लैंगिक नैतिकता: नारीवाद और पितृसत्ता | 19 Mar 2024
जैसा कि हम हर वर्ष 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं, इस आलोक में नारीवाद, पितृसत्ता और हमारे समाज में समानता की खोज के बीच जटिल अंतर्संबंध का गहन नैतिक विश्लेषण करना आवश्यक है। नारीवाद के तहत लैंगिक समानता की वकालत करने के साथ पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती दी जाती है लेकिन यह स्वीकार करना महत्त्वपूर्ण है कि किसी भी आंदोलन की तरह, इसके सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही प्रभाव हो सकते हैं।
एक ओर नारीवाद ने लिंग-आधारित भेदभाव के बारे में जागरूकता बढ़ाने, महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा देने तथा अधिक समावेशी समाज को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे विधायी परिवर्तन होने के साथ विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के लिये अवसर बढ़े हैं तथा उनका सशक्तीकरण हुआ है।
हालाँकि यह पहचानना भी महत्त्वपूर्ण है कि नारीवाद के कुछ पहलू विभाजनकारी हो सकते हैं। कुछ आलोचकों का तर्क है कि कुछ नारीवादी आंदोलन विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं के अनुभवों एवं दृष्टिकोणों को प्राथमिकता देते हैं तथा यह LGBTQ+ एवं हाशिये पर स्थित समुदायों की उपेक्षा करते हैं। इसके अलावा नारीवादी विमर्श कभी-कभी पुरुषों के प्रति शत्रुता को बढ़ावा देने के साथ रूढ़िवादिता को कायम रख सकता है एवं लैंगिक समानता की दिशा में सहयोगात्मक प्रयासों में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
इसी तरह समाज पर पितृसत्ता का प्रभाव महिलाओं के दमन से कहीं आगे तक विस्तारित है। इससे पुरुषों पर पुरुषत्व की कठोर अपेक्षाओं को बढ़ावा मिलने से मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ होने के साथ सामाजिक दबाव एवं हानिकारक व्यवहारों को बढ़ावा मिलता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था उन पुरुषों को अलग-थलग कर सकती है जो पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं के अनुरूप नहीं हैं, जिससे उनकी भावनात्मक अभिव्यक्ति सीमित होने के साथ सार्थक संबंध बनाने की उनकी क्षमता बाधित हो सकती है।
हम यह किस प्रकार सुनिश्चित कर सकते हैं कि नारीवादी आंदोलन समावेशी होने के साथ सभी व्यक्तियों के समक्ष उत्पीड़न के विभिन्न रूपों को हल कर सकें? हम पितृसत्तात्मक मानदंडों को उन तरीकों से किस प्रकार चुनौती दे सकते हैं जो पुरुषों एवं महिलाओं, दोनों को प्रामाणिक और स्वतंत्र रूप से जीने के लिये सशक्त बनाते हैं? इन जटिल मुद्दों से निपटने के क्रम में सभी के लिये लैंगिक समानता तथा सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में व्यक्तियों एवं संस्थानों की नैतिक जिम्मेदारियाँ क्या हैं?