पर्यावरण संरक्षण का नैतिक परिदृश्य | 06 Nov 2024

बढ़ते पारिस्थितिकी संकट के कारण पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी नैतिक बहस निरंतर बढ़ती जा रही है। वर्ष 2024 तक भारत में लगभग 1.3 बिलियन लोग यानी लगभग 96% आबादी PM 2.5 के स्तर के संपर्क में है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों से सात गुना अधिक है। पराली जलाना, शहरी क्षेत्रों में वाहनों से होने वाला उत्सर्जन तथा औद्योगिक प्रदूषण जैसे कारक इस भयावह वायु गुणवत्ता की स्थिति को और बढ़ा देते हैं, विशेषकर सर्दियों के महीनों में गंगा के मैदानी इलाकों में, ग्रीनपीस इंडिया की 6वीं वार्षिक विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट में नई दिल्ली को सबसे प्रदूषित राजधानी शहर का दर्जा दिया गया है।

ISRO के हालिया उपग्रह डेटा से पता चलता है कि 2,431 ग्लेशियल झीलों में से 676 पिघलने के कारण आकार में काफी बढ़ गई हैं, जो जलवायु संकट की तात्कालिकता को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, 25 दिसंबर 1971 से 1 अगस्त 2024 तक अर्थ ओवरशूट डे (वह दिन जब मानवता द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की खपत किसी दिये गए वर्ष में उन्हें पुनर्जीवित करने की पृथ्वी की क्षमता से अधिक हो जाती है) में बदलाव अस्थिर उपभोग पैटर्न को रेखांकित करता है।

हिमालय क्षेत्र, जिसे "थर्ड पोल" कहा जाता है, में अद्वितीय चुनौतियाँ उत्पन्न हो रही हैं, जिनमें बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) शामिल हैं, जैसा कि अक्तूबर 2023 में सिक्किम में ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट से स्पष्ट है। चिंताजनक रूप से, संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि प्रवासी प्रजातियों पर कन्वेंशन के तहत सूचीबद्ध 44% प्रवासी प्रजातियाँ जनसंख्या में गिरावट का अनुभव कर रही हैं, जो विलुप्त होने के बढ़ते जोखिम का संकेत है। साथ में, ये कारक न केवल मानव स्वास्थ्य के लिये बल्कि भविष्य की पीढ़ियों और सुभेद्य पारिस्थितिकी प्रणालियों के लिये नैतिक दायित्व के रूप में पर्यावरण की रक्षा करने की नैतिक अनिवार्यता पर ज़ोर देते हैं।

पर्यावरण संरक्षण नैतिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्यों है?

  • पर्यावरण नैतिकता: पर्यावरण संरक्षण इस विश्वास पर आधारित है कि प्राकृतिक विश्व की रक्षा करना मनुष्य का नैतिक कर्त्तव्य है। यह नैतिक ज़िम्मेदारी पारिस्थितिकी तंत्र, वन्यजीवन और जैव विविधता के आंतरिक मूल्य को स्वीकार करती है।
    • संरक्षण यह सुनिश्चित करता है कि हम प्रकृति के अधिकारों का सम्मान करें और अपने पर्यावरण को होने वाली अपरिवर्तनीय क्षति को रोकें, यह स्वीकार करते हुए कि प्रत्येक सजीव का अपना एक अंतर्निहित मूल्य है।
  • उत्तरदायित्व का सिद्धांत: वर्तमान और भावी दोनों पीढ़ियों के कल्याण के लिये पर्यावरण का प्रबंधन और संरक्षण करना हमारा नैतिक दायित्व है।
    • यह सिद्धांत वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और आवास विनाश जैसे मुद्दों के समाधान के लिये ज़िम्मेदार कार्रवाई का आह्वान करता है।
  • सभी सजीवों के बीच संसाधनों का न्यायसंगत बंटवारा: जल, भूमि और स्वच्छ वायु सहित प्राकृतिक संसाधनों को मानव, वन्यजीव तथा भावी पीढ़ियों सहित सभी प्रजातियों के बीच समान रूप से साझा किया जाना चाहिये।
    • पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करता है कि संसाधनों का असंवहनीय या अनुपातहीन रूप से दोहन न हो, विशेषकर सुभेद्य समुदायों के लिये।
    • उदाहरण के लिये, जल की कमी और प्रदूषण अक्सर हाशिये पर पड़े समूहों को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, जिससे संसाधन वितरण में निष्पक्षता के नैतिक सिद्धांत का उल्लंघन होता है।
  • सामूहिक वैश्विक उत्तरदायित्व: जलवायु परिवर्तन, निर्वनीकरण और जैव विविधता की हानि सहित पर्यावरणीय क्षरण के लिये सामूहिक वैश्विक कार्रवाई की आवश्यकता है।
    • नैतिक संरक्षण इस बात पर बल देता है कि सभी राष्ट्रों को, चाहे उनकी आर्थिक या औद्योगिक स्थिति कुछ भी हो, पर्यावरण संरक्षण की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये।
    • जलवायु संकट को अकेले हल नहीं किया जा सकता, देशों को एक साथ कार्य करना चाहिये, ज्ञान साझा करना चाहिये और सभी के लिये एक स्थायी भविष्य सुनिश्चित करने हेतु एकजुटता से कार्य करना चाहिये।
  • भावी पीढ़ियों के प्रति कर्त्तव्य और अंतर-पीढ़ी समानता: अंतर-पीढ़ी समानता इस बात पर बल देती है कि भावी पीढ़ियों के लिये पर्यावरण और उसके संसाधनों को संरक्षित करना हमारा नैतिक कर्त्तव्य है।
    • संरक्षण संबंधी कार्य यह सुनिश्चित करते हैं कि हमारे आज के कार्यों से भावी पीढ़ियों की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता पर कोई असर न पड़े।
    • संसाधनों का ज़िम्मेदारी से प्रबंधन करके और पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा करके हम भावी पीढ़ियों के लिये जीवन को सहारा देने में सक्षम ग्रह छोड़ने की अपनी नैतिक प्रतिबद्धता को पूरा करते हैं।
  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: प्रदूषण, आवास विनाश और संसाधनों की कमी सार्वजनिक स्वास्थ्य को खतरे में डालती है, गरिमा का उल्लंघन करती है और महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच को रोकती है, जो स्वच्छ पर्यावरण के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
    • वायु प्रदूषण केवल एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट नहीं है, यह प्रकृति के प्रति हमारे नैतिक दायित्व का उल्लंघन है तथा भावी पीढ़ियों को स्वच्छ वायु उपलब्ध कराने का भी उल्लंघन है।
    • भारत में जल प्रदूषण से साझा संसाधनों की उपेक्षा, सुभेद्य समुदायों को नुकसान, पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति तथा स्वच्छ जल के अधिकार का उल्लंघन जैसी नैतिक चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
    • भारत में मानव-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि एक नैतिक दुविधा को उजागर करती है, क्योंकि शहरीकरण प्राकृतिक आवासों पर अतिक्रमण कर रहा है, जिससे वन्यजीवों के सह-अस्तित्व और विकास के अधिकारों से समझौता हो रहा है।

पर्यावरण संरक्षण पर विभिन्न दृष्टिकोण क्या हैं?

  • सामूहिक ज़िम्मेदारी: जेम्स मिल के अन्य लोगों के प्रति कार्रवाई के विचार पर ज़ोर देते हुए पर्यावरण संरक्षण के लिये  पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा हेतु सामाजिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। इसमें हमारे कार्यों की परस्पर संबद्धता और सुभेद्य समुदायों तथा भावी पीढ़ियों पर उनके प्रभाव को पहचानना शामिल है।
    • उदाहरण के लिये, उपभोक्तावाद की नैतिक चिंता, पर्यावरण को होने वाली हानि को न्यूनतम करने तथा स्थिरता को बढ़ावा देने के समाज के कर्त्तव्य पर केंद्रित है, जिसमें उपभोक्ता की आदतों का पारिस्थितिकी तंत्र एवं समग्र समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को संबोधित किया जाता है तथा व्यवसायों की पर्यावरण अनुकूल प्रथाओं को अपनाने की ज़िम्मेदारी पर भी ध्यान दिया जाता है।
  • मानव-केंद्रित दृष्टिकोण: प्रदूषण से होने वाले प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभाव मानव कल्याण में सुधार के लिये संरक्षण प्रयासों को उचित ठहराते हैं।
    • कुछ महानगरीय क्षेत्रों में प्रदूषण के उच्च स्तर को देखते हुए, मानव-केंद्रित दृष्टिकोण से संरक्षण के लिये नैतिक तर्क सार्वजनिक स्वास्थ्य प्राथमिकता के रूप में स्वच्छ परिवेश पर ज़ोर  देने के लिये मज़बूर करता है।
  • पारिस्थितिक केंद्रित परिप्रेक्ष्य: दार्शनिक आर्ने नेस का गहन पारिस्थितिकी आंदोलन सभी सजीवों के आंतरिक मूल्य को बढ़ावा देता है तथा तर्क देता है कि पारिस्थितिक तंत्र और प्रजातियों के पास मानवीय आवश्यकताओं से स्वतंत्र अधिकार हैं।
    • यह पारिस्थितिकी केंद्रित दृष्टिकोण यह सुझाव देता है कि पर्यावरण संरक्षण न केवल मानव लाभ के लिये बल्कि सभी जीवन रूपों और पारिस्थितिकी प्रणालियों के आंतरिक मूल्य हेतु एक नैतिक दायित्व है।
  • पारिस्थितिक नारीवाद/इकोफेमिनिज्म: पारिस्थितिक नारीवाद का तर्क है कि प्रकृति का शोषण महिलाओं के पितृसत्तात्मक शोषण के समान है।
    • यह पर्यावरण शासन में कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों, विशेषकर महिलाओं की भागीदारी का समर्थन करता है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि विभिन्न दृष्टिकोण संरक्षण पहलों को प्रभावित करते हैं।
    • इकोफेमिनिज्म प्रकृति के साथ स्नेहपूर्ण संबंध को बढ़ावा देता है तथा ऐसी संरक्षण प्रथाओं का समर्थन करता है जो पारिस्थितिक स्वास्थ्य और सामुदायिक कल्याण को प्राथमिकता देते हैं।

पर्यावरण संरक्षण के लिये आगे की राह क्या होनी चाहिये?

  • नैतिक शासन और नैतिक नेतृत्व: पर्यावरण संरक्षण में नैतिक शासन और नैतिक नेतृत्व निर्णय लेने में पारदर्शिता तथा जवाबदेही पर ज़ोर देता है।
    • समुदायों को शामिल करने वाली सूचनाओं तक खुली पहुँच सुनिश्चित करके और उद्योगों को जवाबदेह बनाकर अभिकर्त्ता विश्वास को बढ़ावा दे सकते हैं तथा स्थायी कार्रवाई को आगे बढ़ा सकते हैं।
    • यह दृष्टिकोण दीर्घकालिक पर्यावरण संरक्षण, न्यायसंगत संसाधन प्रबंधन और संरक्षण कानूनों का निष्पक्ष प्रवर्तन सुनिश्चित करता है।
  • वैश्विक शासन और CBDR: पर्यावरण संरक्षण में वैश्विक शासन, सामान्य लेकिन विभेदित उत्तरदायित्व (CBDR) की धारणा को मज़बूत करता है, जो राष्ट्रों की विविध क्षमताओं को स्वीकार करता है।
    • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, समान संसाधन साझाकरण और अनुरूप जलवायु प्रतिबद्धताओं को बढ़ावा देकर वैश्विक शासन समावेशी समाधानों को बढ़ावा देता है।
    • निचले स्तरों पर भी स्थानीय क्षमताओं और उत्तरदायित्व के बीच संतुलन बनाए रखने वाली निष्पक्ष पर्यावरणीय नीतियों को सुनिश्चित करने के लिये समान सिद्धांत लागू होने चाहिये।
  • विनियमन और प्रवर्तन को सुदृढ़ बनाना: सरकारों को पर्यावरण संबंधी कठोर कानून बनाने चाहिये जिसमें उल्लंघनकर्त्ताओं के लिये कठोर दंड का प्रावधान हो।
    • राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) जैसी संस्थाओं को उल्लंघनों के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई करने के लिये सशक्त बनाने से जवाबदेही बढ़ेगी तथा हानिकारक प्रथाओं पर रोक लगेगी।
  • हरित प्रौद्योगिकियों में निवेश: जलवायु परिवर्तन से निपटने और पर्यावरणीय क्षति को कम करने के लिये नवीकरणीय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहनों तथा संधारणीय कृषि पद्धतियों में निवेश को प्राथमिकता देना महत्त्वपूर्ण है।
    • ये नवाचार जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम कर सकते हैं और निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण को बढ़ावा दे सकते हैं।
  • सामुदायिक सशक्तीकरण और शिक्षा: स्थानीय समुदायों को प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में सक्रिय रूप से शामिल होना चाहिये, जैसा कि संयुक्त वन प्रबंधन (JFM) जैसी पहलों से स्पष्ट है।
    • शिक्षा प्रणालियों को पर्यावरण साक्षरता को भी बढ़ावा देना चाहिये, ताकि व्यक्तियों को कम उम्र से ही सतत् निर्णय लेने और पर्यावरण-अनुकूल प्रथाओं में संलग्न होने के लिये आवश्यक ज्ञान उपलब्ध कराना चाहिये।
    • ज़मीनी स्तर के आंदोलन सफल स्थानीय पहलों का प्रदर्शन करके लोगों को संरक्षण प्रयासों का स्वामित्व लेने के लिये प्रेरित कर सकते हैं जिन्हें अन्यत्र दोहराया जा सकता है।
  • ज़िम्मेदार उपभोग पैटर्न को बढ़ावा देना: समाज को ऐसे नियमों के साथ न्यूनतमवाद और ज़िम्मेदार उपभोक्तावाद को अपनाना चाहिये जो पुनर्चक्रण को प्रोत्साहित करें, एकल-उपयोग प्लास्टिक को कम करें तथा सतत् विकल्पों को बढ़ावा दें। यह सांस्कृतिक बदलाव अपशिष्ट उत्पादन और उसके पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने में सहायता करेगा।
  • विकास और पर्यावरणीय प्रबंधन में संतुलन: सतत् विकास में शहरी नियोजन, कृषि और उद्योग सहित सभी क्षेत्रों में पर्यावरणीय विचारों के एकीकरण को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
    • हरित अवसंरचना, वृत्तीय अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों और सतत् पर्यटन को अपनाकर समाज पारिस्थितिकी अखंडता से समझौता किये बिना आर्थिक विकास को आगे बढ़ा सकता है, जिससे भावी पीढ़ियों के लिये एक व्यवहार्य ग्रह सुनिश्चित हो सके।

निष्कर्ष

पर्यावरण संरक्षण में नैतिक चिंताओं को संबोधित करने के लिये तत्काल सामूहिक कार्रवाई की आवश्यकता है। मानव स्वास्थ्य, पारिस्थितिक अखंडता और सामाजिक समानता के परस्पर संबंध को पहचानना महत्त्वपूर्ण है। सरकारों को सख्त नियम लागू करने चाहिये और समुदायों को स्थायी संसाधन प्रबंधन के लिये  सशक्त बनाना चाहिये जबकि शिक्षा पर्यावरण जागरूकता को बढ़ावा देती है। ज़िम्मेदार उपभोग और सार्वजनिक प्रवचन ज़मीनी स्तर की पहलों को संगठित करने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। जैसा कि मार्गरेट मीड ने कहा "कभी भी इस बात पर संदेह न करें कि विचारशील एवं प्रतिबद्ध नागरिकों का एक छोटा समूह विश्व को बदल सकता है।।" अथर्ववेद का संस्कृत वाक्यांश, "माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या" (पृथ्वी मेरी माँ है और मैं उसका बच्चा हूँ) पर्यावरण की देखभाल करने के हमारे कर्त्तव्य को दर्शाता है। नैतिक विचारों को प्राथमिकता देकर हम अपने ग्रह की रक्षा कर सकते हैं और इसके सभी निवासियों के अधिकारों को बनाए रख सकते हैं।