पर्यावरण बनाम विकास - एक नैतिक चर्चा | 03 Jul 2024

वर्तमान में जनसंख्या वृद्धि, विकास की आवश्यकताओं, उपभोक्तावाद संस्कृति और आपदाओं के साथ हम अपने युग की एक गंभीर चुनौती का सामना कर रहे हैं, जो पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास के बीच नाजुक संतुलन बनाए रखने की है। यह बहस केवल एक बौद्धिक अभ्यास नहीं है, बल्कि ग्रह और भावी पीढ़ी के प्रति हमारी ज़िम्मेदारियों का आत्मनिरीक्षण है।

विकास का महत्त्व क्या है?

आर्थिक संवृद्धि

  • आर्थिक संवृद्धि मानव विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह देशों को गरीबी से बाहर निकालने में सहायता करता है, आवश्यक सेवाएँ प्रदान करता है और रचनात्मकता को बढ़ावा देता है।
  • आर्थिक संवृद्धि से रोज़गार सृजन, मानव पूंजी विकास, कर राजस्व में वृद्धि और बेहतर बुनियादी ढाँचे को बढ़ावा मिलता है, जिससे विकास चक्र को बढ़ावा मिलता है।
  • स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, साथ ही औद्योगिक क्षेत्र जैसे सामाजिक क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे का विकास सामाजिक कल्याण और उत्पादकता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • यह बेहतर कनेक्टिविटी, समावेशी विकास और संसाधनों के समान वितरण को भी सुनिश्चित करता है।

तकनीकी प्रगति

  • विकास से तकनीकी नवाचार को बढ़ावा मिलता है जो मानव विकास और सामाजिक प्रगति को सुगम बनाता है।
  • उदाहरण के लिये नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी में भारत की प्रगति, विशेष रूप से राष्ट्रीय सौर मिशन के माध्यम से , सतत विकास के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है।

समावेशी विकास 

  • समावेशी विकास का अर्थ है आर्थिक संवृद्धि जो समान अवसर उत्पन्न करती है और गरीबी की दर को  कम करने में सहायता करता है, जिसे वैश्विक स्तर पर समग्र विकास परियोजनाओं के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
  • सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी विकास के बिना समावेशी विकास संभव नहीं है।

पर्यावरण का महत्त्व क्या है?

  • जैवविविधता: प्रजातियों की विविधता पारिस्थितिकी तंत्र का लचीलापन और स्थिरता सुनिश्चित करती है। यह परागण, कीट नियंत्रण और पोषक चक्रण जैसे पारिस्थितिकी तंत्र कार्यों का समर्थन करता है, जो खाद्य उत्पादन और प्राकृतिक आवासों को बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
  • जलवायु विनियमन : वन, महासागर और आर्द्रभूमि जैसे प्राकृतिक वातावरण वैश्विक जलवायु पैटर्न को विनियमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों को अवशोषित करते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और पृथ्वी की जलवायु प्रणाली को स्थिर करने में सहायता मिलती है।
  • सांस्कृतिक और मनोरंजक मूल्य: प्राकृतिक परिदृश्य और जैवविविधता विश्वभर में सांस्कृतिक पहचान, परंपराओं और आध्यात्मिक प्रथाओं में योगदान करते हैं। वे मनोरंजन, पर्यटन और सौंदर्य आनंद के अवसर प्रदान करते हैं, मानव जीवन को समृद्ध करते हैं और मानसिक कल्याण को बढ़ावा देते हैं।
  • आर्थिक लाभ: कृषि, मत्स्य पालन, वानिकी और पर्यटन जैसे उद्योग अपनी आर्थिक गतिविधियों के लिये स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं। पर्यावरणीय क्षरण से उत्पादकता में कमी, लागत में वृद्धि और आर्थिक नुकसान हो सकता है, जो धारणीय संसाधन प्रबंधन के महत्त्व पर जोर देता है।
  • नैतिक विचार: कई संस्कृतियाँ और नैतिक ढाँचे प्रकृति के आंतरिक मूल्य को पहचानते हैं और संरक्षण, जैवविविधता के प्रति सम्मान और अंतर-पीढ़ीगत समानता के सिद्धांतों के आधार पर इसके संरक्षण की वकालत करते हैं। पर्यावरण का संरक्षण करना सभी जीवित प्राणियों और भावी पीढ़ियों की भलाई सुनिश्चित करने के लिये एक नैतिक दायित्व के रूप में देखा जाता है।

अंधाधुंध विकास पर्यावरण को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है?

  • बारंबार आपदाओं का प्रभाव:
    • भू-खनन, पर्वतों को दरकाने और नदियों को पाटने से संबंधित बुनियादी ढांचे के विकास जैसी विकास परियोजनाओं ने प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं से होने वाली क्षति की तीव्रता को बढ़ा दिया है।
    • उदाहरण के लिये , हाल के वर्षों में अत्यधिक वर्षा की घटनाएं बढ़ी हैं, जो 2023 में हिमाचल प्रदेश में बाढ़ के रूप में और पिछले कुछ वर्षों में हैदराबाद और चेन्नई जैसे शहरों में शहरी बाढ़ के रूप में अपना प्रकोप दिखा रही है।
  • प्रदूषण में वृद्धि:
    • विकास से जुड़ी प्रमुख चिंताओं में से एक है सभी प्रकार के प्रदूषण का कारण जो हमारे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं।
    • उदाहरण के लिये , शिकागो विश्वविद्यालय के ऊर्जा नीति संस्थान द्वारा 2023 के लिये वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (AQLI) रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार, वायु प्रदूषण दिल्ली के निवासियों के जीवन को लगभग 11.9 वर्ष कम कर देता है।
  • पर्यावरण क्षरण:
    • चूँकि प्रकृति मुफ़्त है, हम प्रायः इसे हल्के में लेते हैं और इसका अत्यधिक दोहन करते हैं।
    • विकास गतिविधियों के कारण आवास क्षति और क्षरण हुआ है, जिसके कारण वनों की कटाई, मानव-पशु संघर्ष और जूनोटिक रोग जैसी समस्याएँ में वृद्धि हुई है।
  • ग्लोबल वार्मिंग:
    • आज विश्व के समक्ष सबसे प्रमुख समस्याओं में से एक ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्पन्न जलवायु परिवर्तन है।
    • तीव्र औद्योगिकीकरण तथा अत्यधिक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन ने ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दिया है।

अंधाधुंध विकास से जुड़े नैतिक विचार क्या हैं?

  • पारिस्थितिकीय मूल्य, जो प्रकृति और जैवविविधता की हमारी समझ पर आधारित हैं, हमारे विश्व के प्राकृतिक स्वास्थ्य, संरक्षण और स्थिरता के लिये आवश्यक हैं।
    • बिना किसी बाधा के विकास इन मूल्यों के लिये हानिकारक है क्योंकि विकास के नाम पर हम वनों की कटाई और गहरे वन क्षेत्रों में घुसपैठ जैसी गतिविधियों के ज़रिए प्रकृति को नुकसान पहुँचाते हैं। 
    • उदाहरण के लिये, मुंबई में मेट्रो परियोजना में आरे वन क्षेत्र के केंद्र में कार शेड निर्माण के लिये पेड़ों की कटाई शामिल थी जिसे न्यायालयों  के हस्तक्षेप के बाद ही रोका गया था।
  • इसके अलावा, स्थिरता के नाम पर, हम "ग्रीनवाशिंग" में संलग्न हो जाते हैं - जो एक भ्रामक पद्वति है,जिसमें कंपनियाँ या यहाँ तक कि सरकारें जलवायु परिवर्तन को कम करने पर अपने कार्यों और अपने प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करती हैं, प्रायः भ्रामक जानकारी प्रदान करती हैं या निराधार दावे प्रस्तुत करती हैं।
  • उपभोक्तावाद एक और चुनौती है जो स्थिरता और हमारे लालच को पूरा करने के लिये पर्यावरण को होने वाले नुकसान को नजरअंदाज करती है।

पर्यावरण बनाम विकास विवाद पर दार्शनिक दृष्टिकोण

उपयोगितावाद बनाम कर्त्तव्यवाद:

  • उपयोगितावाद: यह कार्यों का उनके परिणामों के आधार पर मूल्यांकन करता है, जिसका उद्देश्य समग्र शुभ या उपयोगिता को अधिकतम करना है। कुछ परिस्थितियों में, उपयोगितावाद सख्त पर्यावरण संरक्षण से ऊपर विकास का समर्थन कर सकता है:
    • लागत-लाभ विश्लेषण: उपयोगितावाद विकास परियोजनाओं का मूल्यांकन समाज को उनके निवल लाभ के आधार पर करेगा। उदाहरण के लिये, बांध बनाने से स्वच्छ ऊर्जा, सिंचाई के लिये जल और आर्थिक विकास हो सकता है, जो आवास के नुकसान जैसी पर्यावरणीय लागतों से अधिक है।
    • कल्याण को बढ़ावा देना: शहरी विस्तार के मामले में, भले ही इसके परिणामस्वरूप कुछ पर्यावरण के स्तर में कमी हो, यह गरीबी को कम करने और जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के लिये बुनियादी ढाँचे के विकास के पक्ष में हो सकता है।
    • दुविधा और शमन : उपयोगितावाद दुविधा  को मान्यता देता है लेकिन नकारात्मक प्रभावों को कम करने का प्रयास करता है। यह उन विनियमों और प्रौद्योगिकियों की वकालत कर सकता है जो पर्यावरणीय क्षरण  को कम करते हैं, जैसे कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र और वैकल्पिक स्थलों पर वनरोपण आदि।
  • कर्त्तव्यशास्त्र: कर्तव्यशास्त्रीय नैतिकता परिणामों की चिंता किये बिना कर्त्तव्यों, अधिकारों और नैतिक सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करती है।
    • अधिकार और कर्त्तव्य: यह भविष्य की पीढ़ियों के प्रति नैतिक ज़िम्मेदारियों और पारिस्थितिकी तंत्र और प्रजातियों के अस्तित्त्व और विकास के अधिकारों के पक्ष में तर्क देता है।
    • आंतरिक मूल्य: कर्त्तव्यशास्त्र इस बात पर जोर देता है कि प्रकृति में मानव उपयोगिता से स्वतंत्र अंतर्निहित मूल्य है, जो पर्यावरण के संरक्षण करने के कर्त्तव्य पर जोर देता है।
    • न्याय और निष्पक्षता: यह पर्यावरणीय लाभ और भार के न्यायसंगत वितरण की वकालत करता है, उन कार्यों की आलोचना करता है जो असुरक्षित समुदायों को असंगत रूप से नुकसान पहुँचाते हैं।

मानव-केंद्रित बनाम पारिस्थितिकी-केंद्रित:

  • मानव-केंद्रित: यह नैतिक विचारों के केंद्र में मानव को रखता है, मानव हितों और कल्याण को प्राथमिक नैतिक चिंता के रूप में देखता है। यह दृष्टिकोण प्रायः पर्यावरण संरक्षण पर आर्थिक विकास और मानव विकास को प्राथमिकता देता है:
    • मानव कल्याण: मानव-केंद्रित आर्थिक विकास के माध्यम से मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार के महत्त्व पर जोर देती है। यह तर्क देता है कि संसाधनों का उपयोग मनुष्यों के लाभ के लिये किया जाना चाहिये, जिसमें औद्योगीकरण, बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं और शहरी विस्तार के माध्यम से उपयोग करना शामिल है।
    • प्रकृति का साधनात्मक महत्त्व: प्रकृति का महत्त्व मुख्य रूप से मनुष्यों के लिये इसकी उपयोगिता के कारण है। उदाहरण के लिये, जंगलों को लकड़ी के स्रोत के रूप में देखा जाता है, जैवविविधता को दवा या कृषि के लिये संभावित संसाधनों के रूप में और पारिस्थितिकी तंत्र को स्वच्छ जल और वायु जैसी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के प्रदाता के रूप में देखा जाता है।
    • लागत-लाभ विश्लेषण: निर्णय प्रायः लागत-लाभ विश्लेषण पर आधारित होते हैं, जिसमें पर्यावरणीय प्रभावों के विरुद्ध आर्थिक लाभ का मूल्यांकन किया जाता है। यदि आर्थिक लाभ (जैसे, रोज़गार, आर्थिक वृद्धि) लागत से अधिक हैं, तो मानव-केंद्रित दृष्टिकोण पर्यावरणीय क्षरण  को उचित ठहरा सकते हैं।
  • पारिस्थितिकी-केंद्रित: यह पारिस्थितिकी तंत्र को नैतिक विचार के केंद्र में रखता है और मानव-केंद्रित दृष्टिकोण को चुनौती देता है। यह दृष्टिकोण प्रकृति को अंतर्निहित मूल्य के रूप में स्थापित करता है, जो मनुष्यों के लिये इसकी उपयोगिता से स्वतंत्र है और पर्यावरण संरक्षण की वकालत करता है:
    • प्रकृति का अंतर्निहित मूल्य: पारिस्थितिकी तंत्र, प्रजातियों और जीवों के अस्तित्त्व और विकास के अंतर्निहित अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। यह जैवविविधता, पारिस्थितिकी तंत्र और प्राकृतिक प्रक्रियाओं को उनके स्वयं के हित के लिये संरक्षित करने को प्राथमिकता देता है।
    • समग्र दृष्टिकोण: पारिस्थितिकी तंत्र की परस्पर संबद्धता और पारिस्थितिकी संतुलन और लचीलापन बनाए रखने के महत्त्व पर विचार करता है। यह प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र की दीर्घकालिक स्थिरता पर जोर देता है।
    • निवारक सिद्धांत: सावधानी और पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने का विचार निर्णय लेने के दिशा-निर्देशों के रूप में कार्य करते हैं। पारिस्थितिकी-केंद्रित दृष्टिकोणों के लिये पर्यावरणीय क्षरण  को रोकना, उसके घटित होने के बाद उसे कम करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।

पर्यावरण और विकास में संतुलन के संबंध में समिति की सिफारिशें क्या हैं?

  • संयुक्त राष्ट्र ब्रुन्डलैंड आयोग ने वर्ष 1987 में पर्यावरण और आर्थिक विकास के बीच घनिष्ठ संबंध के विचार को स्पष्ट किया, जिसके बाद सतत विकास से संबधित चर्चा को बढ़ावा देकर पर्यावरण लेखांकन को आगे बढ़ाया गया तथा वर्ष 1992 में रियो डी जेनेरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया
  • मिश्रा समिति (वर्ष 1976): समिति ने रिपोर्ट प्रस्तुत की, कि उत्तराखंड में जोशीमठ आधार चट्टान पर नहीं, बल्कि रेत और पत्थर के निक्षेप पर स्थित है, इसलिये इस क्षेत्र में कोई नवीन निर्माण नहीं किया जाना चाहिये।
  • डॉ. कस्तूरीरंगन समिति (वर्ष 2012): इसने पश्चिमी घाट की जैवविविधता को संरक्षित और सुरक्षित रखने की सिफारिश की, साथ ही इस क्षेत्र के सतत और समावेशी विकास की भी अनुमति प्रदान की। समिति ने पश्चिमी घाट के केवल 37% भाग को पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ESA) के अंतर्गत लाने की सिफारिश की।
  • टी.एस.आर. सुब्रमण्यम समिति (वर्ष 2014): मौजूदा पर्यावरणीय कानूनों की समीक्षा करने और उनमें संशोधन का सुझाव देने के लिये नियुक्त इस समिति ने प्रभावी पर्यावरणीय शासन सुनिश्चित करने के लिये नियामक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने, पारदर्शिता में वृद्धि और प्रवर्तन तंत्र को मजबूत करने की सिफारिश की थी।
  • न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन समिति (वर्ष 2018): समिति की स्थापना भारत में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की समस्या के समाधान के लिये की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य अपशिष्ट प्रबंधन तकनीकों में वृद्धि करना, पुनर्चक्रण को प्रोत्साहित करना और अनुचित अपशिष्ट  निपटान से पर्यावरण को होने वाले प्रदूषण में कमी करना था। सिफारिशों  ने पर्यावरण अनुकूल जीवन-शैली विकल्पों को प्रोत्साहित किया।

सामान्य आधार की खोज

  • विकास और संरक्षण में संतुलन
    • संयुक्त राष्ट्र ब्रुंडलैंड आयोग द्वारा वर्ष 1987 में परिभाषित सतत विकास का अर्थ है भविष्य की पीढ़ियों की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता से समझौता किये बिना वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करना।
    • आर्थिक विकास और पर्यावरण संबंधी चिंताओं को सतत विकास के लिये एकीकृत दृष्टिकोण के साथ सह-अस्तित्व में रहना चाहिये, जो संरक्षण और विकास के साथ-साथ काम करने के महत्त्व पर जोर देता है।
  • नीति और शासन
    • सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये प्रभावी पर्यावरण नीतियाँ, शासन और पर्यावरणीय मंजूरी महत्त्वपूर्ण हैं।
    • उदाहरण के लिये, चार धाम परियोजना पर कानूनी कार्यवाही में यह आरोप लगाया गया है कि यह विकास परियोजना के स्थान पर पर्यावरण को क्षरण पहुँचाने वाली परियोजना है, क्योंकि इसमें वृहद स्तर पर पर्वतों की कटाई, वृक्षों का कटाव और भूमिगत डंपिंग शामिल है।
    • अतः विकास के लिये तैयार की गई नीतियों विशेषतः पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में सभी हितधारकों के साथ परामर्श की आवश्यकता है।
  • सामुदायिक सहभागिता और जागरूकता
    • सतत विकास प्रथाओं के लिये जन जागरूकता और सामुदायिक भागीदारी आवश्यक है।
    • आधारभूत स्तर पर की जाने वाली पहल स्थानीय स्तर पर अक्षय ऊर्जा अपनाने और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देती है।
  • जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताएँ
    • जलवायु परिवर्तन के कारण चरम मौसमी घटनाएँ और समुद्र का बढ़ता जलस्तर जैसी महत्वपूर्ण चुनौतियाँ सामने आती हैं, जिसके लिये तत्काल शमन और अनुकूलन उपायों की आवश्यकता होती है।
    • चरम जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के शमन और अनुकूलन के लिये सभी स्तरों पर समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है ताकि विकास और पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ चल सकें।

निष्कर्ष:

भारत में पारिस्थितिकी और विकास के बीच का विवाद एक ऐसा महत्त्वपूर्ण बिंदु है, जहाँ वर्तमान में लिये गए विकल्प भविष्य की दुनिया को प्रभावित करेंगे। भारत और शेष विश्व अपनी प्राकृतिक विरासत को संरक्षित करते हुए आर्थिक विकास कर सकते है और सतत विकास को उच्च प्राथमिकता देने वाले व्यापक दृष्टिकोण को अपनाकर भावी पीढ़ियों के लिये एक धारणीय भविष्य सुनिश्चित कर सकती है। पर्यावरण और विकास के बीच इस संघर्ष के समाधान के लिये भागीदारीपूर्ण निर्णय, रचनात्मक समाधान और सहकारी प्रयास आवश्यक हैं