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अर्थव्यवस्था बनाम पर्यावरण: नैतिक विमर्श

  • 11 Jun 2024
  • 2 min read

भारत में बहुआयामी पर्यावरण संकट से नागरिकों का स्वास्थ्य एवं कल्याण प्रभावित हो रहा है। पूरे देश में व्याप्त वायु प्रदूषण से जीवन प्रत्याशा में काफी कमी आने के साथ कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं को बढ़ावा मिल रहा है। बंगलूरू के गंभीर जल संकट से निवासियों के लिये काफी मुश्किलें होने के साथ स्वच्छ एवं सुरक्षित पेयजल तक पहुँच बाधित हुई है। इस बीच सिक्किम और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों को भी हिमनद झील के प्रस्फुटन एवं आकस्मिक आई बाढ़ के बाद के विनाशकारी हालात का सामना करना पड़ा जिससे व्यापक स्तर पर जन-धन की हानि हुई है।

इन पर्यावरणीय चुनौतियों की गंभीरता के बावजूद लोक विमर्श एवं राजनीतिक प्राथमिकताओं में इनका गौण बना रहना, नैतिक दुविधा का परिचायक है।

दीर्घकालिक स्वास्थ्य और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए नीति निर्माताओं को नागरिकों की तत्काल आर्थिक तथा आजीविका संबंधी चिंताओं एवं पर्यावरणीय क्षरण के समाधान के बीच किस प्रकार संतुलन स्थापित करना चाहिये?

पर्यावरणीय क्षरण हेतु निजी क्षेत्र को किस सीमा तक नैतिक रूप से उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिये तथा कौन-से नैतिक ढाँचे धारणीय प्रथाओं के प्रति उनकी ज़िम्मेदारियों का मार्गदर्शन कर सकते हैं?

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