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एथिक्स

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भिक्षावृत्ति पर प्रतिबंध के नैतिक प्रतिमान

  • 12 Feb 2025
  • 14 min read

भोपाल और इंदौर जैसे शहरों में भिक्षावृत्ति पर प्रतिबंध लगाने से लोक व्यवस्था, वैयक्तिक अधिकारों और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच संतुलन को लेकर आचारनीतिक वाद-विवाद शुरू हुआ। भोपाल में, ज़िला प्रशासन द्वारा भिक्षा माँगने पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया गया जिससे निर्धनता का निवारण करने से संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए। हालाँकि इस प्रतिबंध का उद्देश्य लोक व्यवस्था को बनाए रखना और भिक्षुकों का पुनर्वास करना है, जिनमें से अनेक आपराधिक गतिविधियों में शामिल हैं अथवा यातायात व्यवस्था में  बाधा उत्पन्न करते हैं, किंतु इस विषय को लेकर यह नैतिक दुविधा भी बनी हुई है कि क्या ऐसे व्यक्ति जो पहले से निर्धन हैं उनका अपराधीकरण करना न्यायसंगत होगा अथवा लोक सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा किया जाना एक आवश्यक कदम है? 

भिक्षावृत्ति पर प्रतिबंध से संबंधित नैतिक दुविधाएँ क्या हैं?

  • लोक व्यवस्था बनाम वैयक्तिक अधिकार: भिक्षा माँगने पर प्रतिबंध लगाने का उद्देश्य लोक व्यवस्था को बहाल करना और यातायात व्यवधानों को कम करना है, लेकिन इससे सुभेद्य व्यक्तियों के जीवनयापन की विधियों को आपराधिक बनाकर उनके मूल मानवाधिकारों का उल्लंघन होने का भी खतरा है।
  • दंड बनाम सहायता: यद्यपि इस प्रतिबंध से भिक्षावृत्ति में शामिल व्यक्ति पुनर्वास करने हेतु प्रोत्साहित हो सकते हैं, परंतु उन्हें पर्याप्त विकल्प उपलब्ध कराने में यह विफल रहेगा, जिससे पहले से ही निर्धनता और संसाधनों के अभाव से पीड़ित व्यक्तियों की स्थिति और भी दयनीय हो जाएगी।
  • सुरक्षा चिंताएँ बनाम करुणा: इस प्रतिबंध से भिक्षुकों द्वारा विधि-विरुद्ध गतिविधियाँ करने और मादक द्रव्यों का सेवन किये जाने से संबंधित सुरक्षा चिंताओं का समाधान होगा किंतु इसमें करुणा का अभाव है और इससे निर्धनता के उन मूल कारणों का निवारण नहीं होगा जिनके परिणामस्वरूप लोग भिक्षावृत्ति  में शामिल होते हैं।
  • दक्षता बनाम दीर्घकालिक समाधान: इस प्रतिबंध से भिक्षा माँगने की प्रत्यक्ष समस्या का त्वरित समाधान हो सकता है, किंतु इसमें निर्धनता के अंतर्निहित मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया गया है, जिसके लिये रोज़गार सृजन, सामाजिक समर्थन और शिक्षा जैसे दीर्घकालिक समाधान की आवश्यकता है।
  • नैतिक उत्तरदायित्व बनाम लोक नीति: लोक व्यवस्था बनाए रखना राज्य का उत्तरदायित्व है, लेकिन समाज को भी सुभेद्य व्यक्तियों की सहायता करने के अपने नैतिक दायित्व को स्वीकार करना चाहिये तथा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि भिक्षुकों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाए तथा उन्हें पुनर्वास के अवसर प्रदान किये जाएं।

भिक्षावृत्ति की समस्या का समाधान करना क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • निर्धनता के मूल कारण: भिक्षावृत्ति निर्धनता, बेरोज़गारी और बेघर स्थिति जैसे गंभीर मुद्दों की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है, जिसका समाधान व्यवस्थित सामाजिक समर्थन और आर्थिक अवसरों के माध्यम से किया जाना चाहिये।
  • मानव सम्मान और अधिकार: सुभेद्य व्यक्तियों को उनके जीविकोपार्जन की विधियों के लिये अपराधी घोषित करने अथवा उनका हाशियाकरण करने के बजाय, भिक्षावृत्ति की समस्या का निवारण करने से यह सुनिश्चित होगा कि उन्हें सम्मान और गरिमा मिले।
  • सामाजिक न्याय: सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिये भिक्षा माँगने की समस्या से निपटना आवश्यक है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी व्यक्तियों को, चाहे उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, आवासन, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसे मूल अधिकारों का अभिगम हो।
  • लोक सुरक्षा और स्वास्थ्य: भिक्षा माँगना, विशेष रूप से व्यस्त सार्वजनिक स्थानों पर, भिक्षुकों (संभावित दुर्घटनाओं के माध्यम से) और जनता (आपराधिक गतिविधियों या सार्वजनिक उपद्रव के माध्यम से) दोनों के लिये जोखिमपूर्ण हो सकता है, जिससे मानवोचित समाधान का विकल्प खोजना आवश्यक हो जाता है।
  • शोषण को कम करना: संगठित भिक्षावृत्ति से प्रायः सुभेद्य व्यक्तियों का शोषण होता है, और इस मुद्दे का समाधान करने से उन आपराधिक नेटवर्कों को खत्म करने में मदद मिल सकती है जो उनके शोषण से लाभ अर्जित करते हैं, जिससे इस सुभेद्य वर्ग के लिये बेहतर सुरक्षा सुनिश्चित हो सकती है।

भिक्षावृत्ति के दार्शनिक परिप्रेक्ष्य क्या हैं?

  • उपयोगितावाद और कल्याण: उपयोगितावादी दृष्टिकोण से, भिक्षा माँगने पर प्रतिबंध लगाना उचित हो सकता है यदि इससे बेहतर लोक सुरक्षा और यातायात में अल्प व्यवधान जैसे परिवर्तनों से समाज का कल्याण बेहतर हो। हालाँकि, वास्तव में प्रभावकारी होने के लिये, इस दृष्टिकोण में गरीबी के मूल कारणों को संबोधित करने की भी आवश्यकता है, क्योंकि सहायता प्रणाली प्रदान किये बिना केवल भिक्षा माँगने पर प्रतिबंध लगाने से समग्र सामाजिक कल्याण नहीं होगा।
  • परिणामनिरपेक्ष नैतिकता और नैतिक कर्तव्य: परिणामनिरपेक्ष (Deontological) नैतिकता के अनुसार, राज्य का कर्तव्य है कि वह व्यक्तियों के अधिकारों और सम्मान का सम्मान करे, जिसका अर्थ है कि भिक्षा माँगने को अपराध घोषित करना नैतिक रूप से अनुचित हो सकता है, क्योंकि इससे भिक्षुकों के  मूल अधिकारों का उल्लंघन होगा।
  • सद्गुण नैतिकता और करुणा: सद्गुण नैतिकता चरित्र और करुणा के महत्त्व पर ज़ोर देती है, इसके अनुसार किसी समाज का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिये कि उस समाज में सबसे सुभेद्य वर्गों के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाता है। इस संदर्भ में, दंड के बजाय समर्थन प्रदान करने वाली नीतियाँ करुणा और दयालुता के गुणों के साथ संरेखित होती हैं, जो समाज के नैतिक चरित्र को दर्शाती हैं।
  • रॉल्स का न्याय का सिद्धांत: जॉन रॉल्स के सिद्धांत के अनुसार एक न्यायपूर्ण समाज को सभी के लिये विशेषकर अलाभप्रद अथवा सुविधावंचित व्यक्तियों के लिये निष्पक्षता सुनिश्चित करनी चाहिये। इस दृष्टिकोण के अनुसार ऐसी नीतियाँ क्रियान्वित की जानी चाहिये जिनके अंतर्गत भिक्षा माँगने के लिये मज़बूर लोगों को समान अवसर प्रदान किये गए हों, न कि प्रणालीगत असमानताओं का निवारण किये बिना उन्हें अपराधी घोषित कर दिया जाए।
  • सामुदायिक नैतिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व: माइकल सैंडल और अलास्डेयर मैकइंटायर जैसे विचारकों के अनुसार सामुदायिक नैतिकता के अंतर्गत समुदाय और सामाजिक उत्तदायित्व के महत्त्व पर ज़ोर दिया जाता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार समाज द्वारा अपने सदस्यों, जिनमें भिक्षा माँगने वाले लोग भी शामिल हैं, को सामुदायिक प्रयासों और सामाजिक सहायता प्रणालियों के माध्यम से सहायता प्रदान करना इसका सामूहिक कर्तव्य है। 

समाज भिक्षावृत्ति की समस्या का निवारण किस प्रकार कर सकता है?

  • समग्र सहायता प्रणालियों का क्रियान्वयन: समाज को ऐसी बहुआयामी सहायता प्रणालियाँ तैयार करनी चाहिये जिसके तहत भिक्षुकों को स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और पुनर्वास सेवाएँ प्रदान जाएं, तथा भिक्षा माँगने में शामिल व्यक्तियों की तत्काल आवश्यकताओं और दीर्घकालिक कल्याण को ध्यान में रखा जाए, जैसा कि भारत की SMILE-75 पहल से सुस्पष्ट होता है, जिसका उद्देश्य भिक्षावृत्ति में शामिल व्यक्तियों के समग्र पुनर्वास हेतु व्यापक सहायता प्रणालियाँ स्थापित करना है।
  • निवारक उपायों पर ध्यान केंद्रित करना: समाज को मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करते हुए संवहनीय आवास और रोज़गार सृजन में निवेश कर लक्षणों की तुलना में रोकथाम को प्राथमिकता देनी चाहिये। यूनाइटेड किंगडम के लीड्स शहर में भिक्षावृत्ति की प्रभावी रोकथाम हेतु इसी दृष्टिकोण का पालन किया जाता है।
  • सामाजिक एकीकरण कार्यक्रमों को बढ़ावा देना: ऐसी पहलों को क्रियान्वित किया जाना चाहिये जिसके अंतर्गत कौशल प्राप्त करने, स्थिर रोज़गार खोजने और समुदायों के साथ सम्मानजनक तरीके से पुनः एकीकृत करने के अवसर प्रदान करते हुए भिक्षावृत्ति में शामिल व्यतियों का समाज में एकीकरण करने में सहायता की जाए, जैसा कि भारत के इरोड में अत्चायम भिक्षुक पुनर्वास केंद्र द्वारा प्रदर्शित किया गया है, जिसने कौशल विकास और सामाजिक समर्थन के माध्यम से वृद्ध भिक्षुकों को सफलतापूर्वक समाज में पुनः एकीकृत किया है।
  • विधिक और नीतिगत ढाँचे का सुदृढ़ीकरण: जैसा की फिलीपींस के भिक्षावृत्ति-रोधी अधिनियम में दंडात्मक उपायों की अपेक्षा संरचित समर्थन को प्राथमिकता दी गई है है उसी प्रकार सरकारों को ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिये जिनमें लोक व्यवस्था और करुणा के बीच संतुलन हो, तथा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि भिक्षा माँगने के खिलाफ कानून में केवल दंडात्मक उपाय नहीं अपितु पुनर्वास का स्पष्ट मार्ग भी शामिल हो।
  • नीतिपरक उपभोक्ता व्यवहार को प्रोत्साहित करना: प्रत्यक्ष रूप से भिक्षा देने के बजाय पूर्त कार्य कर नीतिपरक दान को प्रोत्साहित करने से भिक्षावृत्ति का निवारण करने में मदद मिलती है और सामूहिक उत्तरदायित्व को बढ़ावा मिलता है, जैसा कि प्रायः संगठित समर्थन अभियानों के मामले में होता है।

निष्कर्ष

भिक्षा माँगने की समस्या को प्रायः जन असुविधा माना जाता है, लेकिन इसका आधार जटिल सामाजिक-आर्थिक चुनौतियाँ है। मात्र भिक्षावृत्ति पर प्रतिबंध लगाने से अंतर्निहित कारणों का समाधान नहीं किया जा सकता और इससे सबसे सुभेद्य व्यक्तियों का और अधिक हाशियाकरण होने का भी जोखिम होता है। एक मानवोचित नैतिक दृष्टिकोण के लिये प्रणालीगत परिवर्तन, पुनर्वास के लिये समर्थन और लोक जागरूकता पर ध्यान केंद्रित करने के साथ  करुणा और उत्तरदायित्व के बीच संतुलन स्थापित किये जाने की आवश्यकता होती है। इस विषय पर विमर्श के दौरान ऐसे वर्ग का अपराधीकरण करने के बजाय इनका सशक्तीकरण किये जाने पर बल देने के साथ समाज ऐसे समाधानों की ओर अग्रसर हो सकता है जिनमें न केवल मानवीय गरिमा को अक्षुण्ण रखा जएगा बल्कि सभी के लिये अधिक न्यायपूर्ण और समान भविष्य को बढ़ावा दिया जाएगा।

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