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शैक्षिक असमानता को संबोधित करने में नैतिक ज़िम्मेदारियाँ

  • 19 Nov 2024
  • 16 min read

11 नवंबर को मनाया जाने वाला राष्ट्रीय शिक्षा दिवस मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की जयंती का प्रतीक है, जो भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे, जिन्होंने शिक्षा को राष्ट्रीय प्रगति के लिये महत्त्वपूर्ण बताया था। भारत ने शिक्षा तक पहुँच बढ़ाने में पर्याप्त प्रगति की है, फिर भी सभी के लिये समान, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ बनी हुई हैं। वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (ASER) 2023 के अनुसार, लगभग 25% युवा अपनी क्षेत्रीय भाषा में कक्षा II-स्तर की पाठ्य सामग्री को धाराप्रवाह रूप से नहीं पढ़ सकते हैं और 50% से अधिक बुनियादी विभाजन (3-अंक से 1-अंक) के साथ संघर्ष करते हैं, जबकि 14-18 वर्ष के केवल 43.3% बच्चे ही इन समस्याओं को सही ढंग से हल कर पाते हैं। आर्थिक असमानताएँ, लैंगिक असमानता और क्षेत्रीय विभाजन इस अंतर को और बढ़ाते हैं, जो व्यक्तिगत भविष्य तथा राष्ट्रीय विकास दोनों को प्रभावित करते हैं। सतत् विकास लक्ष्य (SDG) 4 को प्राप्त करना वर्ष 2030 तक समावेशी, समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करना शिक्षा में समानता के नैतिक मुद्दों पर ध्यान देने की माँग करता है। ये असमानताएँ न केवल शिक्षा के सार्वभौमिक मानव अधिकार का उल्लंघन करती हैं, बल्कि गरीबी के चक्र को भी कायम रखती हैं, जो शिक्षा को सभी के लिये सुलभ बनाने की नैतिक अनिवार्यता को रेखांकित करती हैं।

गुणवत्तापूर्ण एवं किफायती शिक्षा तक समान पहुँच के संबंध में नैतिक दृष्टिकोण क्या हैं?

  • समानता का सिद्धांत: समानता की नैतिकता इस तर्क पर ज़ोर देती है कि प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, लिंग या भूगोल कुछ भी हो, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर मिलना चाहिये।
    • भारत में, जबकि शहरी क्षेत्रों और संपन्न परिवारों के छात्र उन्नत बुनियादी अवसरंचना के साथ विश्व स्तरीय निजी स्कूली शिक्षा का आनंद लेते हैं, कम आय वाले, ग्रामीण या हाशिये के समुदायों के बच्चों को अक्सर अपर्याप्त सुविधाओं वाले भीड़भाड़ वाले सरकारी स्कूलों में भेज दिया जाता है।
    • इस स्थिति से उत्पन्न होने वाला नैतिक प्रश्न यह है कि क्या यह उचित और न्यायसंगत है कि समृद्ध परिवारों या शहरी क्षेत्रों में जन्म लेने वाले बच्चों को गरीबी या ग्रामीण क्षेत्रों में जन्म लेने वाले बच्चों की तुलना में बेहतर शैक्षिक अवसर प्राप्त हों, जबकि यह असमानता केवल उनके जन्म की परिस्थितियों के कारण हो?
  • सामाजिक न्याय का सिद्धांत: एक नैतिक ढाँचे के रूप में सामाजिक न्याय की मांग है कि समग्र समाज यह सुनिश्चित करे कि सभी व्यक्तियों को अपनी पूरी क्षमता तक पहुँचने के लिये आवश्यक संसाधनों तक पहुँच मिले।
    • सरकार की नैतिक ज़िम्मेदारी इन प्रणालीगत असमानताओं को दूर करने में निहित है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी बच्चों को, चाहे उनकी जाति, वर्ग या लिंग कुछ भी हो, शिक्षा के अवसरों तक समान पहुँच मिले।
    • चुनौती जाति-आधारित और लिंग-आधारित असमानताओं जैसे सामाजिक भेदभाव को दूर करने में है, जो शिक्षा तक पहुँच को प्रतिबंधित करते हैं तथा असमानता को कायम रखते हैं।
  • राज्य का उत्तरदायित्व: राज्य का यह नैतिक दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि समाज के सबसे कम सुविधा प्राप्त सदस्यों को उनकी स्थिति सुधारने के लिये साधन उपलब्ध कराए जाएं।
    • शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये निशुल्क शिक्षा की गारंटी देने की प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करता है। हालाँकि, प्रदान की जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है, क्योंकि कई पब्लिक स्कूल अपर्याप्त वित्त पोषण, खराब शिक्षक गुणवत्ता और बुनियादी अवसरंचना की कमी के कारण संघर्ष कर रहे हैं।
    • नैतिक दृष्टिकोण से राज्य के लिये केवल शिक्षा तक पहुँच प्रदान करना ही पर्याप्त नहीं है, उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षा उच्च गुणवत्ता वाली हो तथा सभी बच्चों के लिये किफायती हो।

समावेशी एवं समग्र शिक्षा की आवश्यकता क्या है?

  • समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा: न्याय का सिद्धांत यह मांग करता है कि शिक्षा प्रणाली असमानताओं को दूर करे और सभी बच्चों को आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करे। भारत में, सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ, जाति-आधारित भेदभाव और क्षेत्रीय असंतुलन व्यापक शैक्षिक विभाजन उत्पन्न करते हैं।
    • निष्पक्षता और सामाजिक न्याय को बनाए रखने के लिये समान शिक्षा को यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी छात्रों को, विशेषकर हाशिये पर पड़े समुदायों को, अधिगम और व्यक्तिगत विकास के समान अवसर प्राप्त हों।
    • गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक समान पहुँच व्यक्तियों को सशक्त बनाती है, सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देती है तथा गरीबी और असमानता के चक्र को तोड़ने में सहायता करती है, जिससे अधिक न्यायपूर्ण एवं समावेशी समाज का निर्माण होता है।
    • सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में बढ़ती शिक्षा लागत, विशेष रूप से निम्न आय वाले परिवारों के छात्रों के लिये एक बड़ी चुनौती बन गई है।
    • नैतिक दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि सार्वजनिक और निजी दोनों शिक्षा प्रणालियों को इस प्रकार संरचित किया जाए कि वह किफायती और समावेशी हो, जिससे सभी के लिये बेहतर जीवन का मार्ग प्रशस्त हो सके।
  • नैतिक शिक्षा: ईमानदारी, सम्मान, सहानुभूति और ज़िम्मेदारी जैसे मूल्यों को विकसित करने के लिये नैतिक शिक्षा आवश्यक है। नैतिक दृष्टिकोण से, शिक्षा को न केवल अकादमिक ज्ञान प्रदान करना चाहिये, बल्कि नैतिक नागरिकों के विकास को भी बढ़ावा देना चाहिये जो समाज में सकारात्मक योगदान देते हैं।
    • नैतिक शिक्षा बच्चों को जटिल सामाजिक मुद्दों से निपटने तथा निष्पक्षता और करुणा पर आधारित निर्णय लेने में सहायता करती है।
    • यह सामाजिक सद्भाव, अधिकारों एवं गरिमा के प्रति सम्मान को बढ़ावा देता है और भारत के विविधतापूर्ण समाज में जाति, धर्म तथा लिंग के बीच एकता को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक है।
    • इसके अलावा, नैतिक शिक्षा के एक भाग के रूप में लैंगिक संवेदनशीलता पितृसत्ता को गहराई से संबोधित करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये  महत्त्वपूर्ण है।
    • सभी लिंगों के प्रति सम्मान की शिक्षा देकर यह रूढ़िवादिता को समाप्त करता है तथा लड़के और लड़कियों दोनों को भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती देने के लिये सशक्त बनाता है, जिससे एक समावेशी एवं न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा मिलता है, जहाँ सभी लिंगों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाता है।
  • व्यावसायिक प्रशिक्षण/कौशल विकास: बढ़ती प्रतिस्पर्धा वाली वैश्विक अर्थव्यवस्था में, व्यक्तियों को रोज़गार प्राप्त करने तथा उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिये व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास आवश्यक है।
    • कौशल विकास एक न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिये महत्त्वपूर्ण है, जहाँ लोगों को उनकी शैक्षिक पृष्ठभूमि के आधार पर आर्थिक अवसरों से वंचित नहीं रखा जाता।
    • निष्पक्षता तथा समान अवसर के नैतिक सिद्धांत यह निर्देश देते हैं कि गरीबी और बेरोज़गारी की बाधाओं को तोड़ने के लिये सभी, विशेषकर हाशिये पर पड़े समूहों को व्यावसायिक प्रशिक्षण तक पहुँच उपलब्ध होनी चाहिये।
  • किफायती शिक्षा: किफायती शिक्षा एक नैतिक अनिवार्यता है, क्योंकि आर्थिक बाधाएँ अक्सर योग्य छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अवसरों तक पहुँचने से रोकती हैं।
    • सामाजिक न्याय के लिये यह आवश्यक है कि शिक्षा सभी के लिये सार्वभौमिक अधिकार हो, चाहे उनकी वित्तीय स्थिति कुछ भी हो।
  • पर्यावरण शिक्षा: नैतिक दृष्टिकोण से पर्यावरण शिक्षा ग्रह और भावी पीढ़ियों के प्रति ज़िम्मेदारी की भावना उत्पन्न करने के लिये महत्त्वपूर्ण है। प्रबंधन और स्थिरता के नैतिक सिद्धांतों की मांग है कि व्यक्ति पर्यावरण की रक्षा के लिये अपने कर्त्तव्य को पहचानें। 
    • जब पर्यावरण क्षरण व्यापक हो रहा हो, तो विद्यार्थियों को असंवहनीय प्रथाओं के परिणामों तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के महत्त्व के विषय में शिक्षित करना आवश्यक है।
    • पर्यावरण शिक्षा पारिस्थितिक न्याय के विषय में जागरूकता को बढ़ावा देती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि भावी पीढ़ियों को जीवन को बनाए रखने में सक्षम विश्व विरासत में मिले।
    • यह ज़िम्मेदार व्यवहार को प्रोत्साहित करता है और छात्रों को नैतिक निर्णय लेने के लिये सशक्त बनाता है जो पर्यावरण संरक्षण में योगदान देता है।
    • इस शिक्षा के माध्यम से छात्र सभी के लिये ग्रह का कल्याण सुनिश्चित करने वाली स्थायी प्रथाओं के प्रति एक मज़बूत नैतिक प्रतिबद्धता विकसित कर सकते हैं।

आगे की राह क्या होनी चाहिये?

  • नीति निर्माताओं (और सिविल सेवकों) की ज़िम्मेदारी
    • शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार: नीति निर्माताओं का यह नैतिक दायित्व है कि वे यह सुनिश्चित करें कि प्रत्येक बच्चे को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा मिले, जो आलोचनात्मक सोच, जीवन कौशल और आधुनिक बुनियादी अवसरंचना को बढ़ावा दे।
    • सामाजिक-आर्थिक और क्षेत्रीय विषमताओं से निपटना: नीति निर्माताओं को छात्रवृत्ति, बुनियादी अवसरंचना एवं दूरदराज के क्षेत्रों के लिये लक्षित नीतियों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक और क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करना चाहिये साथ ही जाति-आधारित तथा लिंग-आधारित भेदभाव को भी समाप्त करना चाहिये।
    • शिक्षा को किफायती बनाना: शिक्षा एक सार्वभौमिक अधिकार होना चाहिये न कि विशेषाधिकार। कम से कम सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में फीस को विनियमित करें और सार्वजनिक शिक्षा के लिये वित्तपोषण में वृद्धि करें ताकि इसे सभी के लिये किफायती बनाया जा सके।
    • व्यावसायिक और कौशल विकास: नौकरी हेतु तैयार कौशल प्रदान करने के लिये व्यावसायिक शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण का विस्तार करना, गैर-शैक्षणिक क्षेत्रों के लिये आर्थिक न्याय तथा व्यक्तिगत विकास सुनिश्चित करना।
    • नैतिक और लैंगिक संवेदनशीलता: सम्मान, समानता और ज़िम्मेदारी को बढ़ावा देने के लिये नैतिक शिक्षा तथा लैंगिक संवेदनशीलता को पाठ्यक्रम में शामिल करना।
    • पर्यावरण शिक्षा: स्थिरता, जलवायु परिवर्तन और संसाधन संरक्षण के लिये  ज़िम्मेदारी को बढ़ावा देने के लिये पर्यावरण जागरूकता को एकीकृत करना।
  • शिक्षा तक पहुँच को बढ़ावा देने में समग्र समाज की ज़िम्मेदारी
    • शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार: समाज को स्वयंसेवी कार्य, अनुदान संचयन तथा सभी के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के महत्त्व के विषय में जागरूकता बढ़ाकर शैक्षिक संस्थानों को सक्रिय रूप से समर्थन देना चाहिये।
    • नैतिक और लिंग संवेदनशीलता: सामुदायिक संगठन और स्थानीय नेता शैक्षिक अवसर प्राप्त करने में लैंगिक समानता को बढ़ावा दे सकते हैं।
    • पर्यावरण शिक्षा: स्थानीय समुदाय, अभिभावक और गैर सरकारी संगठन पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं तथा स्थिरता को बढ़ावा दे सकते हैं।
    • अभिभावकों की सहभागिता: अभिभावकों को स्कूलों के साथ सहभागिता करनी चाहिये, घर पर पढ़ाई का समर्थन करना चाहिये तथा सभी बच्चों के लिये बेहतर शैक्षिक अवसरों का समर्थन करना चाहिये।

निष्कर्ष

राष्ट्रीय शिक्षा दिवस हमें सभी को समान, गुणवत्तापूर्ण और किफायती शिक्षा प्रदान करने की नैतिक ज़िम्मेदारी की याद दिलाता है। जैसे-जैसे भारत आगे बढ़ रहा है, उसे पहुँच, सामर्थ्य और गुणवत्ता में प्रणालीगत असमानताओं को दूर करना होगा। समानता, सामाजिक न्याय और राज्य की ज़िम्मेदारी जैसे नैतिक ढाँचे कार्रवाई की माँग करते हैं। नैतिक शिक्षा, लैंगिक संवेदनशीलता, व्यावसायिक प्रशिक्षण और पर्यावरण जागरूकता को एकीकृत करने से भावी पीढ़ियाँ सशक्त होंगी, गरीबी के चक्र को तोड़ा जा सकेगा तथा एक न्यायपूर्ण समावेशी समाज का निर्माण होगा।

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