एथिक्स
स्कूली बच्चों में हिंसा के बढ़ते संकट के नैतिक निहितार्थ
- 18 Dec 2024
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विगत वर्षों में बच्चों से जुड़ी हिंसा की आश्चर्यचकित घटनाओं ने समाज को असहज और जटिल प्रश्नों का सामना करने पर मजबूर कर दिया है। नई दिल्ली में एक 12 वर्षीय बच्चे ने एक छोटी सी बात पर अपने सहपाठी का गला घोंट दिया। दूसरे शहर में एक क्लास मॉनिटर की कठोर सज़ा के कारण एक सहपाठी की दुखद मौत हो गई। वैश्विक स्तर पर स्कूल में गोलीबारी और हिंसक झड़प जैसी ये घटनाएँ बच्चों में बढ़ती आक्रामकता की एक चिंताजनक तस्वीर पेश करती हैं।
ये घटनाएँ भौगोलिक दृष्टि से विविधतापूर्ण होने के बावजूद, युवाओं में हिंसा के सामान्यीकरण में एक खतरनाक एकरूपता को दर्शाती हैं। हिंसक मीडिया के संपर्क में आना, आक्रामक रोल मॉडल और घर एवं स्कूल में जटिल संघर्ष जैसे कारकों ने इस संकट को बढ़ावा दिया है। यह विमर्श इस परेशान करने वाली प्रवृत्ति के नैतिक और सामाजिक निहितार्थों की जाँच करता है तथा बच्चों के बीच सहानुभूति एवं अहिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देने के तरीकों की खोज करता है।
स्कूली बच्चों के बीच हिंसा को सामान्य मानने की नैतिक चिंताएँ क्या हैं?
- हिंसा के प्रति असंवेदनशीलता: मीडिया, खेलों और वास्तविक जीवन में हिंसा के संपर्क में आने से बच्चे असंवेदनशील हो जाते हैं, जिससे वे आक्रामकता को स्वीकार्य मानने लगते हैं एवं संघर्षों या कुंठाओं से निपटने के लिये हिंसक व्यवहार का अनुकरण करने लगते हैं।
- मानसिक स्वास्थ्य और भावनात्मक विकास पर प्रभाव: हिंसा को सामान्य मानने से बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है, जिससे आक्रामकता, भय, चिंता, अवसादग्रस्त और सहानुभूति की कमी हो सकती है।
- सामाजिक सामंजस्य की कमी: हिंसा के संपर्क में आने से "योग्यतम का अस्तित्व" की मानसिकता को बढ़ावा मिल सकता है, जहाँ बच्चे सहयोग और साझा कल्याण के बजाय अपने स्वयं के हित पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं।
- इससे सामाजिक विखंडन हो सकता है, जहाँ बच्चों को स्वस्थ, सहायक संबंध बनाने में कठिनाई होती है और समुदाय कम संगठित होते हैं।
- आत्म-क्षति या आत्महत्या का जोखिम बढ़ना: हिंसा के संपर्क में आने से बच्चों में निराशा और अकेलेपन की भावना उत्पन्न हो सकती है, जो आत्म-क्षति और आत्मघाती प्रवृत्ति से निकटता से जुड़ी हुई है।
- जो बच्चे हिंसा का अनुभव करते हैं या देखते हैं, वे आंतरिक आक्रामकता और अकेलेपन की भावना से जूझ सकते हैं, जिससे आत्म-विनाशकारी व्यवहार का खतरा बढ़ जाता है।
- संस्थाओं में विश्वास की कमी: जब बच्चे स्कूलों, परिवारों या समुदायों जैसी संस्थाओं में हिंसा देखते हैं या उसका अनुभव करते हैं, तो इससे उनका इनके प्रति विश्वास खत्म हो सकता है, जबकि इनका उद्देश्य उन्हें सुरक्षा और पोषण प्रदान करना है।
- विश्वास की यह हानि सामाजिक संरचनाओं में अविश्वास के चक्र को जन्म दे सकती है, जिससे बच्चे शैक्षिक या सामाजिक संस्थाओं से मार्गदर्शन स्वीकार करने में अधिक प्रतिरोधी हो जाते हैं और उनके समग्र विकास में बाधा उत्पन्न होती है।
बच्चों में मूल्यों का संचार करने में शैक्षिक संस्थानों की क्या भूमिका है?
- मूल्य निर्माण के लिये सह-पाठ्यचर्या गतिविधियों का उपयोग करना: खेल, सांस्कृतिक कार्यक्रम और सामुदायिक सेवा परियोजनाएँ जैसी सह-पाठ्यचर्या गतिविधियाँ मूल्यात्मक शिक्षा देने में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।
- ये गतिविधियाँ छात्रों को टीमवर्क, नेतृत्व और दयालुता का अभ्यास करने का अवसर देती हैं।
- सकारात्मक शिक्षण वातावरण का निर्माण: मूल्यों को प्रभावी ढंग से पढ़ाने के लिये स्कूलों को ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता है जहाँ छात्र सुरक्षित और सम्मानित महसूस करें।
- यह महत्त्वपूर्ण है कि स्कूल समावेशिता और समानता को बढ़ावा दें, विविधता में एकता तथा छात्रों को अलग-अलग दृष्टिकोणों से सीखने के अवसर प्रदान करें। स्कूलों को बच्चों को उनके मतभेदों की सराहना करने और एक-दूसरे के साथ मजबूत संबंध बनाने के लिये प्रेरित करना चाहिये।
- मूल्यात्मक शिक्षा देने में शिक्षकों की भूमिका:
- उदाहरण के द्वारा नेतृत्व करना: कक्षा के अंदर और बाहर दोनों जगह शिक्षक के कार्यों का छात्रों पर स्थायी प्रभाव पड़ता है। शिक्षकों को अपने छात्रों के नैतिक विकास को आकार देने में अपनी भूमिका के महत्त्व को समझना चाहिये तथा अपने द्वारा सिखाए गए मूल्यों को अपनाने का प्रयास करना चाहिये।
- शिक्षकों के लिये निरंतर प्रशिक्षण: शिक्षकों को अपने छात्रों के नैतिक विकास को बेहतर ढंग से समझने के लिये मूल्यों और नैतिकता पर नियमित प्रशिक्षण करना चाहिये। शिक्षकों को आज छात्रों के सामने आने वाली बदलती जरूरतों तथा चुनौतियों से निपटने के तरीके के बारे में भी अपडेट रहना चाहिये।
- सकारात्मक प्रभाव डालना: शिक्षक का काम सिर्फ़ पढ़ाना ही नहीं है, बल्कि छात्रों को उनके व्यक्तिगत विकास में मार्गदर्शन देना भी है। अपने शिक्षण और मार्गदर्शन के ज़रिये, शिक्षक बच्चों में ईमानदारी, सहानुभूति तथा सामाजिक ज़िम्मेदारी जैसे सकारात्मक गुण विकसित करने में मदद कर सकते हैं।
मूल्यों को प्रदान करने में शैक्षिक संस्थानों के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?
- परस्पर विरोधी मूल्य प्रणालियाँ: बच्चों को परिवार, मीडिया, साथियों और स्कूलों से विभिन्न मूल्य प्रणालियों के बारे में पता चलता है। मीडिया से भौतिकवाद तथा हिंसा जैसे ये परस्पर विरोधी मूल्य स्कूलों के लिये सकारात्मक मूल्यों को सिखाना कठिन बनाते हैं।
- विविध छात्र पृष्ठभूमि: छात्र अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं, जिन्हें अक्सर व्यक्तिगत संघर्षों का सामना करना पड़ता है। ये चुनौतियाँ व्यवहार संबंधी समस्याओं को उत्पन्न कर सकती हैं, जिससे स्कूलों के लिये सुरक्षित तथा सहायक शिक्षण वातावरण बनाना कठिन हो जाता है।
- शैक्षणिक उपलब्धि पर ध्यान दें: कई स्कूल मुख्य रूप से शैक्षणिक सफलता पर ध्यान केंद्रित करते हैं और भावनात्मक तथा नैतिक विकास की उपेक्षा करते हैं। यह छात्रों के समग्र व्यक्तित्व के विकास को सीमित करता है, क्योंकि आवश्यक जीवन कौशल और मूल्यों को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।
- मीडिया और प्रौद्योगिकी का प्रभाव: हिंसक मीडिया और सोशल मीडिया के लगातार संपर्क में रहने से बच्चों के व्यवहार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। स्कूलों को छात्रों को मीडिया के साथ गंभीरता से जुड़ना तथा उनके मूल्यों एवं कार्यों पर इसके प्रभाव को समझना सिखाना चाहिये।
- शिक्षा का व्यावसायीकरण: शिक्षा के बढ़ते व्यावसायीकरण से छात्रों की भलाई से ध्यान हटकर लाभ पर चला जाता है। इस प्रवृत्ति से तनाव, प्रतिस्पर्द्धा और भावनात्मक एवं नैतिक विकास की उपेक्षा हो सकती है, जिससे शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य कमज़ोर हो सकता है।
आगे की राह
- घर और स्कूल के बीच सहयोगात्मक दृष्टिकोण: माता-पिता, शिक्षकों और समुदायों को बच्चों को भावनात्मक कल्याण तथा संघर्ष समाधान पर लगातार मार्गदर्शन प्रदान करने के लिये सहयोग करना चाहिये, साथ ही स्कूलों को घर पर एक सहायक प्रणाली बनाने के लिये माता-पिता को शामिल करना चाहिये।
- आक्रामकता के मूल कारणों को समझना: विघटनकारी व्यवहार को दंडित करने के बजाय, स्कूलों और अभिभावकों को अंतर्निहित कारणों को समझने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। बच्चे अक्सर जटिल भावनात्मक मुद्दों के कारण आक्रामक व्यवहार करते हैं। उन्हें अपने संघर्षों को साझा करने के लिये एक सुरक्षित मंच प्रदान करके, हम इन मूल कारणों को प्रभावी ढंग से संबोधित कर सकते हैं।
- शिक्षक प्रशिक्षण और जागरूकता: शिक्षकों को छात्रों में आक्रामकता और भावनात्मक संकट के शुरुआती लक्षणों को पहचानने के लिये प्रशिक्षित किया जाना चाहिये। इससे वे सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने और हिंसक व्यवहार को बढ़ने से पहले रोकने में सक्षम होंगे।
- सामाजिक-भावनात्मक शिक्षा (एसईएल) का एकीकरण: भावनात्मक बुद्धिमत्ता, सहानुभूति और संघर्ष समाधान को बढ़ावा देने के लिये सामाजिक-भावनात्मक शिक्षा (एसईएल) को पूरे पाठ्यक्रम में एकीकृत किया जाना चाहिये, जैसा कि भावनात्मक रूप से छात्रों के समग्र विकास तथा आक्रामकता को कम करने में फिनलैंड के सफल शिक्षा मॉडल द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
- भावनात्मक शब्दावली का निर्माण: स्कूलों को बच्चों को एक मज़बूत भावनात्मक शब्दावली बनाने में मदद करनी चाहिये, ताकि वे शारीरिक आक्रामकता का सहारा लेने के बजाय अपनी भावनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकें। परामर्श और भावनात्मक समर्थन प्रदान करने से बच्चों को अपनी भावनाओं को स्वस्थ तरीके से प्रबंधित करने में मदद मिल सकती है।