मत खेलो, वहाँ मत खेलो पता नहीं क्या-क्या। सच कहूँ तो सर आज भी मैं किसी को बैडमिंटन खेलते देखती हूँ तो मेरे अंदर की खिलाड़ी जाग जाती है और मैं खुद को नहीं रोक पाती। जब भी टी.वी. पर सायना को देखती हूँ मुझमें एक जुनून-सा आ जाता है। मुझे लगता है कि मैं ही वहाँ हूँ... मुझे बहुत अफसोस भी होता है। पर अब कुछ नहीं हो सकता।

द्वितीय सदस्यः सायना आपकी फेवरेट प्लेयर हैं?

निशाः जी... मैं तो उनकी ज़बर्दस्त प्रशंसक हूँ।

द्वितीय सदस्यः अच्छा, सायना ने 2012 के ओलंपिक में कौन-सा पदक जीता था?

निशाः कांस्य पदक

द्वितीय सदस्यः सायना को भारत सरकार की तरफ से कौन-कौन से पुरस्कार मिले हैं?

निशाः पद्म श्री, राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार एवं अर्जुन पुरस्कार।

द्वितीय सदस्यः भारत में खेल के क्षेत्र में दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार कौन-सा है?

निशाः राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार।

द्वितीय सदस्यः बैडमिंटन में यह पुरस्कार सायना के अतिरिक्त किसी और को भी मिला है? 

निशाः जहाँ तक मुझे याद है 2001 में यह पुरस्कार पुलेला गोपीचंद को भी मिला था।

द्वितीय सदस्यः गुड... भारत में जितना सम्मान क्रिकेट को मिलता है उतना अन्य खेलों को नहीं। इसके क्या कारण हो सकते हैं?

निशाः शायद लोगों की रुचि।

द्वितीय सदस्यः रुचियाँ तो परिवेश से विकसित होती हैं। वही तो मैं पूछ रहा हूँ कि आखिर ऐसे कौन-से कारण हैं, जिसके कारण भारत के सामान्य लोगों का रुझान क्रिकेट की तरफ अधिक है?

निशाः (सोचते हुए)... मुझे लगता है सर कि क्रिकेट ऐसा खेल है जो आसानी से साधारण लोगों को भी समझ आ जाता है। इसे खेलने के लिये किसी विशेष परिस्थिति या विशेष तथा महंगे साधनों की आवश्यकता नहीं होती। और सबसे बड़ी बात कि पूरे खेल के दौरान रोमांच की अधिकता होती है। शायद इन्हीं कारणों की वजह से भारत में लोगों का क्रिकेट के प्रति रुझान अधिक है।

(द्वितीय सदस्य संतुष्ट नज़र आ रहे हैं। वे दाईं ओर बैठी महिला सदस्य से सवाल पूछने का निवेदन करते हैं।)

महिला सदस्यः आज जैव-तकनीक अत्यंत तेज़ी से विकसित हो रही है, जिसके सकारात्मकता के साथ-साथ कई नकारात्मक परिणाम भी संभावित हैं। इस जीव-जगत को केवल संसाधन मानकर इसके साथ खिलवाड़ करना नैतिक रूप से कहाँ तक उचित है?

निशाः मैम, जहाँ तक मुझे लगता है, कोई भी तकनीक नैतिक रूप से उचित या अनुचित नहीं होती। इसके प्रयोग उचित या अनुचित होते हैं।

महिला सदस्यः एक बंदूक, बम या विस्फोटक पदार्थों के क्या नैतिक प्रयोग हो सकते हैं?

निशाः (सोचते हुए) बुराइयों से अच्छाइयों की रक्षा करने के लिये शस्त्रों का प्रयोग किया जा सकता है। 

महिला सदस्यः बुराई और अच्छाई भी तो कॉम्पेरेटिव कॉन्सेप्ट हैं। हर व्यक्ति के साथ इनके मानक बदल जाते हैं। इस आधार पर किसी की जान लेना तो सही नहीं कहा जा सकता।

निशाः (उलझन सी मुद्रा में नज़र आ रही हैं।... थोड़ी देर बाद) मानव मन की कुछ विशेष कमज़ोरियाँ होती हैं, जिसके दबाव में आकर वह कोई गलत अथवा अनैतिक कदम भी उठा लेता है। अन्य जीवों की तरह इसे भी नियंत्रित रखने के लिये प्रेम के साथ-साथ भय की भी ज़रूरत होती है। इसलिये विभिन्न समाजों में भय एवं सज़ा की अवधारणा रखी गई है। प्रत्येक व्यक्ति साइक्लिक ऑर्डर में किसी-न-किसी चीज़ से डरता है और यही भय दुनिया के नियंत्रण का मूल आधार है। इसी प्रकार, बंदूक या बम आदि शस्त्रों के निर्माण का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं बल्कि मानवीय कमज़ोरियों को नियंत्रण में रखना है।

(सारे सदस्य गौर से सुन रहे हैं।)

महिला सदस्यः बहुत अच्छा... हाल में सरोगेसी से संबंधित कई मुद्दे प्रकाश में आए। क्या भारत में सरोगेसी उचित है?

निशाः सरोगेसी का मूल उद्देश्य ऐसी माताओं को भी संतान की प्राप्ति कराना है, जो किन्हीं जैविक कारणों से गर्भधारण करने में सक्षम नहीं हैं परंतु लोग इसका गलत फायदा उठा रहे हैं और आज सरोगेसी एक बहुत बड़ा व्यापार बन चुका है। इसलिये सरोगेसी के उचित-अनुचित होने की बात नहीं है, बात इसके लिये उचित कानून के निर्माण की है।

महिला सदस्यः सरोगेसी के व्यापार में क्या बुराई है? इससे एक पक्ष की आर्थिक ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं और दूसरे पक्ष की संतान की ज़रूरत। हमारे देश में विदेशी आय का भी यह बड़ा स्रोत है, फिर यह कैसे गलत है?

निशाः इसमें सरोगेट मदर्स की उचित तरीके से देखभाल नहीं की जाती है, उनका शोषण भी होता है। कई महिलाओं की प्रसव के दौरान मृत्यु तक हो जाती है। इसके लिये उन्हें उचित मुआवज़े एवं बीमा वगैरह की भी व्यवस्था नहीं की जाती। उनके गर्भ का केवल एक मशीन की तरह प्रयोग किया जाता है। इसमें नैतिक दायित्वों का अभाव पूरी तरह दिखता है। इसलिये मैं इसके व्यापार को गलत कह रही हूँ।

महिला सदस्यः रिस्क तो हरेक काम में है। परंतु ये तो देखिये, इससे महिलाओं का आर्थिक रूप से सशक्तीकरण हो पा रहा है। साथ ही, कई निःसंतान दंपतियों को संतान की प्राप्ति हो रही है। अच्छा, आपके अनुसार, सरोगेसी से संबंधित कानून में क्या सुधार किये जाने चाहियें?

निशाः पहली बात तो सरोगेसी की एक नियत फीस तय की जाए। इससे पैसे बिचौलियों के हाथों में जाने से बचेंगे और सरोगेट मदर्स को उनकी सर्विस का पूरा लाभ मिल पाएगा। सरोगेट मदर्स के प्रसव तथा उसके बाद के कुछ महीनों तक उचित पोषण एवं बीमा की व्यवस्था की जानी चाहिये। एक निर्धारित समयावधि के भीतर तय की गई कुछ शर्तों के साथ सरोगेट मदर्स को गर्भपात कराने की भी छूट होनी चाहिये। ऐसे ही कुछ बदलाव कर सरोगेसी की व्यवस्था अच्छी की जा सकती है।

महिला सदस्यः गुड...आई एम इंप्रेस्ड फ्रॉम यू।

निशाः (मुस्कुराती हुई) थैंक्यू मैम।

महिला सदस्यः अच्छा ये बताइये खेलने के अलावा आपका फेवरेट टाइमपास क्या है? गाना, चुटकुले सुनाना वगैरह कुछ...

निशाः मैं चुटकुला सुना सकती हूँ।

महिला सदस्यः फिर सुनाइये कोई बढ़िया सा चुटकुला।

निशाः एक बार एक व्यक्ति टाई खरीदने गया। कई सारी टाई देखने के बाद वह दुकानदार से उसकी कीमत पूछता है- इस टाई की क्या कीमत है? दुकानदार- सर सात सौ रुपये। ग्राहक चौंककर- क्या सात सौ रुपये! इतने में तो जूते आ जाते हैं। दुकानदार ने चिढ़कर जवाब दिया- तो गले में जूते ही लटका लीजिये।
(सारे सदस्य हँसते हैं। हँसी का दौर थमने के बाद महिला सदस्य, अगले सदस्य को सवाल पूछने का इशारा करती हैं।)

चतुर्थ सदस्यः आपका वैकल्पिक विषय हिन्दी साहित्य है।

निशाः जी।

चतुर्थ सदस्यः हिन्दी साहित्य के पाठकों में वृद्धि हो रही है या कमी?

निशाः इसके किसी स्पष्ट आकलन के बारे में तो मुझे पता नहीं है। परंतु आस-पास के परिवेश एवं अनुमान के आधार पर मुझे लगता है कि पहले की अपेक्षा हिन्दी के पाठकों में निरन्तर वृद्धि हो रही है।

चतुर्थ सदस्यः आपके इस अनुमान का आधार क्या है?

निशाः हिन्दी साहित्य के प्रति लोगों का बढ़ता रुझान, हिंदी साहित्य के बुक स्टॉलों पर बढ़ती भीड़, पुस्तक मेलों में हिंदी साहित्य के स्टॉल पर उमड़ती भीड़, अच्छे-अच्छे लेखकों एवं किताबों का निरंतर आगमन, इंटरनेट पर हिन्दी के बढ़ते ब्लॉग एवं साहित्य में सबसे बड़ी जो क्रांति, हुई है, वह है निरंतर इसके दायरे का विस्तृत होना। आज साहित्य विज्ञान, तकनीक, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों के ऊपर भी लिखे जा रहे हैं एवं इसमें शोध भी खूब हो रहे हैं। 

चतुर्थ सदस्यः हिन्दी साहित्य के विकास में इंटरनेट एवं सोशल मीडिया का क्या योगदान है?

निशाः इंटरनेट एवं सोशल मीडिया ने एक ऐसे बड़े वर्ग को साहित्य से जोड़ा है, जिसका दूर-दूर तक साहित्य से कोई संबंध नहीं था। इंटरनेट एवं सोशल मीडिया के ज़रिये उनका साहित्य से परिचय हुआ एवं वे उनमें रस लेने लगे तथा इसी तरह वे इंटरनेट से बढ़कर इसके मूल स्रोत, किताबों तक पहुँचने लगे और साहित्य को एक बड़ा पाठक वर्ग मिला।

चतुर्थ सदस्यः क्या यह पाठक वर्ग स्तरीय साहित्य में रस लेता है?

निशाः जिस तरह लेखकों के विभिन्न वर्ग होते हैं, इस आधार पर पाठकों के भी विभिन्न वर्ग होने ज़रूरी हैं। लुग्दी साहित्य, मंचीय साहित्य आदि का भी एक अपना पाठक वर्ग है। हर किसी से अज्ञेय या मुक्तिबोध को समझने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

चतुर्थ सदस्यः आपने अभी मुक्तिबोध की बात की। आपको पता है कि मुक्तिबोध का कोई भी काव्य संकलन उनके जीवन काल में नहीं छपा। उनकी मृत्यु भी बेहद दुःखद स्थितियों में हुई; निराला को भी उपेक्षित समझा गया था। हमारे समाज में साहित्यकारों की दयनीय स्थिति के क्या कारण हैं?

निशाः इसका कारण समाज की मानसिकता है। हमारे यहाँ उसी कार्य को अच्छा समझा जाता है, जिसका आय से सीधा संबंध हो। इसके अलावा साहित्य में भी गुटबन्दी एवं राजनीति प्रभावी हैं, जिनसे अच्छे साहित्यकार उपेक्षित रह जाते हैं और कई चापलूस कवियों, लेखकों को पुरस्कार से नवाज़ा जाता है।

चतुर्थ सदस्यः अभी हाल में, साहित्यकारों के पुरस्कार लौटाने संबंधी विवाद चर्चा में रहे। साहित्यकारों का इस तरह पुरस्कार लौटाना कहाँ तक जायज़ है?

निशाः हालाँकि पुरस्कार लौटाना तो भारत सरकार के अपमान की तरह है, इसलिये इसे उचित तो नहीं कहा जा सकता, परंतु साहित्यकारों के साथ भी अपनी समस्याएँ हैं। वे आखिर समाज में हो रही घटनाओं के प्रति अपना विरोध कैसे दर्ज़ करें। उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही अगर छिनी जा रही हो तो वे क्या करें? विचारों का प्रतिकार विचारों से किया जाना चाहिये, लेकिन इसके बदले जब लोग हिंसा पर उतर आएँ तो क्या किया जाए। पनसारे, दाभोलकर या कलबुर्गी की हत्या को भी तो सही नहीं कहा जा सकता।

चतुर्थ सदस्यः गुड...। 

(चतुर्थ सदस्य संतुष्ट नज़र आ रहे हैं। वे अध्यक्ष महोदय से पूछते हैं कि क्या वे कोई सवाल करना चाहेंगे।)

अध्यक्षः निशा जी, विद्यापति की कौन-सी रचना का संबंध जौनपुर से है?

निशाः जी, कीर्तिलता।

अध्यक्षः कीर्तिलता कौन-सी भाषा में रची गई है?

निशाः यह अवहट्ट में है।

अध्यक्षः इसमें किसकी चर्चा है।

निशाः इसमें महाराजा कीर्ति सिंह का गुणगान किया गया है।

अध्यक्षः ओ.के.... अब आप जा सकती हैं।

निशाः थैंक्यू सर... (निशा आहिस्ते से उठकर सभी सदस्यों को पुनः अभिवादन करते हुए कक्ष से बाहर निकल जाती हैं।)

मॉक इंटरव्यू का मूल्यांकन

साक्षात्कार की प्रक्रिया के बारे में पढ़ना और सुनना जितना रोमांचकारी लगता है, साक्षात्कार से गुज़रना उससे कम रोमांचकारी नहीं होता। सारी तैयारियाँ, सोची हुई बातें, दोस्तों के बीच किया हुआ इंटरव्यू का छद्म अभिनय, सब धरा-का-धरा रह जाता है और वहाँ बच वही जाता है, जो हमारे व्यक्तित्व में वर्षों से संचित होता रहा है। अप्रत्याशित से सवाल, अप्रत्याशित सी स्थितियाँ और उसमें अप्रत्याशित से निकले उत्तर वाकई बड़े रोमांचकारी होते हैं। इसी तरह की रोमांचकारी अनुभूतियों से गुज़रता निशा का इंटरव्यू वाकई प्रभावित करने वाला है। निशा के इंटरव्यू को पढ़ते हुए आइये विश्लेषण करते चलते हैं कि इंटरव्यू के कौन-से बिन्दु निशा के लिये  सकारात्मक रहे तथा कौन-से नकारात्मकः

निशा के सकारात्मक बिन्दु

1. किसी भी इंटरव्यू के शुरुआती पाँच-सात मिनट उम्मीदवार के लिये अत्यंत परेशानियों से भरे होते हैं। इंटरव्यू के शुरुआती क्षण में एक तरफ जहाँ मन में बेचैनी एवं भय घर किये होता है तो वहीं अपने व्यक्तित्व की पहली छाप को प्रभावी बनाने की ललक भी उम्मीदवार को असहजता का शिकार बना देती है। निशा ने अध्यक्ष महोदय द्वारा पूछे गए शुरुआती सवालों में अधिकांश के उत्तर बिल्कुल सही दिये, जिसने उसके व्यक्तित्व के प्रथम प्रभाव को सकारात्मक बनाया। हालाँकि शुरुआती दौर में निशा से पूछे गए सवाल बिल्कुल साधारण एवं तथ्यात्मक प्रकृति के थे, जो उसके सामाजिक-भौगोलिक परिवेश से संबंधित थे। निशा के समझ की पहली परख तब होती है जब उससे जौनपुर के नामकरण की व्याख्या से संबंधित सवाल पूछे गए। अध्यक्ष महोदय के सवाल पर निशा ने किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से रहित होकर अपनी निष्पक्ष अवधारणा रखी, जो तार्किक रूप से सही भी मालूम होती है। निशा का यह उत्तर उसकी निष्पक्ष समझ को दर्शाता है।

2. अपने शहर की सर्वप्रमुख विशेषता बताने के सवाल के साथ अध्यक्ष महोदय ने एक कठिन शर्त भी रख दी थी कि इसका उत्तर एक ही वाक्य में देना है। ऐसे सवालों को वस्तुनिष्ठता में बता पाना वाकई अत्यंत कठिन कार्य है। उस पर भी निशा के साथ सबसे बड़ी समस्या तो तब हुई, जब उसने इस प्रश्न का उत्तर तो दिया लेकिन अध्यक्ष महोदय का रिस्पॉन्स नकारात्मक रहा। इसके बाद भी जब निशा ने पुनः अपने उत्तर को सुधारने की हिम्मत जुटाई तो फिर अध्यक्ष महोदय ने बीच में ही हस्तक्षेप कर उसकी रही-सही हिम्मत की भी हवा निकाल दी। स्वाभाविकतः ऐसी स्थितियों में कोई भी उम्मीदवार घबराहट का शिकार हो जाएगा और यहाँ निशा के चेहरे पर भी घबराहट के भाव स्पष्ट दिख रहे थे। परंतु अपने-आप में पुनः ऊर्जा का संचार करते हुए निशा ने जिस तरह आत्मविश्वास से भरकर उत्तर दिया, यह वाकई सराहनीय था। यह देखा गया है कि अक्सर उम्मीदवार ऐसी परेशानियों के बाद स्वयं को नकारात्मकता से बाहर नहीं निकाल पाते और उनका पूरा इंटरव्यू खराब हो जाता है। परंतु यहाँ निशा के आत्मविश्वास की दाद देनी होगी कि उसने न केवल अपने आपको घबराहट से उबारा, बल्कि आगे के सवालों के उत्तर भी आत्मविश्वास से लबरेज़ होकर दिये।

3. भारत में स्त्रियों की संख्या कम होने के कारणों के बारे में पूछे जाने पर निशा ने बिल्कुल ही संतुलित उत्तर दिया और इसके लिये अशिक्षित एवं ग्रामीण लोगों के साथ-साथ शहरी एवं शिक्षित लोगों को भी कठघरे में खड़ा किया। इसमें महिलाओं की भूमिका के बारे में पूछे जाने पर निशा ने बिना किसी तरह का पक्षपात करते हुए कुछ हद तक उनकी भी परंपरागत मानसिकता को दोषी बताया, साथ ही इसके संभावित कारणों के तर्क भी रखे। निशा का यह उत्तर उसकी प्रगतिशील मानसिकता का सूचक है।

4. हर व्यक्ति के कुछ-न-कुछ कमज़ोर पक्ष अवश्य होते हैं। सकारात्मक के साथ-साथ नकारात्मक पक्ष का होना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। हरेक व्यक्ति अच्छाइयों और बुराइयों का समुच्चय होता है, अंतर केवल कुछ आनुपातिक अंतरालों का होता है। आप आई.ए.एस. क्यों बनना चाहती हैं, के उत्तर में निशा का आत्मकेन्द्रित पक्ष स्पष्ट रूप से नज़र आ रहा था। हो सकता है कि वह अति व्यावहारिकता एवं स्पष्टवादिता के चक्कर में ऐसा बोल गई हो, परंतु यह विचारधारा एक सिविल सेवक के लिये उचित नहीं मानी जा सकती। परंतु इन सबके बावजूद उसकी सबसे बड़ी खासियत यह रही कि उसने खुलकर अपनी इस कमज़ोरी को स्वीकारा और अपने उत्तर के लहज़े को सुधारते हुए इसे एक सकारात्मक दिशा दे दी। साथ ही, शोषण एवं वंचना की बात पर अपने अनुभव का ज़िक्र करते हुए वह बोर्ड सदस्यों की सहानुभूति प्राप्त करने में भी सफल रही।

5. प्रथम सदस्य द्वारा यह पूछे जाने पर कि अगर आप आई.ए.एस. नहीं बन पाईं तो क्या करेंगी, के उत्तर में निशा ने किसी प्रकार का नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते हुए अपने सकारात्मक एवं दृढ़ निश्चय का परिचय दिया। उसने अपने उत्तर में समाज के लिये  कार्य करने की प्रतिबद्धता भी दर्शाई, जो उसके व्यक्तित्व का एक सकारात्मक पहलू था। निश्चय ही बोर्ड सदस्य निशा के इस उत्तर से प्रभावित हुए होंगे।

6. कॉन्फिडेंस और ओवर कॉन्फिडेंस में अंतर बताने के प्रश्न पर निशा ने एक अत्यंत सधा हुआ उत्तर दिया। दरअसल ऐसे सवालों के लिये सटीक उत्तर ढूंढ़ पाना आसान कार्य नहीं होता। हम बोलचाल की भाषा में भले ही इन शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग कर लें परन्तु इनके सूक्ष्म अंतर को समझाने में अच्छे–अच्छों के पसीने छूट जाते हैं। कॉन्फिडेंस और ओवर कॉन्फिडेंस के बीच के अंतर को निशा ने जिस तरह से व्याख्यायित किया, यह वाकई बोर्ड सदस्यों को प्रभावित करने वाला था।

7. किसी भी साक्षात्कार के दौरान उम्मीदवार से उसकी रुचियों के बारे में सवाल पूछा जाना स्वाभाविक सी बात है। यद्यपि निशा की रुचि बैडमिंटन खेलना थी, इसलिये उससे बैडमिंटन से संबंधित कई सवाल पूछे गए। जिस तरीके से निशा ने बैडमिंटन से संबंधित सारे सवालों का बिल्कुल सही जवाब दिया, यह उसकी अपनी रुचि के प्रति गहन लगाव को दर्शाता है। बैडमिंटन के बारे में बात करते-करते निशा भावुक होकर अपनी सारी भावनाएँ बोर्ड सदस्यों के सामने उड़ेल देती है। यह निशा की निश्छल चित्तवृत्ति को दिखाता है।

8. खेलों के बारे में जब चर्चा हो तो बातें क्रिकेट तक न पहुँचें, यह कैसे हो सकता है। द्वितीय सदस्य द्वारा पूछा गया यह सवाल कि भारत में क्रिकेट को अधिक सम्मान मिलने के क्या कारण हैं, यह वाकई विचारणीय मुद्दा है। निशा ने क्रिकेट के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझते हुए जिस तरीके से उसके प्रचलन के कारणों को व्याख्यायित किया, वह वाकई प्रशंसनीय था।

9. वैसे तो साक्षात्कार के दौरान किसी से भी किसी भी क्षेत्र से सवाल पूछे जा सकते हैं। परंतु यदि उम्मीदवार की किसी क्षेत्र में विशिष्टता हो, यानी उसकी अकादमिक पृष्ठभूमि आदि से संबंधित सवाल पूछे जाने की संभावना अधिक होती है। चूँकि निशा की अकादमिक पृष्ठभूमि जीव विज्ञान से थी, इसलिये  उससे विशेष रूप से विज्ञान एवं तकनीकी से संबंधित सवाल पूछे गए। हालाँकि उसने लगभग प्रश्नों के उत्तर तो सही दिये परंतु बंदूक या बम आदि की नैतिकता के सवाल पर जाकर वह उलझ गई। परंतु उसकी त्वरित समझ को मानना होगा जब उसने इस प्रश्न को गोल-गोल घुमाकर मानव मन की कमज़ोरियों का सहारा लेते हुए नैतिकता-अनैतिकता के प्रश्न को ऐसी दिशा दे दी कि वह अपने उत्तर से बोर्ड सदस्यों को संतुष्ट करने में कामयाब हो गई।

10. हालाँकि सरोगेसी के मुद्दे पर निशा के उत्तर में कुछ भटकाव अवश्य आया परंतु अपने-आपको सही दिशा में लाते हुए निशा ने सरोगेसी से संबंधित सुधारों पर अपनी निष्पक्ष राय रखी, जो वाकई प्रभावी रही।

11. निशा का वैकल्पिक विषय हिन्दी साहित्य था इसलिये निशा से साहित्य से संबंधित सवाल पूछे जाने स्वाभाविक थे। हालाँकि निशा से साहित्य संबंधी कोई विशेष पारंपरिक सवाल नहीं पूछे गए। निशा से पूछे गए अधिकतर सवाल वर्तमान परिदृश्य में चल रहे साहित्यिक विवादों से संबंधित थे। निशा ने पारंपरिक एवं समसामयिक दोनों प्रकार के विचारों का जिस प्रकार समन्वय कर अपनी राय रखी वह वाकई प्रशंसनीय थी। हिन्दी साहित्य के पाठकों में वृद्धि हो रही है या कमी के सवाल पर किसी भी प्रकार के तथ्यों की अज्ञानता को स्वीकार करते हुए उसने अपने अनुभव के आधार पर जो निष्कर्ष दिया, वह भी तर्कसंगत था।

12. साहित्यकारों को पर्याप्त सम्मान नहीं मिल पाने के कारणों का विवेचन करते हुए निशा ने साहित्यिक समाज की जिन समस्याओं के बारे में बताया, ये वास्तव में प्रासंगिक हैं एवं यह निशा की विभिन्न सामाजिक समस्याओं के प्रति संवेदना को भी दर्शाता है।
 


निशा के नकारात्मक पक्ष

1. किसी भी उम्मीदवार को इंटरव्यू में जाने से पहले अपने सामाजिक-भौगोलिक-आर्थिक पहलुओं की गहन पड़ताल कर लेनी चाहिये। इन क्षेत्रों से प्रश्न पूछे जाने की सर्वाधिक संभावना होती है एवं ऐसे प्रश्नों में की जाने वाली चूक को अच्छा नहीं समझा जाता। हालाँकि निशा ने अपने सामाजिक-भौगोलिक परिवेश से संबंधित अधिकांश प्रश्नों के सही उत्तर दिये। परंतु फिरोज़ तुगलक के शासन काल से संबंधित साधारण से प्रश्न पर वह चूक गई। इसे निशा की एक कमज़ोरी के तौर पर माना जा सकता है।

2. आप आई.ए.एस. क्यों बनना चाहती हैं के उत्तर में निशा ने जिस प्रकार आत्मकेंद्रित होकर उत्तर दिया, यह एक सिविल सेवक से अपेक्षित नहीं होता है। हो सकता है कि वह अति व्यावहारिक एवं स्पष्टवादी दिखने के लिये  ऐसा बोल गई हो, परंतु यह उसकी एक बड़ी कमज़ोरी थी। कभी-कभार अपनी वास्तविकता को छुपा लेना भी श्रेयस्कर होता है। साक्षात्कार के इस पक्ष ने बोर्ड सदस्यों के मन में निशा के प्रति अवश्य नकारात्मक प्रभाव डाला होगा।

3. विध्वंसक शस्त्रों के नैतिक-अनैतिक प्रयोग के सवाल पर निशा की उलझन स्पष्ट मालूम पड़ती है। हालाँकि उसने सवाल को घुमाते हुए एक कामचलाऊ उत्तर देकर इस समस्या से छुटकारा तो पा लिया परंतु इसका सटीक उत्तर वह नहीं दे पाई। इसे भी निशा के एक नकारात्मक पक्ष के रूप में देखा जा सकता है।

4. कुल मिलाकर निशा का इंटरव्यू काफी अच्छा रहा। छोटी-मोटी कुछ कमज़ोरियों के बावजूद निशा ने अधिकांश प्रश्नों के उत्तर बेहद संतुलित होकर दिये। इस तरह, निशा के इंटरव्यू को एक अच्छा इंटरव्यू माना जा सकता है।
संभावित अंक : 70% हमारा अनुमान है कि निशा को इस इंटरव्यू के लिये 70% अंक मिलेंगे। यानी 275 में से 193 तथा 300 में से 210.
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