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लोकतंत्र का विरोधाभास: सामाजिक पदानुक्रम, बहुसंख्यक राजनीति और समावेशन

  • 14 May 2024
  • 2 min read

स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे आधारभूत लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध जाने वाले दलों को वोट देना चिंता का विषय है। यह भारत और अन्य लोकतंत्रों में देखा जाता है, जहाँ कई लोग मज़बूत नेताओं, मुक्त-बाज़ार नीतियों एवं राष्ट्रवादी वादों की ओर आकर्षित होते हैं। इस प्रवृत्ति से लोकतंत्र में हाशिये पर पड़े समूहों को आंशिक रूप से ही सशक्त बनाया जा सकता है, जिससे स्थापित सामाजिक पदानुक्रमों के कारण प्रतिरोध को जन्म मिलता है। यह प्रतिरोध बहुसंख्यक दलों को समर्थन प्राप्त करने के अवसर प्रदान करता है। 

इसके अतिरिक्त अन्य प्रमुख राजनीतिक दल सामाजिक परिवर्तनों के साथ संतुलन बनाने में विफल रहे हैं, जिससे धर्मनिरपेक्षता के बारे में विचार अप्रासंगिक लगने लगे हैं। इसमें आगे बढ़ने के लिये यह सुझाव दिया जाता है कि समाज में अल्पसंख्यकों के साथ बहुसंख्यकों के अनुभवों को प्रतिबिंबित करने वाली विविधता को सक्रिय रूप से अपनाना चाहिये। 

लोकतंत्र के विस्तार के बावजूद किन कारकों ने सामाजिक पदानुक्रमों को मज़बूत बनाए रखने में मदद की है? बहुसंख्यक विचारधाराओं का प्रभावी ढंग से विरोध करने के लिये अन्य प्रमुख राजनीतिक दल किस प्रकार बदल सकते हैं? आज के लोकतांत्रिक समाजों में विविधता के प्रति अधिक समावेशी दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिये क्या किया जा सकता है?

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