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आर्थिक सर्वेक्षण

भारतीय अर्थव्यवस्था

अध्याय 3

  • 15 Oct 2019
  • 17 min read

छोटों को पोषित कर, उन्हें विशाल बनानाः एमएसएमई वृद्धि के लिये नीतियाें को नई दिशा देना

प्रमुख विशिष्टताएँ

  • हमारी युवा जनसंख्या को वित्तीय और सामाजिक समावेशन प्रदान करने के लिये बड़ी संख्या में रोज़गार का सृजन एक महत्त्वपूर्ण अनिवार्यता है।
  • लेकिन भारत में रोज़गार सृजन उन नीतियों से बुरी तरह प्रभावित है जो बौने फर्मों को पोषित करते हैं न कि उन शिशु फर्मों को जिनमें विकास करने की सामर्थ्य है और जो तेज़ी से दीर्घकाय बन सकते हैं।
  • सर्वेक्षण के अनुसार यदि हम यह विचार करें कि अगले दो दशकों में हमारी श्रम शक्ति भागीदारी दर (LFPR) 60 प्रतिशत रहेगी तो अगले दशक में प्रतिवर्ष 55-60 लाख नौकरियों का सृजन किये जाने की आवश्यकता है।
  • इस प्रकार यह अनिवार्य हो जाता है कि एमएसएमई के विकास को प्रोत्साहन देने के लिये नीति उद्देश्य का पुनर्विन्यास किया जाए और इसके द्वारा अधिक नौकरियों का सृजन तथा अर्थव्यवस्था में उत्पादकता बढाई जाए।

फर्मों का वर्गीकरण

  • लघु फ़र्में: वे फ़र्में जिनमें 100 से कम कामगार नियोजित हों।
  • बड़ी फ़र्में: वे फ़र्में जिनमें 100 से अधिक कामगार नियोजित हों।
  • युवा फ़र्में: वे फ़र्में जो जब युवा होती हैं तो छोटी होती हैं तथा पुरानी होने के साथ बड़ी हो जाती हैं।
  • बौनी फ़र्में: वे फ़र्में जो कम विकास के कारण दस वर्षों से छोटी और पुरानी दोनों हैं।

बौनेपन का अभिशाप

  • बौनी फ़र्में, जिनको लघु फर्मों के रूप में परिभाषित किया जाता है, कभी अपने आकार में बढ़ नहीं सकती हैं और भारत की अर्थव्यवस्था में इनकी संख्या भी बहुत अधिक है तथा रोज़गार व उत्पादन को बढ़ाने से रोकने में इनका बहुत बड़ा योगदान होता है।
  • इस हिस्से के विश्लेषण के उद्देश्य से 100 से कम कर्मचारियों वाली फर्मों को लघु और 100 या इससे अधिक कर्मचारियों वाली फर्मों को अपेक्षाकृत बड़ी फर्म कहा जाता है।
  • इन बौनी फर्मों की संख्या कुल फर्मों की संख्या की आधी है किंतु रोज़गार में इनका हिस्सा केवल 14.1 प्रतिशत है। सच्चाई तो यह है कि निवल वर्द्धित मूल्य (एनवीए) में इनका हिस्सा बहुत ही कम (7.6 प्रतिशत) है। जबकि, अर्थव्यवस्था में ये आधी से ज्यादा जगह घेरती हैं। इसके विपरीत युवा बड़ी फर्में (जिनमें 100 से अधिक कर्मचारी हैं और 10 वर्ष से कम की हैं) संख्या के हिसाब से केवल 5.5 प्रतिशत हैं और रोज़़गार में 21.2 प्रतिशत का योगदान देती हैं तथा एनवीए में इनका योगदान 37.2 प्रतिशत का है।
  • छोटी कंपनियाँ अधिक संख्या में नए रोज़गार उत्पन्न कर सकती हैं। किंतु, वे इतने ही रोज़गार खत्म भी करती हैं। अतः छोटी कंपनियों में रोज़गार सृजन का उच्च स्तर और रोज़गार समाप्ति साथ-साथ होता है जिसके परिणामस्वरूप शुद्ध रोज़गार सृजन निम्न रहता है।

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आकार बनाम आयु प्रभाव

  • छोटी कंपनियों की तुलना में नई कंपनियाँ, रोज़़गार और मूल्य-संवर्द्धन में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। दस वर्ष से कम आयु वाली कंपनियों का रोज़गार में योगदान लगभग 30 प्रतिशत है और एनवीए में लगभग आधा भाग है।
  • रोज़गार तथा एनवीए योगदान आयु में वृद्धि के साथ गिरावट दर्शाते हैं। इस तथ्य के बावजूद है कि नई कंपनियां औसतन पुरानी कंपनियों से छोटी होती हैं। अतः नई कंपनियों में रोज़गार और उत्पादन में अति अनुपातीय हिस्सा होता है
  • यू.एस.ए. में 40 वर्ष पुराने उद्यम के लिये औसत रोज़गार स्तर उस रोज़गार के सात गुना से अधिक था,जब उद्यम नया-नया स्थापित किया था। इसके विपरीत भारत में 40 वर्ष पुरानी कंपनी का रोज़गार स्तर पहले के रोज़गार से केवल 40 प्रतिशत अधिक था जब वह उद्यम स्थापित किया गया था।
  • इस तरह 40 वर्ष की आयु पार कर लेने वाली अमेरीकी फर्में औसतन रूप से भारत की 40 वर्षीय फर्मों की तुलना में 5 गुना (=7/1-4) अधिक रोज़गार प्रदान कर रही हैं।

बौनेपन को प्रोत्साहन देने में नीतियों की भूमिका

  • हमारी नीतियाँ शिशु फर्मों के बजाय बौनी फ़र्मों को बचाने और उन्हें प्रोत्साहन देने का काम करती हैं। यहाँ मुख्य विशेषता यह है कि शिशु फ़र्में छोटी और युवा हैं लेकिन बौनी फ़र्में छोटी और पुरानी होती हैं। इस प्रकार जहाँ शिशु फ़र्में विकसित होकर विशाल फ़र्में बन सकती हैं तथा उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ अधिक रोज़गार भी पैदा कर सकती हैं। वहीं बौनी फ़र्में छोटी ही बनी रहती हैं और न तो उत्पादकता और न ही रोज़गार बढ़ाने में योगदान देती हैं।
  • ये नीतियाँ छोटी बने रहने के लिये फ़र्मों हेतु एक ‘दुराग्रही प्रोत्साहन’ सृजित करती हैं। यदि फ़र्में सीमा रेखा से परे विकसित होती हैं तो उन्हें कथित लाभ नहीं मिल पाएँगे। इसलिये, उद्यमी इन लाभों को निरंतर प्राप्त करने के लिये एक नई फर्म शुरू करना सर्वोत्तम मानते हैं। लेकिन ये लघु फ़र्में उन लाभों का आनंद नहीं उठा पातीं जिन्हें बड़ी फ़र्में बड़ी अर्थव्यवस्था से प्राप्त करती हैं अतः ये अनुत्पादक बनी रहती है।

योगदानकर्त्ता कारक

  • श्रम नियमन
    • भारत में श्रम कानूनों, नियमनों और नियमों का केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर आधिक्य है जो कि नियोजक और नियोजितों के संबंध को प्रशासित करता है।
    • ऐसे नियमनों के अनुपालन में निहित कार्य संपादन लागत फ़र्मों को छोटी बनी रहने के लिये दुराग्रही प्रोत्साहन प्रदान करती है।

सारणी 1. प्रमुख श्रम क़ानूनों से स्थापित आकार आधारित सीमाएं

क्रम संख्या श्रम कानून प्रतिष्ठानों में अनुप्रयोज्यता
1. औद्योगिक विवाद अधिनियम,1947 जो हड़तालों, लॉकआउट, छंटनी और नौकरी से मुक्त करने से संबंधित है। 100 और उससे अधिक कामगार जहाँ नियोजित हों।
2. श्रम संघ अधिनियम, 2001 – श्रम संघों का पंजीकरण 10 प्रतिशत की सदस्यता या 100 कामगार जो भी कम हो।
3. औद्योगिक रोज़गार(स्टैंडिंग ऑर्डर्स) अधिनियम,1946 100 या अधिक कामगार
4. कारख़ाना अधिनियम, 1948 ऊर्जा सहित 10 या अधिक कामगार और बिना ऊर्जा के 20 या अधिक कामगार
5. संविदा श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1970 संविदा श्रमिक के रूप में 20 या अधिक मज़दूर कार्यरत
6. न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948 अनुसूची जहाँ राज्य में 1000 से अधिक श्रमिक हैं, में रोज़गार
7. कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 – ई. एस. आई. योजना

10 या अधिक श्रमिक या कर्मचारी

मासिक मज़दूरी रु. 21000 से अधिक न हो

8. कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम,1952

20 या अधिक श्रमिक

  • 2007 में ओ.ई.सी.डी.(OECD) द्वारा किया गया राज्यस्तरीय सर्वेक्षण जिसे 2013-14 में अद्यतन किया गया, राज्यों को श्रम क़ानूनों में लचीलेपन के आधार पर वर्गीकृत करता है।
  • श्रम क़ानूनों में लचीलापन विकास और रोज़गार सृजन के लिये एक सहायक वातावरण तैयार करता है।
  • लचीले राज्य श्रम, पूंजी और उत्पादकता में अनुपात से अधिक योगदान करते हैं जबकि लोचहीनता श्रम को पूंजी से प्रतिस्थापित करने हेतु प्रोत्साहित करती है।
  • लोचहीन राज्य लगभग सभी आयामों में बुरी तरह प्रभावित हैं चाहे यह रोज़गार हो, पूंजी आकर्षण हो, उत्पादकता या मज़दूरी हो।

राजस्थान का अनोखा मामला

  • 2014-15 के श्रम सुधारों से पहले राजस्थान के विकास की कहानी भी शेष भारत के समान थी। लेकिन सुधारों के बाद बड़ी फ़र्मों की संख्या और संयोजित सालाना विकास दर में महत्त्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की गई।
  • लघु क्षेत्र आरक्षण नीति
    • लघु उद्योग (एसएसआई) आरक्षण नीति 1967 में रोज़गार में वृद्धि और आय पुनर्वितरण के लिये शुरू की गई थी।
    • यह नीति आकार के आधार पर फ़र्मों के लिये उत्पादों का विनिर्माण आरक्षित करती है।

सारणी 2. लघु क्षेत्र की फर्मों को प्राप्त प्रोत्साहन (चाहे उनकी उम्र कुछ भी हो)

योजना उद्देश्य
प्राथमिकता क्षेत्र उधार सहायतित ब्याज दर पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वित्त में सभी सूक्ष्म और लघु उद्यमों को दिया गया ऋण शामिल होगा भले ही उनकी आयु कुछ भी हो।
क्रेडिट गारंटी फ़ंड स्कीम यह योजना सूक्ष्म और लघु उद्यमों, भले ही उनकी आयु कुछ भी क्यों न हो, को संपार्श्विक मुक्त ऋण प्रदान करती है।
खरीद प्राथमिकता नीति वस्तुओं का एक समूह (समूह IV) विशिष्ट रूप से लघु क्षेत्र की इकाइयों, भले ही उनकी आयु कुछ भी क्यों न हो, से खरीद के लिये आरक्षित है। समूह V के आइटम उनकी आवश्यकता का 75 प्रतिशत तक सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों, भले ही उनकी आयु कुछ भी क्यों न हो, से खरीदा जाना है।
कीमत प्राथमिकता नीति कुछ चयनित वस्तुएँ जिन्हें लघु और बड़े क्षेत्र दोनों प्रकार की इकाइयों में बनाया जाता है, कीमत प्राथमिकता लघु क्षेत्र को दी जाएगी चाहे उनकी आयु कुछ भी क्यों न हो। यह कीमत प्राथमिकता बड़े क्षेत्र के न्यूनतम कोटेशन से ऊपर 15 प्रतिशत प्रीमियम होगी।

लघु क्षेत्र उद्योग का असर

  • इस नीति के कारण संसाधनों का अधिक दोषपूर्ण आवंटन और उत्पादकता में कमी हुई, जिसका परिणाम है:
    • श्रम अनुपात में औसत पूंजी में अधिक कमी।
    • कम पूंजी संचय के कारण श्रम की समग्र मांग और बाजार मज़दूरी दर में काफी कमी।
    • प्रबंधकीय कौशल का अप्रभावी आवंटन।
  • आर्थिक प्रतिबंधों ने विनिर्मित उत्पादों की कीमत में बढ़ोतरी की जिसने उन्हें वैश्विक अर्थव्यवस्था में अप्रतिस्पर्द्धी बना दिया।
  • छोटी और अनुत्पादक इकाई बने रहने के लिये इसने फ़र्मों हेतु प्रतिकूल प्रोत्साहन का सृजन किया।

उत्पादों को आरक्षित श्रेणी से बाहर करना

  • 1997 से 2007 की अवधि में कई उत्पाद श्रेणियों को आरक्षित श्रेणी से बाहर निकालने का परिणाम निम्नवत रहा:
    • नौकरियों का सृजन: वास्तविकता में नौकरी सृजन एकदिष्ट रूप से फर्म के आकार के साथ बढ़ा जो बड़ी फ़र्मों (500 प्लस कर्मचारी) में अधिकतम था।
    • नौकरियों की समाप्ति: यह लघु फ़र्मों में सर्वाधिक देखी गई।
  • नियंत्रण मुक्त किये जाने से पता चला कि रोज़गार सृजन और अर्थव्यवस्था में उत्पादकता में बौने नहीं बल्कि शिशु फ़र्में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

समीक्षा की आवश्यकता

  • उदारीकरण और वैश्वीकरण के कारण प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि।
  • कुछ उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में बड़ी फर्मों के एकाधिकार जैसी स्थिति बनी।

आगे की राह

सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों को बेड़ियों से मुक्त करने और उनको विकास में सक्षम करने के लिये सभी आकार आधारित प्रोत्साहनों में अवश्य दस वर्ष से कम का सनसेट क्लॉज़ आवश्यक ग्रैंड-फादरिंग (एक ऐसा प्रावधान जिसमें एक पुराना नियम कुछ मौजूदा स्थितियों पर लागू होता है) के साथ होना चाहिये। श्रम कानून प्रतिबंधों को हटाने से नौकरियों के सृजन में महत्त्वपूर्ण उछाल आ सकता है।

इस संबंध में निम्नलिखित सुझाव दिये जाते हैं:

  • ‘छोटी या लघु फ़र्मों के बजाय शिशु फ़र्मों को प्रोत्साहन देना।
  • प्राथमिक क्षेत्र के उधार का पुनर्विन्यास।
  • प्रोत्साहनों के लिये सनसेट क्लाज
  • अधिक रोज़गार प्रत्यास्थ क्षेत्र पर ध्यान देना।
  • उच्च प्लवन प्रभाव (high Spillover Effects) के सेवा क्षेत्र पर ध्यान केन्द्रित करना।

मेन्स के लिये मुख्य शब्द

  • दुराग्रही या प्रतिकूल प्रोत्साहन: .वह प्रोत्साहन जिसे प्राप्त करने के लिये किये गए कार्यों के कारण एक प्रतिकूल परिणाम उत्पन्न होता है और जो प्रोत्साहन देने वाले के विरुद्ध हो।

महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियाँ और तथ्य

  • संगठित विनिर्माण में लघु फ़र्मे 85 प्रतिशत (संख्या की दृष्टि से) हैं लेकिन ये कुल रोज़गार और एनवीए का क्रमशः केवल 23 प्रतिशत और 11.5 प्रतिशत योगदान करती हैं।
    • बौनी फ़र्में संख्या की दृष्टि से संगठित विनिर्माण में सभी फ़र्मों का आधा हिस्सा हैं लेकिन कुल रोज़गार और एनवीए का क्रमशः केवल 14.1 प्रतिशत और 7.6 प्रतिशत योगदान करती हैं।
  • संगठित विनिर्माण में बड़ी फ़र्मे 15 प्रतिशत (संख्या की दृष्टि से) हैं लेकिन कुल रोज़गार और एनवीए का क्रमशः केवल 77 प्रतिशत और 88.5 प्रतिशत योगदान करती हैं।
  • 10 वर्ष से कम अवधि की फ़र्में रोज़गार का लगभग 30 प्रतिशत और एनवीए का लगभग आधा प्रदान करती हैं, यह फर्म की आयु में वृद्धि के साथ-साथ अधोमुख प्रवृत्ति को दर्शाता है।

Chart

मेन्स के लिये महत्त्वपूर्ण प्रश्न:

प्रश्न1: एक उदाहरण की सहायता से भारतीय अर्थव्यवस्था में फ़र्मों के विकास में श्रम विनियमन के प्रभावों की व्याख्या कीजिये।

प्रश्न 2: प्रतिकूल प्रोत्साहन की संक्षेप में व्याख्या कीजिये और उन्होंने किस प्रकार लघु फ़र्मों के विकास को कुंठित किया, यह भी बताइये।

प्रश्न 3: ‘भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु फ़र्में सबसे बड़ी संख्या में नौकरियों का सृजन करती हैं,’ विश्लेषण कीजिये।

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