इंटरव्यू
मॉक इंटरव्यू अजातशत्रु
- 13 Sep 2018
- 58 min read
उम्मीदवार का परिचय
नामः अजातशत्रु
पिता का नामः पूर्णेन्दु कुमार
माता का नामः आभा देवी
जन्म स्थानः धनबाद
जन्म तिथिः 12 मार्च, 1988
शैक्षणिक योग्यताएँ:
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हाईस्कूलः कैथोलिक हाईस्कूल (मिशन स्कूल), आरा (72.5%)
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इण्टरमीडिएटः एच.डी. जैन कॉलेज, आरा (70%)
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स्नातकः बी.ए. ऑनर्स (हिन्दी साहित्य), बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी (68.5%)
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परास्नातकः हिन्दी साहित्य, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
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शोध कार्य- महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा
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शोध विषय- समकालीन हिन्दी में दलित जीवनी साहित्य का समाजशास्त्रीय मूल्यांकन।
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विशेष उपलब्धि- UGC-NET-JRF (जून 2014) (हिन्दी साहित्य)
माध्यमः हिन्दी
प्रयासः तीसरा
वैकल्पिक विषयः हिन्दी साहित्य
हॉबीज़ः सुगम संगीत सुनना, क्रिकेट, डाक टिकट संग्रह।
सेवा संबंधी वरीयताएँ: IAS, IPS , IFS, IRS, IC & ES, IRTS, IRPS, IPS, IIS
राज्य संबंधी वरीयताएँ: बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु।
अजातशत्रु अनुसूचित जाति से संबंधित आरक्षित वर्ग से हैं पर उनकी पृष्ठभूमि उच्च मध्यमवर्गीय रही है। इसलिये उन्हें दलित वर्ग की उन सामान्य समस्याओं से दो-चार नहीं होना पड़ा है जो हमारे समाज में आम हैं (यह वे अपनी बातचीत में स्वीकार करते हैं)। उनके दादा बिहार सचिवालय में कर्मचारी थे तथा पिताजी बिहार में पीसीएस अधिकारी हैं। उनके एक चाचा महाराष्ट्र कैडर में IAS भी हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा भी अच्छी जगहों से हुई है, जहाँ उनके अनुभव ज़्यादा कटु नहीं रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से उनका झुकाव अंबेडकरवादी धारा से अधिक राष्ट्रवादी धारा के प्रति है; यह उनके जवाबों से झलकता है। दलित-विमर्श पर शोध करने तथा उससे प्रभाव ग्रहण करने के बावजूद वह रेडिकल दलित धारा से असहमत हैं (यहाँ तक कि विरोध में भी उतर सकते हैं)। वे संघर्ष से ज़्यादा समन्वय पर ज़ोर देते हैं, जिसके लिये उनका तर्क है कि हमारे समाज को घृणा से अधिक सहयोग की ज़रूरत है। उन्होंने देश के तीन बेहतर शिक्षा संस्थानों से उच्च शिक्षा ग्रहण की है, इस चीज़ को लेकर उनके मन में गजब का आत्मविश्वास है। यह आत्मविश्वास उन्हें और भी ज़्यादा विनम्र बनाता है। अजातशत्रु को अपने शिक्षकों, घरवालों, आत्मीयजनों, मित्रों-सहपाठियों पर गर्व है जिनसे हर समय कुछ-न-कुछ सीखने को मिलता है। वे कहते हैं कि बचपन से ही मुझे पढ़ने-लिखने में बहुत तेज़ नहीं माना जाता था। मुझे आश्चर्य होता था कि कुछ लोगों को चीज़ें इतनी ज़ल्दी समझ कैसे आ जाती हैं? फिर मुझे धीरे-धीरे खुद से यह महसूस हुआ कि दरअसल हमें वही चीज़ें तुरंत समझ में आती हैं, जिन्हें हम पसंद करते हैं। फलस्वरूप धीरे-धीरे मैं अपनी पसंद का दायरा बढ़ाने लगा और नतीजे बेहतर परिणाम के रूप में सामने थे। अजातशत्रु का इंटरव्यू श्री छतर सिंह के बोर्ड में संपन्न हुआ। पेश है इस इंटरव्यू की समग्र, बगैर काट-छाँट प्रस्तुति!
साक्षात्कार
अध्यक्षः आप अपने आपको चे ग्वेरा मानते हैं या मार्टिन लूथर किंग जूनियर अथवा डॉ. अंबेडकर?
अजातशत्रुः (थोड़ा सकते में आते हुए... फिर कुछ सोचते हुए विनम्रता के साथ) क्षमा करें सर, इन सभी चरित्रों को लेकर मेरे मन में आदर है पर मैं अजातशत्रु ही हूँ।
अध्यक्षः अजातशत्रु का अर्थ तो शत्रुविहीन है, पर इतिहास के अजातशत्रु के तो ढेर सारे शत्रु थे और वह कुछ खलनायक किस्म का भी व्यक्ति था। हमारे देश में तो खल चरित्रों पर नाम नहीं रखे जाते।
अजातशत्रुः क्षमा करें सर, अजातशत्रु पूरी तरह से खल चरित्र भी नहीं था, वह थोड़ा आक्रामक ज़रूर था, पितृहंता भी था; पर यह तो उस समय की आम बात थी। हाँ, जहाँ तक मेरे नाम की बात है तो शायद मेरे बाबा ने मेरा और भाई का नाम शब्दों के अर्थों के अनुसार रखा होगा न कि चरित्रों पर, क्योंकि छोटे भाई का नाम सव्यसाची है, जो कि अर्जुन का नाम है पर वे ‘अर्जुन’ के चरित्र से कोई इत्तेफाक नहीं रखते।
अध्यक्षः सव्यसाची का अर्थ क्या है?
अजातशत्रुः जो दोनों हाथों से समान रूप से सिद्धहस्त हो, यानी जिसका दायाँ एवं बायाँ हाथ दोनों बराबर काम करते हों।...
अध्यक्षः (लगभग बात को बीच में काटते हुए)... आपके बाबा की अर्जुन से असंतुष्टि की वज़ह?
अजातशत्रुः सर, वही एकलव्य की कहानी।
अध्यक्षः क्या विनोद कांबली को इस ज़माने का एकलव्य माना जा सकता है?
अजातशत्रुः सर, बिल्कुल नहीं। रमाकांत आचरेकर ने कांबली को सचिन से ज़्यादा प्रमोट किया, पर सचिन खेल के प्रति अपने महान समर्पण के कारण आगे बढ़ते रहे, वहीं कांबली खेल से भिन्न कई तरह के विवादों में फँसते रहे और टीम से बाहर हो गए।
अध्यक्षः आपने इतनी जगह पढ़ाई की है, पढ़ाई का सबसे अच्छा माहौल कहाँ लगा?
अजातशत्रुः सर, निर्विवाद रूप से जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में।
अध्यक्षः तब आपने वहाँ से शोध क्यों नहीं किया?
अजातशत्रुः दुर्भाग्य से मुझे वहाँ एम.फिल. में प्रवेश नहीं मिल सका।
अध्यक्षः क्या खास बात है जे.एन.यू. में?
अजातशत्रुः विचारों की आज़ादी, विविधता और खुलापन वहाँ की विशेषताएँ हैं जो हम जैसे युवाओं के सपनों की जगह बनाती हैं।
अध्यक्षः और वर्धा तथा बनारस?
अजातशत्रुः वर्धा में पढ़ाई कम राजनीति ज़्यादा है और बनारस अपने में मस्त शहर है, इसलिये कैंपस में बौद्धिकता की कमी थोड़ी अखरती है।
अध्यक्षः मान लें कि आप शिक्षा सचिव बना दिये जाएँ और आपको नई शिक्षा नीति बनाने की ज़िम्मेदारी दे दी जाए, तो आप क्या-क्या प्रयास करेंगे? कोई 4-5 ठोस बातें बताएँ।
अजातशत्रुः सर, इस बारे में मैं सबसे अधिक सोचता हूँ। हमें भारत में सबसे ज़्यादा शिक्षा के सुधार पर काम करना है। इस मामले में मुझे स्कैंडीनेवियन देशों का मॉडल श्रेष्ठतम लगता है। वहाँ देश की सबसे अच्छी प्रतिभाएँ ही शिक्षक के रूप में नियुक्त होती हैं और उन्हें सबसे अधिक वेतन भी मिलता है। अच्छे शिक्षक ही देश को बदल सकते हैं। इसके लिये भारतीय शिक्षा सेवा तथा राज्य शिक्षा सेवाएँ होनी चाहियें। मैं समान शिक्षा प्रणाली को भी लाना चाहूंगा। शिक्षा में विषमता हमारे यहाँ का सबसे बड़ा अभिशाप है। शिक्षण संस्थाओं को अनिवार्य रूप से रोज़गार से जोड़ने का तंत्र विकसित करना होगा। खेल व शारीरिक शिक्षा को औपचारिक शिक्षा के अनिवार्य अंग बनाना चाहिये, साथ ही शिक्षा में सामुदायिक कार्यों को स्थान देना चाहिये। इन सबके अलावा, परीक्षा व मूल्यांकन प्रणाली में भी आमूलचूल परिवर्तनों की दरकार है।
अध्यक्षः अच्छा... आपने बताया कि आप ‘सुगम संगीत’ पसंद करते हैं, ये कैसा संगीत है?
अजातशत्रुः सर, शास्त्रीय संगीत के अतिरिक्त जिस संगीत को सीखा या गाया-बजाया जा सके और जो लोगों में प्रिय हो, वही सुगम संगीत है। दरअसल, हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत के तमाम अवयव निश्चित नियमों में बंधे हैं, जिन्हें समझने वाला ही उनका पूरा आनंद ले सकता है। इनको छोड़कर शेष चीज़ें जैसे लोक गीत, फिल्मी संगीत, भजन तथा अन्य लोकप्रिय संगीत को ‘सुगम संगीत’ कहा जाता है।
अध्यक्षः फिर तो इसका दायरा बहुत बड़ा है। क्या शास्त्रीय संगीत से आपको अरुचि है?
अजातशत्रुः सर, बिल्कुल नहीं। दरअसल, कुछ धुनें जो मुझे समझ में आती हैं, बहुत अच्छी लगती हैं पर शास्त्रीय संगीत की समझ न होने के कारण पैदा हुई असमर्थता मुझे सुगम संगीत की तरफ ले जाती है।
अध्यक्षः आपके प्रिय गायक?
अजातशत्रुः किशोर कुमार, मन्ना डे, यसुदास, लता मंगेशकर, आशा भोंसले और नुसरत फतेह अली खान।
अध्यक्षः किसी समकालीन गायक को पसंद नहीं करते?
अजातशत्रुः करता हूँ सर; अरिजीत सिंह, अंकित तिवारी, मोहित चौहान, अमित त्रिवेदी आदि को।
अध्यक्षः रॉक संगीत के बारे में कुछ जानते हैं?
अजातशत्रुः सर, बहुत गहराई से तो नहीं, पर यह 1940-50 के दशक में अमेरिका में प्रचलित हुआ जिसे रॉक-एंड-रोल कहा जाता था, इसमें ड्रम तथा गिटार का इस्तेमाल होता था। इसी से तरह-तरह के रॉक जैसे- हार्ड-रॉक, हैवी मेटल, न्यू वेब, पियानो रॉक, पंक रॉक, सॉफ्ट रॉक, फॉक रॉक, रैप रॉक जैसी तमाम चीज़ें निकलीं... पर इनमें क्या अंतर था, ये मैं जान नहीं पाया। एल्विस प्रेस्ले का इस क्षेत्र में बड़ा नाम था।
अध्यक्षः ये बीटल्स वाले भी रॉक म्यूज़िक वाले ही थे न?
अजातशत्रुः हाँ सर, इन्हें ‘ब्रिटिश रॉक’ कहा जाता है जो लिवरपूल से संबंधित थे। जॉन लेनन, पॉल मैकार्टिनी, रिंगो स्टार, जॉर्ज हैरिसन जैसे लोग इनमें शामिल थे। पंडित रवि शंकर भी कुछ दिन इनसे जुड़े थे।
अध्यक्षः अच्छा, अजातशत्रु जी मैं आपसे कुछ पूछूंगा और आप इसका जवाब एक ही वाक्य में देना- भारत को ब्रिक्स या लोकतांत्रिक चतुष्कोण में से किसी एक को चुनना हो तो आप किसे चुनेंगे और क्यों?
अजातशत्रुः सर, मैं ब्रिक्स को चुनूंगा क्योंकि वह एक सकारात्मक एवं संभावनाशील संगठन है। लोकतांत्रिक चतुष्कोण अभी तक सिर्फ एक परिकल्पना है जो चीन के प्रभाव को कम करने के लिये अमेरिका द्वारा परिकल्पित की गई है, जिसमें उसके साथ जापान एवं ऑस्ट्रेलिया भी शामिल माने जाते हैं।
(अध्यक्ष अच्छा-अच्छा कहते हुए संतुष्टि प्रकट करते हैं और सदस्य-1 की तरफ संकेत करते हैं।)
सदस्य-1: ये वासेपुर धनबाद में ही है न?
अजातशत्रुः हाँ सर, वासेपुर धनबाद शहर का एक मोहल्ला है।
अध्यक्षः अच्छा ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में कितनी सच्चाई है?
अजातशत्रुः सर, आजकल वहाँ वैसी कोई स्थिति नहीं है। दरअसल, यह फिल्म जीशान कादरी की किताब पर आधारित है जो यहाँ के दो बदमाशों फहीम खान और शाबिर अंसारी की आपसी रंजिश पर आधारित थी। हालाँकि वे दोनों अभी भी ज़िंदा हैं तथा जेल में हैं। फिल्म में थोड़ी-सी हकीकत के साथ ढेर सारी कल्पना का मिश्रण है।
सदस्य-1: धनबाद तो वैसे भी कोयले व लोहे की चोरी के लिये कुख्यात है!
अजातशत्रुः सर क्षमा चाहूंगा; धनबाद नहीं, धनबाद के माफियाओं की छवि ऐसी है! (मुस्कुराते हुए...) सर, वैसे धनबाद कई अच्छी वज़हों से प्रख्यात भी है, जैसे ISM धनबाद। सर, धनबाद को भारतीय कोयले की राजधानी भी कहते हैं।
सदस्य-1: अच्छा, आप विश्व के दो-चार ऐसे स्थानों के नाम बता सकते हैं जहाँ कोयला निकाला जाता है?
अजातशत्रुः जी सर, ब्रिटेन में डरहम व कार्डिफ, जर्मनी में रूर घाटी, रूस में डोनेत्स बेसिन और कारागंडा क्षेत्र तथा पोलैंड का सिलेशिया इत्यादि कोयला खनन के लिये प्रसिद्ध हैं।
सदस्य-1: अच्छा, आप बफर स्टॉक से क्या समझते हैं?
अजातशत्रुः आमतौर पर यह खाद्य सुरक्षा से संबंधित शब्द है, जिसका आशय किसी खाद्यान्न की उस मात्रा से है जिसे सरकार किसी अप्रत्याशित स्थिति या मांग से निपटने के लिये अपने गोदामों में सुरक्षित रखती है।
सदस्य-1: खाद्य सुरक्षा कानून के बारे में कुछ बताइये।
अजातशत्रुः सर, इस कानून का प्रमुख उद्देश्य लोगों को भोजन का अधिकार प्रदान करना तथा उनका पोषण बढ़ाना है। इस कानून के तहत ग्रामीण क्षेत्रों की 75% तथा शहरी क्षेत्रों की 50% आबादी को रियायती दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराए जाएंगे। पात्र परिवारों को प्रतिमाह चावल, गेहूँ व मोटा अनाज क्रमशः 3, 2 व 1 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से मिल सकेगा।
सदस्य-1: वैसे, सामान्य परिवार को कितना अनाज दिया जाना है?
अजातशत्रुः क्षमा चाहूंगा सर, मुझे अनाज की मात्रा पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है पर शायद प्रति व्यक्ति 5 किग्रा. का मानक है।
सदस्य-1: अच्छा-अच्छा। ये सीरिया में क्या संकट है? स्पष्ट कीजिये।
अजातशत्रुः सर, सीरिया में संकट की शुरुआत 2011 में तब हुई जब वहाँ की असद सरकार के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हुए। तीन-चार महीनों में ये प्रदर्शन हिंसक हो गए। फिर यही प्रदर्शन एक गृहयुद्ध में तब्दील हो गए। 2.3 करोड़ की आबादी वाले सीरिया में इस गृहयुद्ध के चलते अब तक करीब डेढ़ करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं, जिनमें करीब 50 लाख लोग देश छोड़ चुके हैं। ढाई लाख से भी अधिक लोग मारे जा चुके हैं। यहाँ इस्लामिक स्टेट के हस्तक्षेप ने भारी तबाही मचाई है। वस्तुतः सीरिया में एक तरफ सऊदी अरब, अमेरिका व पश्चिमी देश हैं जो चाहते हैं कि वहाँ से असद की सरकार हट जाए, तो दूसरी तरफ रूस व ईरान हैं जो किसी भी कीमत पर असद को बचाना चाहते हैं। चूँकि असद एक शिया हैं इसलिये यह मामला शिया-सुन्नी का भी हो गया है। साथ ही, सऊदी अरब और तुर्की आदि अल-नुसरा फ्रंट को मदद कर रहे हैं जो सुन्नी विद्रोही संगठन है और जिसे अलकायदा से संबंधित माना जाता है। सीरिया इस समय दुनिया की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी बन गया है।
सदस्य-2: अच्छा, सीरिया के शरणार्थी यूरोप क्यों पहुँच रहे हैं? कहा जा रहा है कि आगे शरणार्थी मुद्दे पर ही यूरोप का विघटन हो जाएगा। इस बारे में कुछ बताएँ।
अजातशत्रुः सर, यूरोप ने संयुक्त राष्ट्र के जेनेवा कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किये हुए हैं। अतः यूरोप के सभी 28 देश इस संधि के तहत शरणार्थियों की मदद करने को बाध्य हैं। इसी वज़ह से शरणार्थी वहाँ पहुँच रहे हैं। हालाँकि इनमें कुछ कट्टरपंथी भी हैं जो यूरोपीय क्षेत्रों में अशांति फैलाने का काम कर रहे हैं। इसलिये यूरोपीय देशों में शरणार्थी समस्या को लेकर गहरा विभाजन हो गया है। वस्तुतः यूरोप को अपने यहाँ करीब एक लाख साठ हज़ार शरणार्थी लेने हैं, लेकिन तमाम देश इसके खिलाफ हैं, जिनमें हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया जैसे देश शामिल हैं। सिर्फ जर्मनी एवं फ्राँस शरण देने पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं। इससे यूरोपीय देशों के बीच तनाव बढ़ रहा है। कुछ लोगों को लगता है शरणार्थी यूरोप की शांति को नष्ट कर देंगे।
सदस्य-3: (महिला सदस्य): अच्छा, ये जर्मनी शरणार्थियों के मामले में अत्यधिक उदार क्यों है?
अजातशत्रुः मैम, जर्मनी कुछ ऐतिहासिक कारणों तथा कुछ तात्कालिक वज़हों से उदारता दिखा रहा है। दरअसल, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया भर में जर्मन मूल के करोड़ों विस्थापित लोगों को जगह मिली, इससे शरणार्थियों को लेकर उसकी प्रतिबद्धता जगी। दूसरी बात यह भी है कि जर्मनी की जनसंख्या लगातार कम हो रही है, ऐसे में उसे मानव संसाधन की भी ज़रूरत है, जो उसके उद्योगों के लिये लाभदायक हो सकते हैं।
सदस्य-2: आपको क्रिकेट पसंद है, तो ज़ाहिर है कि आपने विश्व कप भी देखा होगा? भारतीय टीम की सेमीफाइनल में हार की क्या वज़ह रही?
अजातशत्रुः सर, वैसे तो पूरे टूर्नामेंट में भारत का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा, पर एक मैच में खराब खेलने की वज़ह से भारत बाहर हो गया। इसकी वज़ह रही- भारत की रोहित शर्मा एवं विराट कोहली पर अति-निर्भरता और ऑस्ट्रेलिया की बॉलिंग का भारत से श्रेष्ठ होना।
सदस्य-2: आपके अनुसार भारत में कोई वास्तविक तेज़ गेंदबाज़ है?
अजातशत्रुः सर इस समय तो कई हैं, जैसे- उमेश यादव, वरुण एरोन और मोहम्मद शमी।
सदस्य-2: फिर भारत गेंदबाज़ी में हमेशा फिसड्डी ही क्यों बना रहता है?
अजातशत्रुः सर, भारत में तेज़ गेंदबाज़ी को लेकर कई समस्याएँ हैं। एक तो यहाँ की पिचें उनको मदद नहीं करतीं, ऊपर से फिटनेस की समस्या भी है... एक अच्छे बॉलिंग कोच की कमी भी दिखाई देती है।
महिला सदस्यः अच्छा, भारत में ये संगीत के घराने कैसे बने?
अजातशत्रुः मैम, इस बारे में मेरे पास कोई अधिकृत जानकारी तो नहीं है, पर मुझे लगता है कि विशिष्ट क्षेत्र के प्रभावों तथा गुरु-शिष्य परंपरा की विशेषताओं ने संगीत को घरानों में बाँटने में मदद की होगी। चूँकि पहले एक जगह से दूसरी जगह पहुँचना आसान न था, इसलिये एक जगह की शैली का दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल रहा होगा और इसी क्रम में ग्वालियर, आगरा, किराना, बनारस जैसे संगीत घरानों का जन्म हुआ होगा।
महिला सदस्यः आपने अनुमान तो अच्छा लगाया... अच्छा हिंदी के कुछ ऐसे साहित्यकारों के नाम बताएँ जिनका ‘सुगम संगीत’ में खूब प्रयोग होता है।
अजातशत्रुः खुसरो, सूरदास, तुलसी, कबीर, रैदास आदि के गीत काफी लोक प्रचलित हैं जिन पर संगीत की धुनें बनाई गई हैं।
महिला सदस्यः साहिर लुधियानवी, हसरत जयपुरी, शैलेंद्र वगैरह ने भी तो काफी गाने लिखे हैं, उन्हें हिंदी साहित्य का हिस्सा क्यों नहीं माना जाता?
अजातशत्रुः मैम, इस प्रवृत्ति को मैं भी अच्छा नहीं मानता कि लोकप्रिय कविताओं एवं गीतों को साहित्य के बाहर की वस्तु माना जाए। टैगोर ने तो सैकड़ों गीत रवींद्र संगीत के लिये लिखे थे, जो बहुत लोकप्रिय हैं और बांग्ला साहित्य का सम्मानित हिस्सा हैं। वस्तुतः लोकप्रिय साहित्य लोक को भाषा से जोड़ता है और इस अर्थ में यह बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।
महिला सदस्यः अपने शोध विषय के लिये आपने कौन-कौन सी जीवनियाँ पढ़ीं?
अजातशत्रुः मैम, मैंने दया पवार की अछूत और शरण कुमार लिंबाले की अक्करमाशी पढ़ीं। इन्हीं के बाद दलित जीवनी साहित्य पर काम करने का विचार मन में आया। ये ज़्यादातर आत्मकथाएँ ही हैं। हिन्दी में ओमप्रकाश बाल्मीकि की जूठन, तुलसी राम की मुर्दहिया, मोहनदास नैमिशराय लिखित डॉ. अम्बेडकर की जीवनी, सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ मेरे अध्ययन के केन्द्र में हैं।
सदस्य-4: ये दलित पैंथर आंदोलन क्या बला थी? क्या यह दलित वॉयस से भिन्न था?
अजातशत्रुः सर, 1970 के बाद अमेरिकी रंगभेद विरोधी आंदोलन ब्लैक पैंथर से प्रेरित होकर नामदेव ढसाल, अरुण कांबले आदि ने दलित पैंथर की स्थापना की जो एक सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक संगठन था तथा दलित अस्मिता के लिये आक्रामक ढंग से आवाज़ उठाता था। दलित वॉयस वस्तुतः वी.टी. राजशेखर का समाचार-पत्र था जो कथित रूप से 85% दलितों की 15% सवर्णों से संघर्ष की बात करता है। इसके पीछे चर्च की भूमिका भी मानी जाती है। यह आंदोलन भारतीय राष्ट्रवाद का भी विरोधी था तथा दलित राष्ट्रीयता के साथ अनेक उपराष्ट्रीयताओं की बात भी करता है।
सदस्य-4: इसका मतलब यह एक तरह से षड्यंत्र है जैसा कि राजीव मल्होत्रा कहते हैं?
अजातशत्रुः सर, जहाँ तक मैं चीज़ों को समझता हूँ, दलित पैंथर भले ही आक्रामक था पर उसके पीछे एक सुविचार था, उसके इरादे स्पष्ट एवं ज़मीनी थे... उसके नेता भी जुझारू एवं ज़मीन से जुड़े तथा अत्यधिक रचनात्मक थे। नामदेव ढसाल के बारे में तो दिलीप चित्रे हमेशा कहते थे कि आज के भारत में साहित्य के नोबेल के एकमात्र दावेदार नामदेव ढसाल हो सकते हैं। दलित पैंथर वामपंथ, दक्षिणपंथ एवं अंबेडकरपंथ की भूल-भुलैया व निहित राजनीतिक स्वार्थों के चक्कर में नष्ट हो गए। हालाँकि वी.टी. राजशेखर व उनके अनुयाइयों के बारे में मेरी यही समझ बनी है कि वे लोग तो सिर्फ मोहरे हैं, उन्हें चलाने वाली शक्तियाँ विदेशी हैं।
सदस्य-4: आप उन लोगों के प्रति कुछ ज़्यादा असहिष्णु तो नहीं हो रहे? कांचा इलैय्या के बारे में क्या ख्याल है आपका? वे भी तो बड़े प्रखर दलित चिंतक हैं।
अजातशत्रुः सर, प्रो. कांचा इलैय्या की एक किताब ‘मैं हिंदू क्यों नहीं हूँ’ (Why I am not a Hindu) मैंने पढ़ी है। मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि भारत में या कहीं भी स्थायी घृणा पर आधारित समाज बनाने की कोशिश हमें पीछे ही ले जाती है। इसलिये मैं ऐसे विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता। मैं चाहता हूँ कि हम एक ऐसे जातिविहीन भारतीय समाज का निर्माण करें, जो आपस में घुलनशील व समन्वयवादी हो, न कि संघर्ष एवं घृणा पर आधारित।
सदस्य-2: पर यह होगा कैसे- राजनीति द्वारा या धर्म द्वारा?
अजातशत्रुः (थोड़ा मुस्कुराते हुए...) नहीं सर, अभी हमने अपने समाज में सहकारिता व सामुदायिकता की भावना को विकसित नहीं किया है, इसलिये आज राजनीति एवं धर्म की ताकतें अत्यधिक मज़बूत हैं। हमें सहकारिता तथा सामुदायिकता द्वारा शिक्षा, रोज़गार एवं संस्कृति पर काम करना होगा, तभी नकारात्मक विचार पीछे छूटेंगे।
महिला सदस्यः ऐसा कोई उदाहरण है सामने?
अजातशत्रुः मैम, ऐसा एक उदाहरण मैंने अपनी आँखों से 10-15 दिन रहकर देखा है, उसे लेकर मैं आश्चर्यचकित हूँ। महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले में मेरे चाचाजी IAS बनकर गए थे। वहाँ एक गाँव है- हिवरे बाज़ार। बिल्कुल गांधीजी के सपनों का गाँव। अगर लोग सामाजिक सहभागिता का आशय समझ लें तो धरती पर कैसा स्वर्ग उतार सकते हैं, मैंने अपनी आखों से वहाँ देखा है मैम! सुनता हूँ कि अन्ना हज़ारे का रालेगण सिद्धि तथा मोहन धारिया का गाँव भी ऐसे ही हैं, पर मैंने उन्हें देखा नहीं है।
सदस्य-4: अच्छा! आपके आदर्श कौन से लोग हैं?
अजातशत्रुः सर, वर्गीज कुरियन, बाबा साहेब आम्टे, एम.एस. स्वामीनाथन, इला भट्ट...।
महिला सदस्यः (बीच में काटते हुए) डॉ. अंबेडकर आपके आदर्श नहीं हैं?
अजातशत्रुः मैम, डॉ. अम्बेडकर हमारे लिये हमेशा पूजनीय रहेंगे। उन्होंने दलितों के लिये जो किया उसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा। पर मुझे वे लोग ज़्यादा आकर्षित करते हैं जो बगैर किसी आर्थिक-राजनैतिक स्वार्थ के देश व समाज के लिये जीते हैं।
महिला सदस्यः इसका मतलब यह है कि डॉ. अम्बेडकर ने जो भी किया वह राजनीतिक स्वार्थ के लिये किया है?
अजातशत्रुः नहीं मैम, ऐसा मैं कैसे कह सकता हूँ। शायद मैं अपनी बात ठीक से कह नहीं पा रहा। मैं यह कहना चाहता था कि मैं राजनीति से बाहर के सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र के लोगों से ज़्यादा प्रभावित होता हूँ।
महिला सदस्यः आपने डॉ. अंबेडकर का लेखन पढ़ा है? आप उन्हें कैसा लेखक मानते हैं?
अजातशत्रुः मैम, मैनें उनकी ज़्यादातर किताबें पढ़ी हैं। उनकी बौद्धिक प्रतिभा का मैं कायल हूँ, पर हर जगह उनसे सहमत नहीं हो पाता। ऐसा लगता है कि जैसे वे साम्राज्यवादी इतिहास लेखकों की बातों को ही पुष्ट करना चाहते हैं।
सदस्य-4: मिशेल फूको व जैक दरीदा के बारे में कुछ पढ़ा है? हिन्दी में उत्तर आधुनिकता पर क्या हो रहा है?
अजातशत्रुः हाँ सर, थोड़ा बहुत यूँ ही पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा है। उनकी पुस्तकें नहीं पढ़ सका हूँ। मिशेल फूको उत्तर आधुनिकता को वैचारिक बदलाव एवं नए डिस्कोर्स के रूप में लेते हैं। वे ज्ञान एवं शक्ति को जोड़कर देखते हैं। जैक दरीदा फर्डिनेंड सोसोरे के भाषा वैज्ञानिक चिंतन से प्रभावित थे। वे विखंडनवाद पर ज़ोर देते हैं जो चीज़ों के नए अव्यक्त अर्थ को खोजने और विश्लेषण पर ज़्यादा ज़ोर देता है। वे प्रजातंत्र तथा अन्य समकालीन संस्थाओं की व्याख्याएँ भी देते हैं, पर मैं इन लोगों को ज़्यादा समझ नहीं सका हूँ। हिन्दी में सुधीश पचौरी ल्योतार पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं। मनोहर श्याम जोशी की हरिया हरक्यूलिस की हैरानी; विनोद कुमार शुक्ल की दीवार में एक खिड़की रहती थी, खिलेगा तो देखेंगे; अलका सरावगी की कलिकथा वाया बाईपास मुझे उत्तर आधुनिक साहित्यिक प्रयास लगते हैं। बहुलतावाद, महावृत्तांत का अंत, विकेंद्रीकरण जैसी चीज़ें इसके केंद्र में बताई जाती रही हैं, पर मैं इन्हें ज़्यादा समझ नहीं पाया हूँ।
महिला सदस्यः अभी आपने ल्योतार का नाम लिया? कुछ इन्हें भी पढ़ा?
अजातशत्रुः नहीं मैम, यूँ ही कभी ब्लॉग्स वगैरह पढ़ते समय कुछ चीज़ें पता चल जाती हैं। ल्योतार आधुनिकता को उत्तर आधुनिकता से जोड़कर देखते हैं तथा उसे औद्योगिक पूंजीवाद का अंग बताते हैं। ल्योतार के अनुसार उत्तर आधुनिकता ने महावृत्तांतों को समाप्त करके बहुलतावाद व विकेंद्रीकरण को स्वीकारा है, ऐसा मैंने कहीं पढ़ा था।
महिला सदस्यः (मुस्कुराते हुए...) ज़्यादा गलत नहीं पढ़ा था आपने! अच्छा, यह कहा जा रहा है कि दलित लेखकों की आत्मकथाएँ झूठे संघर्षों की दास्तानों से भरी पड़ी हैं जो नकली शहादत को स्थापित करने का प्रयास है। इस संदर्भ में आपका क्या विचार है?
अजातशत्रुः मैम, मैंने जितनी आत्मकथाएँ पढ़ी हैं उनमें मुझे सच्चाई लगती है, हालाँकि उन घटनाओं की तस्दीक करना संभव नहीं है। हो सकता है कि एकाध घटना ऐसे कहीं लिखी गई हो पर इससे पूरे दलित जीवनी-साहित्य पर प्रश्नचिह्न लगाना ठीक नहीं है। आत्मप्रचार या आत्मदया के लिये कुछ लिखा जाए तो उसमें वह बात नहीं आ सकती जो आप अछूत, जूठन, मुर्दहिया या अक्करमाशी पढ़ते हुए महसूस करते हैं।
सदस्य-2: अभी आपने नामदेव ढसाल को नोबेल पुरस्कार लायक बताया था। समकालीन हिन्दी में भी ऐसा कोई लेखक है जिसका लेखन इस योग्य हो?
अजातशत्रुः हाँ सर, उदय प्रकाश व कुँवर नारायण दो ऐसे नाम याद आ रहे हैं। वैसे मैं कह सकता हूँ कि यदि हिन्दी प्रकाशन उद्योग विश्व स्तर का रहे और हिन्दी में पढ़ने की परंपरा रहे तो आज के समय के लगभग 100 से अधिक लेखक वैश्विक स्तर पर पहचान बना सकते हैं।
सदस्य-2: आपने उदय प्रकाश को पढ़ा है, या सुनी-सुनाई बात कर रहे हैं?
अजातशत्रुः हाँ सर, मैंने उनकी कहानियाँ तथा कविताएँ पढ़ी हैं। उनकी एक कहानी "और अंत में प्रार्थना" से मैं बहुत प्रभावित हुआ था। इसके अलावा, मैंने उनका उपन्यास "पीली छतरी वाली लड़की" भी पढ़ा और उनकी कविताएँ भी।
सदस्य-2: अच्छा-अच्छा! ये चीन वाले अपनी मुद्रा का लगातार अवमूल्यन क्यों करते जा रहे हैं? इसका भारत पर भी कुछ प्रभाव हो सकता है क्या?
अजातशत्रुः सर, चीन की अर्थव्यवस्था निर्यात पर आधारित है। यूरोप एवं अमेरिका में मंदी की वज़ह से वह दुष्प्रभावित हो रही थी इसलिये घटते निर्यात व मंदी से निपटने के लिये चीन ने अवमूल्यन का सहारा लिया। इससे ये होगा कि युआन अन्य विदेशी मुद्राओं से सस्ता हो जाएगा जिसका लाभ निर्यात में बढ़ोतरी के रूप में मिलेगा। भारत पर इसका सीधा असर यह होगा कि हमारे उत्पादों को चीनी वस्तुओं से स्पर्द्धा करनी पड़ेगी। स्टील और धातु बाज़ार में चीन से आयात बढ़ सकता है, भारतीय टायर उद्योग को भी नुकसान हो सकता है। भारतीय रुपए की कीमत भी कम हो सकती है। इसके अलावा, भारत से चीन जाने वाले कच्चे माल भी वहाँ महँगे हो जाएंगे। ऐसे में भारत पर प्रभाव तो पड़ेगा ही।
सदस्य-2: तो भारत को क्या उपाय करने होंगे?
अजातशत्रुः यहाँ रिज़र्व बैंक को फौरी उपाय करने होंगे, खासकर रुपए को स्थिर रखने के। चीन की डंपिंग रोकने एवं अपने निर्यातों को बढ़ावा देने की नीतियों की घोषणा करनी होगी।
सदस्य-1: क्या इसी को ‘मुद्रा युद्ध’ के रूप में देखा जा रहा है?
अजातशत्रुः हाँ सर, चीन के अवमूल्यन का एक उद्देश्य युआन को एस.डी.आर. बास्केट में शामिल करने के लिये विश्वसनीय बनाने का प्रयास करना भी है। उसने युआन को कृत्रिम तरीके से सस्ता कर रखा है ताकि वह दुनिया पर अपनी व्यापारिक धमक बनाए रख सके और यूरो, डॉलर, पौंड, तथा येन के साथ अपनी मुद्रा के महत्त्व को मज़बूती से स्थापित कर सके।
सदस्य-2: आपके अनुसार भारत को अमेरिकी नीतियों से ज़्यादा फायदा हो सकता है या रूस-चीन की नज़दीकी द्वारा?
अजातशत्रुः सर, मुझे गुटनिरपेक्षता 2.0 का मार्ग सर्वश्रेष्ठ लगता है। हमें अमेरिकी गुट का अनुयायी बनकर वह सम्मान नहीं मिल सकता जो भारत जैसे ऐतिहासिक रूप से समृद्ध देश को मिलना चाहिये। हम चाहें तो अमेरिका की ओर थोड़ा झुकाव रख सकते हैं क्योंकि अमेरिका-यूरोप की जुगलबंदी हमारे लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है, पर हमें ऐसा रूस-चीन के साथ संबंधों की कीमत पर नहीं करना चाहिये। हमें एक स्वतंत्र, संप्रभु एवं विशिष्ट ताकत की तरह आगे बढ़ना चाहिये।
महिला सदस्यः (मुस्कुराते हुए) वैसे आप भाषण बहुत अच्छा देते हैं। ये डाक टिकट संग्रह की लत आपको कब लगी?
अजातशत्रुः क्षमा करें मैम, यदि मैं कहीं भाषण पिलाने की मुद्रा में लगा?
महिला सदस्यः अरे नहीं-नहीं... डाक टिकटों के बारे में कुछ बताओ?
अजातशत्रुः मुझे बचपन से डाक टिकट बहुत आकर्षित करते थे। पहले मैंने व्यक्तित्वों के ऊपर आधारित टिकट इकट्ठा करने शुरू किये फिर यह शौक ही बन गया और तमाम क्लबों व संस्थाओं से जुड़कर प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगा।
महिला सदस्यः आपको सबसे अच्छे डाक टिकट कहाँ के लगे?
अजातशत्रुः मैम, भूटान के। वहाँ के तमाम टिकट तो थ्री-डी भी थे।
अध्यक्षः अच्छा...! आपका जन्म झारखंड (उस समय बिहार) में हुआ, राज्य बनने के बाद वहाँ कुछ विकास हुआ क्या?
अजातशत्रुः सर, मेरा शुरुआती बचपन धनबाद में ही बीता। मेरा गाँव भी धनबाद ज़िले में ही है, जहाँ मैं बराबर जाता रहता हूँ। सर झारखंड को राज्य बनने के बाद उतना लाभ नहीं हुआ, जितना वह उठा सकता था। इसके पीछे झारखंड की विकृत राजनीति रही है। सर, वहाँ की राजनीति को देखकर ही मुझे "राजनीति से कुछ बदला जा सकता है" पर विश्वास कम हुआ है। फिर भी मैं आशावादी हूँ कि चीज़ें बदलेंगी?
अध्यक्षः तो आपको लगता है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार की वज़ह से झारखंड वहाँ नहीं पहुँच पाया जहाँ वह पहुँच सकता था।
अजातशत्रुः हाँ सर, क्योंकि झारखंड प्राकृतिक रूप से समृद्धतम क्षेत्र है, कोई अन्य कारण उतना उत्तरदायी नहीं है जितनी शासन एवं प्रशासन की विफलताएँ। नक्सलवाद जैसी समस्याएँ भी इसी से पैदा हुई हैं।
अध्यक्षः और बिहार? उसकी क्या नियति देखते हैं आप?
अजातशत्रुः जातीय राजनीति और अपराधीकरण के दंश से तो बिहार अभी भी पूरी तरह से मुक्त नहीं हुआ है पर उसकी स्थिति तब भी झारखंड से बेहतर है।
अध्यक्षः क्या आपको लगता है कि अमेरिका में एफ्रो-अमेरिकन लोगों के साथ रंगभेद तथा भारत में होते रहे जातिभेद के बीच कोई साम्य खोजा जा सकता है?
अजातशत्रुः राजनीतिक तथा बौद्धिक हल्के में ऐसे प्रयास तो खूब होते रहे हैं। कुछ साम्य है भी पर दोनों की परिस्थितियाँ व ऐतिहासिक घटनाक्रम बिल्कुल भिन्न हैं। भारतीय जाति व्यवस्था स्थानीय कारकों व परिस्थितियों की विशिष्ट उपज थी, उसे किसी भी वैश्विक विचार के साथ मिलाया नहीं जा सकता। जाति व्यवस्था हिन्दू जीवन-शैली की एक खोज थी जो धीरे-धीरे विकृत होती गई। उस समय के समाजों में समानता को वैसे भी मूल्य नहीं माना जाता था।
अध्यक्षः हिन्दू एक धर्म है या जीवन-शैली?
अजातशत्रुः सर, यूँ कहें तो दोनों हैं। दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने उसे एक अर्थ में जीवन-शैली माना हो पर हिन्दू धर्म के होने से कोई इनकार नहीं कर सकता। हिन्दू धर्म परंपरागत अर्थों का पंथ नहीं है। यह एक ऐसी परंपरा है जिसमें बहुत-सी साझा अवधारणाओं और यहाँ तक कि परस्पर विरोधी बातों का भी समुच्चय है। मैं इसे सबसे उदार धर्म मानता हूँ क्योंकि इसमें ईश्वर को मानने या न मानने, दोनों के विकल्प मौजूद हैं। किसी एक विचार, किताब या देवता को मानने या न मानने की ज़बरदस्ती यहाँ नहीं है।
अध्यक्षः यदि इस बार आपका चयन नहीं होता है तो आप क्या करेंगे?
अजातशत्रुः सर, वैसे तो इस बार मुझे चयनित होने का काफी विश्वास है, पर यदि नहीं भी होता हूँ तो मैं फिर से प्रयास करूंगा और अपनी कमियों को दूर करके पुनः परीक्षा में शामिल होऊंगा।
अध्यक्षः बहुत बढ़िया, आपको शुभकामनाएँ, आप जा सकते हैं।
मॉक इंटरव्यू का मूल्यांकन
अजातशत्रु का इंटरव्यू पढ़कर यह भान होता है कि उन्होंने यूँ ही देश की प्रतिष्ठित संस्थाओं में समय नहीं गँवाया है, बल्कि उन्होंने वहाँ रहकर अपने ज्ञान के क्षेत्र का विस्तार किया है। दूसरी बात जो खुलती है और थोड़ा चौंकाती भी है कि अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित होने के बावजूद वे अंबेडकरवादी नहीं हैं। रेडिकल दलित धाराओं से भी उनका इत्तेफाक नहीं है। वे मध्यममार्गी विचारों के हैं जिसका झुकाव दक्षिण पंथी राष्ट्रवाद की तरफ है, ऐसा कहीं-कहीं संकेत मिलता है (उदाहरण के तौर पर जब वे प्रो. कांचा इलैय्या के प्रति अपनी अरुचि का संकेत दे रहे होते हैं)। अजातशत्रु अपनी पसंदगी-नापसंदगी को लेकर भी बोर्ड में काफी मुखर रहे, हालाँकि यह बात दो धारी तलवार की तरह है। यह आपके व्यक्तित्व का वज़न भी बढ़ा सकती है, पर कभी-कभी यह बोर्ड को बुरी भी लग सकती है। इंटरव्यू के दौरान सख्त नापसंदगी या घृणा प्रदर्शित करते समय बहुत सावधान रहने की ज़रूरत होती है।
अजातशत्रु के सकारात्मक पक्ष
1. पूरे इंटरव्यू में ऐसे बहुत कम मौके आए जब अजातशत्रु के पास कहने के लिये कुछ न रहा हो। यह उनका सौभाग्य रहा कि उनके हिस्से में ऐसे प्रश्न नहीं आए जिनके जवाब वे न दे सकें। बोर्ड के अध्यक्ष ने पहला ही प्रश्न बड़ा चौंकाने वाला पूछ लिया था कि आप अपने को क्या समझते हैं- चे ग्वेरा, मार्टिन लूथर किंग जूनियर अथवा डॉ. अंबेडकर? वस्तुतः यह प्रश्न अजातशत्रु की पृष्ठभूमि को लेकर भी था। उस प्रश्न का बहुत ही धैर्य तथा उपयुक्त तरीके से जवाब देकर अजातशत्रु ने अच्छी शुरुआत की। उन्होंने अपेक्षाकृत कुछ कठिन प्रश्नों में भी अपनी सीमाओं को बोर्ड के सामने रखकर अच्छे जवाब दिये। खासकर उत्तर आधुनिकता और दलित-विमर्श वगैरह पर, यह उनके अध्ययन के दायरे के विस्तार का परिचय देने वाला प्रयास था, जो किसी भी बोर्ड को प्रभावित करने में सक्षम था। पहले ही संकेत दिया जा चुका है कि अजातशत्रु बेहद विनम्र व्यक्ति हैं, पर इस विनम्रता के बावजूद वे दृढ़ता से अपनी बात को बोर्ड के सामने रखने से नहीं चूके, यह अच्छी बात रही।
2. अजातशत्रु नाम को लेकर बोर्ड ने उन्हें लगभग घेरने जैसी ही कोशिश की थी, पर जैसे वे तैयार थे। वैसे भी अपने नाम, क्षेत्र, स्कूल, वैकल्पिक विषय, हॉबी आदि ऐसी चीज़े हैं जिनके बारे में व्यक्ति बिल्कुल तैयार होकर जाता है और हुआ भी ऐसा ही, उन्होंने अजातशत्रु, एकलव्य, अर्जुन, कांबली आदि के बारे बेहद स्पष्ट बातें कीं। सबसे खास बात यह कि उन्होंने चीज़ों की लीपापोती नहीं की, अपना स्पष्ट मत रखा, यह एक अच्छी बात रही।
3. स्पष्टवादिता हालाँकि हमेशा दो-धारी तलवार की तरह होती है पर लीपापोती वाली भाषा हमेशा नकारात्मक छवि बनाती है। अपने शैक्षिक संस्थानों को लेकर अजातशत्रु ने बहुत स्पष्टवादी बातें की। अगर कोई बोर्ड सदस्य इसे दिल पर न ले तो यह एक अच्छा तरीका था। आमतौर पर बोर्ड स्पष्टवादिता को पसंद ही करता है (आमतौर पर बोर्ड सदस्य ऐसी बातों को ही पसंद करते हैं, जिन्हें हमारी सामूहिक सोच अच्छा मानती है तथा सकारात्मक विचार समझती है)।
4. अजातशत्रु ने शिक्षा सुधारों के बारे में बड़ा ही क्रांतिकारी तथा भारतीय प्रणाली को समुचित रूप से विश्लेषित करने वाला जवाब दिया। यह एक बेहतरीन उत्तर था। ऐसा नहीं है कि इसमें सारी चीज़ें समाहित ही थीं, पर चूँकि सिर्फ 4-5 चीज़ों की सीमा थी, इसलिये यह उत्तर इस लिहाज़ से बेहद प्रभावी माना जाएगा क्योंकि इसमें भारतीय शिक्षा प्रणाली की नब्ज़ की परख की गई थी।
5. सुगम संगीत की अपनी हॉबी और रॉक संगीत के बारे में भी अजातशत्रु के उत्तर किसी को भी प्रभावित करने में सक्षम थे। अपने कंफर्ट ज़ोन के बाहर जाकर भी अजातशत्रु ने विनम्रता से अपनी अल्पज्ञता स्वीकार करते हुए भी रॉक एण्ड रोल के बारे में अच्छा उत्तर दिया। यह अवश्य ही बोर्ड पर अच्छा प्रभाव डाल सकने वाली चीज़ थी।
6. वासेपुर मुद्दे पर भी उन्होंने बेहद विनम्रता से बोर्ड के सामने अपने प्रतितर्क को रखा तथा काफी हद तक वह अपनी बात को समझाने में सफल भी रहे। यहाँ भी उनकी स्पष्टवादिता तथा तर्कपूर्ण शैली प्रभावी साबित हुई।
7. सीरिया संकट पर उनका उत्तर लगभग पूर्णता लिये हुए था। शरणार्थियों को लेकर यूरोपीय संघ के देशों के बीच के अंतर्विरोधों तथा जर्मनी के शरणार्थी प्रेम के कारणों को उन्होंने बेहद सधे हुए शब्दों में व्यक्त किया। इसमें किसी पक्ष के प्रति उनके किसी पूर्वाग्रह की झलक भी न थी। उनकी बातें न केवल तथ्यात्मक रूप से सही थीं बल्कि बहुत सधे हुए विश्लेषण पर भी आश्रित थीं। ज़ाहिर है कि बोर्ड के ऊपर उनकी इस सजगता एवं पैनेपन का असर तो हुआ ही होगा।
8. लगता है कि दलित-विमर्श को लेकर अजातशत्रु ने मध्यम मार्ग का चयन किया, इसके अलावा उन्होंने किसी भी रेडिकल विचार से किनारा बनाए रखने की रणनीति पर भी कार्य किया। इस बात की भी पूरी गुंजाइश है कि इंटरव्यू में प्रस्तुत किये गए विचार ही अजातशत्रु के मूल विचार हों, तब भी उनके मार्ग का वज़न कम नहीं होता बल्कि बढ़ ही जाता है। सिविल सेवा में कार्य करते हुए आप किसी जाति, धर्म या क्षेत्र के पुर्जे नहीं होते बल्कि आप भारतीय राष्ट्र के तटस्थ अंग होते हैं जो जन-सेवा के लिये होते हैं। निश्चय ही सिविल सेवा की तटस्थता की दृष्टि से उनका यह ‘प्रयास’ समीचीन था। उनके द्वारा सुझाया गया ‘संघर्ष की जगह समन्वय का रास्ता’ न केवल भारतीय रास्ता था बल्कि वह अधिक लोकतांत्रिक मूल्यों वाला भी था।
9. अपने आदर्श लोगों की विचारधारा व अपने चयन की अर्थवत्ता पर भी अजातशत्रु काफी स्पष्ट थे, इतना कि वे डॉ. अंबेडकर को भी अपनी सूची से बाहर रखने का साहस दिखा सके। हालाँकि ऐसे विचार हमेशा ग्राह्य नहीं होते जहाँ आप अति साहसी दिख रहे हों, पर जहाँ भी आप ऐसे दिखें और ईमानदारी से दिखें तो बेहद प्रभावी भी हो सकते हैं। अजातशत्रु संभवतः ऐसा ही दिखना चाहते थे, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे।
10. दलित साहित्य और दलित जीवनियों के पीछे के सच पर हुई बहस पर अजातशत्रु बेहद संतुलित रहे। वे कहीं भी किसी पक्ष के पक्षकार के रूप में नज़र नहीं आए, उन्होंने एक तटस्थ पाठक की भूमिका को ही सामने रखा। कहीं भी वे ‘निर्णायक’ या ‘विद्वान आलोचक’ की मुद्रा में प्रस्तुत होने को उत्सुक नहीं दिखे। उनकी इस मुद्रा ने निश्चय ही उनकी नेकनीयति के प्रति बोर्ड को आश्वस्त किया होगा।
11. चीन द्वारा युआन के अवमूल्यन, खाद्य सुरक्षा, अमेरिका-भारत संबंधों, रंगभेद व जातिभेद के बीच अंतःसंबंधों के बारे में भी अजातशत्रु के उत्तर औसत से बेहतर ही रहे। हिंदू जीवन-शैली को लेकर उनकी स्पष्टता भी बहुत कम लोगों को बुरी लग सकती थी।
कुल मिलाकर, अजातशत्रु के ज़्यादातर उत्तर सकारात्मक रूप में लिये जाने योग्य थे।
अजातशत्रु के नकारात्मक पहलू
किसी एक भावना का अतिरेक भी कभी-कभी गलत प्रभाव पैदा कर सकता है। स्पष्टता एवं मध्यम मार्ग के प्रति आग्रह कहीं-कहीं उन्हें निर्मम बनाता दिख रहा है, जो कभी भी नकारात्मकता की श्रेणी में आ सकता है, यदि बोर्ड में किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध लोग हों। इसलिये किसी भी विचार के प्रति बिल्कुल स्पष्ट स्वीकारा एवं नकारा जाना हमेशा जोखिम भरा होता है। ये जोखिम अजातशत्रु ने कई जगह उठाए। कई जगह वे बिल्कुल साधारण रहे तथा गहरे में जाकर बात नहीं रख पाए। कुछ नकारात्मक बातों पर विशेष गौर किया जा सकता है-
1. अपने शैक्षिक संस्थानों पर बात करते हुए जवाहरलाल नेहरू वि.वि. को अपना प्रिय संस्थान बताने पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, पर अपने वर्तमान संस्थान के बारे में यह कहना कि "वहाँ पढ़ाई कम राजनीति ज़्यादा है" शायद ज़रूरी न था। कुछ और संतुलित बात कहकर अतिवादी एवं आक्रामक उत्तर से बचा जा सकता था। आपस में सहज रूप से बात करते हुए ऐसे सरलीकृत उत्तर चलते हैं पर UPSC में नहीं, जहाँ आपके प्रत्येक जवाब का एक अर्थ निकाला जाता है। इससे बचा जाना चाहिये था।
2. कई ऐसी जगहें भी थीं जहाँ अजातशत्रु के पास जवाब तो थे पर अव्यवस्थित और अप्रभावी से, जैसे कि खाद्य सुरक्षा पर उनका उत्तर साधारण से भी नीचे था। सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रमों के बारे में शायद लगा-लगा कर बात करने से अच्छा संदेश तो नहीं गया होगा।
3. दलित वॉयस तथा कांचा इलैय्या के मुद्दे पर भी अजातशत्रु का उत्तर आदर्श ढाँचे के भीतर न था। इससे वी.टी. राजशेखर व प्रो. कांचा इलैय्या के प्रति उनकी पूर्वाग्रह भरी दृष्टि बिल्कुल नग्न हो गई जो नहीं होनी चाहिये थी। यह स्पष्टवादी नहीं बल्कि पक्षपाती दृष्टि हो जाने का खतरा उत्पन्न करती दिखी। क्या राजशेखर व प्रो. इलैय्या में षड्यंत्रपूर्ण पहलुओं के अतिरिक्त कुछ भी श्रेष्ठ न था? यदि था तो उसे ज़रूर स्पष्ट करना चाहिये। एक प्रतियोगी को इतना निर्मम निर्णायक होने से बचना चाहिये। दलित पैंथर के कमज़ोर होने का विश्लेषण भी स्वीकार्य सीमा में नहीं था। बोर्ड को कांचा इलैय्या के मामले में उन्हें संकेत भी करना पड़ा, यह एक गंभीर बात थी।
4. सामाजिक सहभागिता और अपने आदर्श लोगों की व्याख्या करते-करते डॉ. अंबेडकर के कार्यों को राजनैतिक स्वार्थों की कोटि में ला खड़ा करने का उनका बयान भी चौंकाने वाला था। इस तरह के बयान किसी भी तरह से अभ्यर्थी की सहायता नहीं करते, भले ही बाद में उस पर कितनी भी लीपापोती की जाए। बोर्ड ने इस बात को भी सीधे -सीधे इंगित किया।
5. झारखंड के पिछड़ेपन को सीधे-सीधे राजनीति एवं प्रशासन पर थोप देना भी अजातशत्रु का बुद्धिमत्तापूर्ण चयन नहीं था। यही बात हिंदू धर्म को ‘सबसे उदार धर्म’ घोषित करते हुए झलकी थी। थोड़ी सी शब्दावली का बदलाव उन्हें ज़्यादा सतर्क अभ्यर्थी के रूप में पेश कर सकता था।
हालाँकि, अजातशत्रु के पूरे इंटरव्यू में कुछ गंभीर खामियाँ दिखती हैं पर वे इतने विनम्र हैं कि इसे उनके सीधेपन का दोष मानकर क्षम्य की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। कोई भी उनके उत्तरों से यह अनुमान लगा सकता है कि वे बहुत तैयारी के साथ साक्षात्कार में गए थे, पर यह भी आसानी से सीखा जा सकता है कि ऐसा क्या है जो अजातशत्रु की तरह न किया जाए। UPSC को आपसे एक छात्र-अभ्यर्थी की तरह के उत्तरों की उम्मीद होती है, बौद्धिक शिष्टाचार की किसी भी तरह की सीमा का उल्लंघन न हुआ हो, ऐसी आशा की जाती है। अगर हम अजातशत्रु की गलतियों से सीख लेकर उनकी अच्छाइयों को आत्मसात कर सकें, तो उनके इंटरव्यू का अवलोकन सही मायने में उपयोगी है।
अपेक्षित परिणाम का आकलन
इस इंटरव्यू के अनुसार बिल्कुल सटीक अंक का अनुमान संभव नहीं हो सकता क्योंकि अजातशत्रु के स्पष्टवादी व कभी-कभी अटपटे-तीखे उत्तरों को बोर्ड कितनी सहिष्णुता से लेगा यह केवल पढ़कर नहीं बताया जा सकता, पर मुझे लगता है कि उन्हें 160 से लेकर 180 के बीच अंक मिलने चाहियें।