भ्रष्टाचार से निपटने के लिये नैतिक अनिवार्यता | 28 Nov 2024

"भ्रष्टाचार की कीमत गरीब चुकाते हैं।" - पोप फ्रांसिस

भारत में भ्रष्टाचार गहराई तक व्याप्त है, जो शासन और जनता के विश्वास को कमज़ोर कर रहा है। छत्तीसगढ़ में अवैध कोयला लेवी, झारखंड और केरल जैसे राज्यों में आईएएस अधिकारियों द्वारा धन शोधन तथा कॉर्पोरेट कदाचार जैसे सत्यम घोटाला तथा हाल ही में महाराष्ट्र पुलिस भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा जाँच की जा रही प्रमुख निजी कंपनियों में कथित रिश्वतखोरी के मामले, प्रणालीगत भ्रष्टाचार को उजागर करते हैं। ये मामले व्यक्तिगत लाभ के लिये सत्ता के व्यापक दुरुपयोग को दर्शाते हैं ।

ये घटनाएँ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दिये गए इस शाश्वत अवलोकन को प्रतिध्वनित करती हैं, "जिस तरह जल के नीचे चलती मछली को पानी पीते या न पीते हुए नहीं देखा जा सकता, उसी तरह सरकारी कार्य में लगे सरकारी कर्मचारियों को अपने लिये पैसे लेते हुए नहीं देखा जा सकता।" यह गहन सादृश्य भ्रष्टाचार की सूक्ष्म और व्यापक प्रकृति को रेखांकित करता है। यह भ्रष्टाचार की समग्र जाँच की मांग करता है ताकि प्रभावी समाधान तैयार किये जा सकें जो ईमानदारी, समानता एवं न्याय को बनाए रख सकें।

भ्रष्टाचार के नैतिक आयाम क्या हैं?

  • विश्वास का उल्लंघन: भ्रष्टाचार अधिकारियों को निजी लाभ के लिये सत्ता का दुरुपयोग करने की अनुमति देकर जनता के विश्वास को तोड़ता है, जिससे शासन में विश्वास कम होता है।
    • भ्रष्टाचार विषम शक्ति गतिशीलता को भी दर्शाता है जो सामाजिक निष्पक्षता को नुकसान पहुँचाता है, संस्थाओं में विश्वास को खत्म करता है तथा ईमानदारी, जवाबदेही और न्याय के नैतिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, जिससे समाज के सामूहिक कल्याण व नैतिक ताने-बाने को नुकसान पहुँचता है।
    • लोक सेवकों को समुदाय की सेवा करने के लिये शक्ति और संसाधन सौंपे जाते हैं तथा उन संसाधनों का निजी लाभ के लिये उपयोग करना नैतिक ज़िम्मेदारी का उल्लंघन है।
  • विधि के शासन का उल्लंघन: भ्रष्टाचार विधि के शासन को नष्ट कर देता है और ऐसी व्यवस्था बनाता है जहाँ विधि को चुनिंदा रूप से लागू किया जाता है। यह न्यायिक अखंडता को कमज़ोर करता है और नागरिकों को एक निष्पक्ष विधि प्रणाली की सुरक्षा से वंचित करता है। 
  • अन्याय और असमानता: भ्रष्टाचार उन लोगों के लिये अनुचित लाभ उत्पन्न करके असमानता को बढ़ावा देता है जो रिश्वत दे सकते हैं जबकि उन लोगों को वंचित स्थिति में रखता है जो नहीं दे सकते।
    • इससे बुनियादी सेवाओं, आर्थिक अवसरों और न्याय तक पहुँच विकृत हो जाती है जिससे एक ऐसा समाज बन जाता है जहाँ योग्यता तथा आवश्यकता को दरकिनार कर दिया जाता है।

सुभेद्य

  • सुभेद्य का शोषण: भ्रष्टाचार प्रायः सुभेद्य व्यक्तियों या समूहों का शोषण करता है, उन्हें रिश्वत देने या अनैतिक व्यवहार अपनाने के लिये मज़बूर करता है, जिससे समाज में निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन होता है।
    • इससे हाशिये पर पड़ी आबादी पर बोझ बढ़ता है तथा उनकी स्थिति और खराब होती है।
  • नैतिक अखंडता से समझौता: भ्रष्टाचार में लिप्त व्यक्तियों के लिये, अक्सर व्यक्तिगत अखंडता से समझौता करना पड़ता है । 
    • रिश्वत लेना या देना व्यक्ति के नैतिक मूल्यों को भ्रष्ट करता है तथा व्यक्तिगत एवं संस्थागत दोनों स्तरों पर नैतिक मानकों को नष्ट करता है।
  • सामाजिक उत्तरदायित्व को कमज़ोर करना: भ्रष्टाचार सामूहिक सामाजिक कल्याण से ध्यान हटाकर व्यक्तिगत लाभ पर केंद्रित कर देता है । 
    • नैतिक दृष्टि से, यह सामान्य कल्याण के प्रति उपेक्षा को दर्शाता है तथा समग्र रूप से समाज के प्रति ज़िम्मेदारी की भावना को कमज़ोर करता है।
  • विकास और प्रगति में बाधा: भ्रष्टाचार सार्वजनिक संसाधनों को अन्यत्र भेजकर, अकुशलता को बढ़ावा देकर तथा निवेश को हतोत्साहित करके आर्थिक विकास को बाधित करता है।
    • नैतिक दृष्टिकोण से, यह सामाजिक प्रगति में बाधा डालता है और ठहराव की संस्कृति उत्पन्न करता है, जिससे समाज अपनी क्षमता प्राप्त करने से रुक जाता है।

भ्रष्टाचार पर विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण क्या हैं?

  • कौटिल्य का वास्तविक राजनीति दृष्टिकोण: कौटिल्य ने शासन में भ्रष्टाचार की अपरिहार्यता को स्वीकार किया और प्रणालीगत सतर्कता के माध्यम से रोकथाम पर बल दिया।
    • नियमित लेखा-परीक्षण और आकस्मिक निरीक्षण जैसे उनके तरीके सत्ता के दुरुपयोग के विरुद्ध निवारक रणनीति के रूप में प्रासंगिक बने हुए हैं।
  • आर्थिक असमानता और भ्रष्टाचार: नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ ने धन संकेंद्रण और प्रणालीगत भ्रष्टाचार के बीच संबंध पर प्रकाश डाला है।
    • उनका तर्क है कि नीतियाँ अक्सर अभिजात वर्ग के पक्ष में होती हैं, जिससे एक फीडबैक लूप बनता है जहाँ भ्रष्टाचार और असमानता एक-दूसरे को मज़बूत करते हैं।
  • रॉबर्ट क्लिटगार्ड का भ्रष्टाचार समीकरण: क्लिटगार्ड का समीकरण (C = M + D - A ) भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में एकाधिकार (M), विवेकाधिकार (D) और जवाबदेही की कमी (A) की भूमिका पर प्रकाश डालता है।
    • यह रूपरेखा अत्यधिक विवेकाधिकार को कम करने तथा संस्थागत निगरानी बढ़ाने की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
  • सामाजिक अनुबंध का उल्लंघन: भ्रष्टाचार नागरिकों और अधिकारियों के बीच सामाजिक अनुबंध को कमज़ोर करता है।
    • लोक सेवकों को जनता के कल्याण के लिये कार्य करने का अधिकार सौंपा जाता है, लेकिन जब वे निजी लाभ के लिये इस विश्वास का दुरुपयोग करते हैं तो वे इस नैतिक अनुबंध का उल्लंघन करते हैं, जिससे लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का विश्वास कमज़ोर होता है।
    • विशेषज्ञों का तर्क है कि एक वैध सरकार आपसी विश्वास पर टिकी होती है और भ्रष्टाचार इस विश्वास को नष्ट कर देता है, जिससे जनता में निराशा उत्पन्न होती है और व्यवस्था अस्थिर हो जाती है।
  • उपयोगितावादी आलोचना: उपयोगितावादी दृष्टिकोण से, भ्रष्टाचार स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं से संसाधनों को हटाकर सामाजिक कल्याण को नुकसान पहुँचाता है।
    • भ्रष्टाचार सार्वजनिक कल्याण की अपेक्षा निजी लाभ को प्राथमिकता देता है, जिससे असमानता उत्पन्न होती है और समग्र खुशहाली कम होती है, जिससे सामाजिक खुशी को बढ़ावा देने के सिद्धांत का उल्लंघन होता है।
  • कर्त्तव्य-संबंधी दृष्टिकोण: कर्त्तव्य-संबंधी नैतिकता में, कर्त्तव्य और नैतिक दायित्वों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, जहाँ कार्यों को सही या गलत इस आधार पर माना जाता है कि वे विशिष्ट नैतिक नियमों या कानूनों के अनुरूप हैं या नहीं, भले ही परिणाम कुछ भी हों।
    • निजी लाभ के लिये संसाधनों का दोहन करके भ्रष्टाचार इस कर्त्तव्य का सम्मान करने में विफल हो जाता है, लोगों को साध्य के बजाय साधन मानता है और मौलिक नैतिक ज़िम्मेदारियों का उल्लंघन करता है।
  • सदाचार नैतिकता: सदाचार नैतिकता ईमानदारी, निस्वार्थता और जवाबदेही जैसे नैतिक चरित्र के विकास पर ज़ोर देती है।
    • भ्रष्टाचार इन सद्गुणों के स्थान पर लालच और स्वार्थ को जन्म देता है, जिससे नेतृत्व की नैतिक गुणवत्ता कमज़ोर हो जाती है। 

भ्रष्टाचार से लड़ने में प्रमुख बाधाएँ क्या हैं?

  • भ्रष्टाचार का सांस्कृतिक सामान्यीकरण:
    • सांस्कृतिक स्वीकृति: भ्रष्टाचार की सांस्कृतिक स्वीकृति शासन और सामाजिक विश्वास के नैतिक आधार को कमज़ोर करती है।
      • जब भ्रष्टाचार सामाजिक मानदंडों में अंतर्निहित हो जाता है, तो इस पर सवाल उठाना अधिक कठिन हो जाता है तथा इन प्रथाओं को समाप्त करने और नैतिक व्यवहार को बहाल करने के लिये सामाजिक सतर्कता की आवश्यकता होती है।
      • जब समाज नैतिकता से ज़्यादा नतीजों को प्राथमिकता देता है तो ईमानदार अधिकारियों को अनुचित कलंक का सामना करना पड़ता है, उन्हें डरपोक और अव्यवहारिक करार दिया जाता है। उनकी ईमानदारी को गलत तरीके से अक्षमता के रूप में समझा जाता है जबकि भ्रष्ट आचरण को गलत तरीके से व्यावहारिक समाधान के रूप में मनाया जाता है।
      • इससे सार्वजनिक और निजी जीवन में ईमानदारी, विश्वसनीयता एवं पारदर्शिता जैसे नैतिक मूल्य कमज़ोर होते हैं।
      • संस्थाओं में विश्वास की कमी: जब भ्रष्टाचार व्यापक हो जाता है, तो लोगों का सरकारी संस्थाओं और कानून प्रवर्तन एजेंसियों में विश्वास खत्म हो जाता है, जिससे उनके भ्रष्ट आचरण में भाग लेने या उसे सहन करने की संभावना बढ़ जाती है।
      • इससे एक दुष्चक्र निर्मित होता है, जहाँ जनता या तो अप्रत्यक्ष रूप से या प्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार को जारी रखने में भागीदार हो जाती है, क्योंकि वह इसे अपरिहार्य या यहाँ तक ​​कि लाभकारी मानती है।
  • कमज़ोर जवाबदेही तंत्र:
    • भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों का कमज़ोर प्रवर्तन: यद्यपि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम जैसे कानून मौजूद हैं, लेकिन प्रणालीगत अकुशलता और राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण उनका प्रवर्तन बाधित होता है, जिससे अपराधी जवाबदेही से बच निकलते हैं।
      • RTI जैसे कानूनी प्रावधान जवाबदेही को सशक्त बनाते हैं, लेकिन सीमित जागरूकता और प्रतिरोध इसके प्रभाव में बाधा डालते हैं।
      • निजी क्षेत्र में मज़बूत भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के बावजूद, प्रवर्तन संबंधी चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जिसके लिये बेहतर कार्यान्वयन तंत्र की आवश्यकता है।
    • प्रभावी निगरानी का अभाव: भ्रष्टाचार से निपटने में सबसे बड़ी बाधा सरकारी और कॉर्पोरेट क्षेत्रों में जवाबदेही तंत्र की कमज़ोरी है।
      • लेखापरीक्षा प्रक्रियाओं, जाँचों और दंडात्मक कार्रवाइयों में अक्सर पारदर्शिता का अभाव होता है, जिसके कारण भ्रष्ट गतिविधियाँ अनदेखी हो जाती हैं या दंडित नहीं हो पाती हैं।
    • भ्रष्ट व्यक्तियों के लिये दण्ड से मुक्ति: कई मामलों में, भ्रष्ट व्यक्ति, विशेषकर सत्ता के पदों पर बैठे लोग, अपने राजनीतिक या वित्तीय प्रभाव के कारण दण्ड से मुक्त रहते हैं।
      • कानूनी प्रणालियाँ अकुशल, धीमी या रिश्वत के कारण समझौतापूर्ण हो सकती हैं, जिससे भ्रष्टाचार के मामलों में प्रभावी ढंग से मुकदमा चलाना मुश्किल हो जाता है। इससे यह संदेश जाता है कि भ्रष्टाचार जोखिम-मुक्त है और जनता के बीच अन्याय की भावना को बढ़ावा देता है।
    • भ्रष्टाचार की सूचना देने वालों के लिये सुरक्षा का अभाव: भ्रष्टाचार की सूचना देने वालों के लिये उचित सुरक्षा कानूनों का अभाव, प्रतिशोध के भय से लोगों को भ्रष्टाचार की सूचना देने से रोकता है।
      • कानूनी ढाँचे की सहायता के बिना, मुखबिरों को अक्सर चुप करा दिया जाता है या दंडित किया जाता है, जिससे भ्रष्टाचार को समाप्त करने की क्षमता कमज़ोर हो जाती है।

भ्रष्टाचार से निपटने के लिये आगे की राह क्या होनी चाहिये?

  • दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC):
    • भ्रष्टाचार से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसियों को संस्थागत स्वायत्तता, पर्याप्त संसाधन और राजनीतिक हस्तक्षेप से सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिये।
    • सार्वजनिक अधिकारियों की विवेकाधीन शक्तियों को सीमित करने से यह सुनिश्चित होता है कि निर्णय स्थापित नियमों के आधार पर लिये  जाएं, जिससे भ्रष्ट आचरण के अवसर कम हो जाएं।
    • सामाजिक लेखापरीक्षा और नागरिक चार्टर के माध्यम से नागरिकों को सशक्त बनाने से समुदायों को अधिकारियों को जवाबदेह बनाने में सहायता मिलती है, जिससे सार्वजनिक सेवा वितरण में पारदर्शिता तथा विश्वास बढ़ता है।
  • विश्व बैंक की सिफारिशें:
    • भ्रष्टाचार से निपटने के लिये ई-गवर्नेंस को लागू करने से सार्वजनिक सेवाओं को डिजिटल बनाकर पारदर्शिता बढ़ाई जा सकती है, मानवीय हस्तक्षेप कम किया जा सकता है और दक्षता में सुधार किया जा सकता है।
    • भ्रष्टाचार के दीर्घकालिक परिणामों के विषय में नागरिकों को शिक्षित करने तथा अनैतिक प्रथाओं का विरोध करने तथा उनकी रिपोर्ट करने के लिये उन्हें सशक्त बनाने हेतु जन जागरूकता अभियान आवश्यक हैं।
    • इसके अतिरिक्त, कॅरियर में उन्नति और मान्यता के माध्यम से सार्वजनिक अधिकारियों के बीच नैतिक व्यवहार को मान्यता देना एवं पुरस्कृत करना, ईमानदारी के लिये मज़बूत प्रोत्साहन उत्पन्न कर सकता है तथा प्रणाली के भीतर जवाबदेही व ईमानदारी की संस्कृति को बढ़ावा दे सकता है।
  • विभिन्न विचारकों की सिफारिशें: 
    • कौटिल्य ने भ्रष्टाचार का पता लगाने और उसे रोकने के लिये नियमित निगरानी, ​​लेखा परीक्षा तथा आकस्मिक निरीक्षण के महत्त्व पर बल दिया।
    • रॉबर्ट क्लिटगार्ड ने सत्ता के एकाधिकार को कम करके, विवेकाधिकार को सीमित करके और जवाबदेही बढ़ाकर भ्रष्टाचार से निपटने का सुझाव दिया है।
    • जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ आर्थिक असमानता को दूर करके पारदर्शिता में सुधार लाने और भ्रष्टाचार को रोकने के लिये संस्थाओं को मज़बूत बनाने का समर्थन करते हैं, ताकि इसके संरचनात्मक एवं आर्थिक दोनों कारणों से निपटा जा सके।

निष्कर्ष

भ्रष्टाचार एक जटिल चुनौती है जिसके लिये बहुआयामी प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। कानूनी ढाँचे को मज़बूत करके, "यतो धर्मस्ततो जयः" (जहाँ धार्मिकता है, वहाँ विजय है) जैसी दार्शनिक अंतर्दृष्टि को कार्रवाई में शामिल करके और सामाजिक सतर्कता को बढ़ावा देकर, इसके प्रभाव को कम करना संभव है। नैतिक शासन, पारदर्शिता और जवाबदेही के माध्यम से जनता का विश्वास बहाल करना एक अधिक समतापूर्ण तथा न्यायपूर्ण समाज का मार्ग प्रशस्त करेगा। जब नेता ईमानदारी, जवाबदेही और निष्पक्षता को अपनाते हैं तो उनका नैतिक आचरण संस्थागत प्रथाओं को आकार देता है तथा पूरे संगठनात्मक पदानुक्रम में ईमानदारी को प्रेरित करता है। इसलिये, भ्रष्टाचार का मुकाबला करना न केवल एक कानूनी अनिवार्यता है बल्कि सामूहिक कार्रवाई की मांग करने वाला एक नैतिक दायित्व है।