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आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20

भारतीय अर्थव्यवस्था

अध्याय-4 (Vol-1)

  • 02 May 2020
  • 18 min read

बाज़ार की अनदेखी: जब अत्यधिक सरकारी हस्तक्षेप से लाभ के बजाय नुकसान होता है  

Undermining Markets: When Government Intervention Hurts More Than It Helps 

किसी अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप नेक इरादों से किया जाता है और प्रायः धन सृजन करते समय बाज़ार अर्थव्यवस्था की क्षमता को कम करके आँका जाता है किंतु परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं होता है। आर्थिक सर्वेक्षण के इस अध्याय में एनाक्रोनिस्टिक सरकार (Anachronistic Government) के चार मुख्य उदाहरणों- आवश्यक वस्तु अधिनियम (Essential Commodities Act- ECA), ड्रग्स (मूल्य नियंत्रण) आदेश 2013 (Drugs (Prices Control) Order 2013), खाद्य सहायिकी, केंद्र/राज्य सरकारों द्वारा की गई कर्ज माफी) का विश्लेषण किया गया है।   

भूमिका:

  • यद्यपि भारत में फर्मों एवं नागरिकों की आर्थिक स्वतंत्रता बढ़ाने के लिये कई महत्त्वपूर्ण प्रयास किये गए किंतु आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की बंधी हुई अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाता है, जिन्हें निम्नलिखित उदाहरणों से समझा जा सकता है।  
    • वर्ष 2019 में हेरिटेज फाउंडेशन द्वारा जारी आर्थिक स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 186 देशों में 129वें स्थान पर है। इसे ज़्यादातर गैर-स्वतंत्रता (Mostly Unfree) की श्रेणी में रखा गया है। 
    • वर्ष 2019 में फ्रेज़र इंस्टीट्यूट (Fraser Institute) द्वारा जारी वैश्विक आर्थिक स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 162 देशों में 79वें स्थान पर है।   
  • आर्थिक स्वतंत्रता उद्यमशीलता हेतु संसाधनों के प्रभावी आवंटन और उत्पादक गतिविधियों को ऊर्जा प्रदान करके धन सृजन को बढ़ाती है जिससे आर्थिक गतिशीलता को बढ़ावा मिलता है। यह देशों की प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ आर्थिक स्वतंत्रता के दो संदर्भित सूचकांकों में रैंकों के घनिष्ठ सह-संबंध में प्रकट होता है।
  • सर्वेक्षण में बताया गया है कि बाज़ार में सरकार के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से मांग- आपूर्ति संतुलन प्रभावित हो सकता है जिससे अत्यधिक नुकसान (Deadweight Loss) की स्थिति बन जाती है जिसमें निवेश के नुकसान होने की संभावना अधिक होती है।  
  • सर्वेक्षण में एनाक्रोनिस्टिक सरकार (Anachronistic Government) के हस्तक्षेप के प्रभाव को  चार उदाहरणों- आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 (Essential Commodities Act 1955), ड्रग्स (मूल्य नियंत्रण) आदेश 2013 (Drugs (Prices Control) Order 2013), खाद्यान्न बाज़ारों के लिये सरकारी नीतियाँ, कर्ज माफी के माध्यम से समझाया गया है।  

आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955

[Essential Commodities Act (ECA), 1955]

ESE

  • आवश्यक वस्तु अधिनियम (ECA), 1955 कुछ वस्तुओं जिन्हें आवश्यक वस्तुओं के रूप में माना जाता है जैसे सब्ज़ियाँ, दाल, खाद्य तेल, चीनी आदि के उत्पादन, आपूर्ति, वितरण, व्यापार एवं वाणिज्य को नियंत्रित करता है।
  • इस अधिनियम का उद्देश्य जमाखोरी पर अंकुश लगाकर गरीबों के लिये सस्ती दर पर आवश्यक वस्तुएँ मुहैया करना है।
  • हालाँकि यह अधिनियम बाज़ार विकृतियाँ उत्पन्न करके कृषि बाज़ारों के प्रभावशाली विकास को प्रभावित करता है।
  • मूल्य अस्थिरता को नियंत्रित करने में यह अधिनियम अप्रभावी है उदाहरण के तौर पर वर्ष 2006 की तीसरी तिमाही एवं वर्ष 2009 की पहली तिमाही में दालों और सितंबर 2019 में प्याज की कीमतें ECA लागू होने के बावजूद बढ़ गई थी।
  • आवश्यक वस्तुओं के थोक एवं खुदरा मूल्यों के बीच बढ़ता हुआ अंतर इस बात की पुष्टि करता है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम (ECA) उपभोक्ता कल्याण को कम करता है।
  •  केंद्र एवं राज्य सरकारों से प्राप्त रिपोर्टों के अनुसार इस अधिनियम के अंतर्गत दोष सिद्धि की दर केवल 2-4% है। इससे पता चलता है कि ECA के अंतर्गत मारे गए छापों के कारण सिर्फ व्यापारियों का उत्पीड़न हुआ है जो कि किसी दी गई मद के विपणन में व्यापार की भूमिका को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है।   
  • प्याज, आलू एवं दलों जैसी महत्त्वपूर्ण कृषि मदों की मूल्य अस्थिरता को विनियमित करने में सहायता के लिये वर्ष 2014-15 में मूल्य स्थिरीकरण कोष (Price Stabilization Fund) की स्थापना की गई थी। 

ECA के अंतर्गत औषधि मूल्य नियंत्रण

(DRUG PRICE CONTROLS UNDER ECA):

  • आवश्यक जीवन रक्षक औषधियों की पहुँच सुनिश्चित करने और कम आय वाले परिवारों को गरीबी रेखा के नीचे जाने से बचाने के लिये सरकारें अक्सर औषधियों के लिये मूल्य नियंत्रण का सहारा लेती हैं।      
  • भारत में केंद्र सरकार राष्ट्रीय औषधि मूल्य प्राधिकरण (National Pharmaceutical Pricing Authority- NPPA) एवं औषधि (मूल्य नियंत्रण) आदेश [Drug (Prices Control) Order- DPCO] के माध्यम से औषधियों के मूल्यों को नियमित करने के लिये मूल्यों के नियंत्रण पर निर्भर है।
  • भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा तैयार की गई अनिवार्य औषधियों की राष्ट्रीय सूची (National List of Essential Medicines- NLEM) वह सूची होती है जिनको भारत में स्वास्थ्य की आवश्यकताओं के लिये अनिवार्य एवं उच्च प्राथमिकता माना जाता है। यह जनसंख्या में रोगों की व्यापकता, सुरक्षा एवं चिकित्सा की प्रभावकारिता और वर्तमान सामर्थ्य जैसे पहलुओं पर आधारित है।
  • सर्वेक्षण में आवश्यक औषधियों के संबंध में DPCO के प्रभाव की जाँच करने के लिये ग्लाइकोमेट (मेटफोर्मिन) और ग्लिमिप्रेक्स-एमएफ (Glimiprex-MF) (ग्लिमपिराइड+मेटफॉर्मिन) जिनका उपयोग हाई ब्लड शुगर को नियंत्रित करने के लिये किया जाता है का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। 

ECA DID

खाद्यान्न बाज़ारों में सरकारी हस्तक्षेप

(GOVERNMENT INTERVENTION IN GRAIN MARKETS):

  • भारत के खाद्यान्न बाज़ारों में सरकार ने हस्तक्षेप करके उत्पादकों के लिये पारिश्रमिक सुनिश्चित करने और वहनीय कीमतों पर आपूर्ति उपलब्ध कराके उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करते हुए खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने की कोशिश की है।   
    • खाद्यान्न रखरखाव प्रणाली के अंतर्गत भारतीय खाद्य निगम खाद्यान्नों एवं अन्य खाद्य पदार्थों को खरीदने, भंडारण, परिवहन, वितरित करने एवं बेचने का कार्य करता है।
    • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (National Food Security Act- NFSA), 2013 के अंतर्गत  पिछली और वर्तमान लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Targeted Public Distribution System- TPDS) के तहत प्रदत्त दायित्वों के मद्देनज़र जिसमें सब्सिडी पर खाद्यान्न प्राप्त करने के लिये 75% ग्रामीण आबादी और 50% शहरी आबादी आती है, सरकार चावल एवं गेँहू की सबसे बड़ी एकल संचयकर्त्ता के रूप में उभरी है।
    • सरकार चावल एवं गेँहू के कुल बाज़ार अधिशेष का लगभग 40-50% हिस्सा खरीदती है। पंजाब और हरियाणा जैसे कुछ राज्यों में सरकार द्वारा खरीद का यह हिस्सा 80-90% तक पहुँच गया है।
    • वर्ष 2018-19 में 44.4 मिलियन टन चावल और 34 मिलियन टन गेँहू की रिकॉर्ड खरीद की गई। इससे इन वस्तुओं की खरीद, भंडारण और प्रसंस्करण में दीर्घकालिक निवेश करने के लिये निजी क्षेत्र हतोत्साहित होता है।
  • सरकारी नीतियों के कारण खाद्य सब्सिडी जिसमे भारतीय खाद्य निगम के अधिप्राप्ति की लागत (सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अधीन न्यूनतम समर्थन मूल्य और केंद्रीय निर्गम मूल्य के बीच का अंतर) और भारतीय खाद्य निगम के वितरण और माल ढुलाई की लागत शामिल है, का बोझ बढ़ गया है।
  • कृषि में सार्वजनिक निवेश में वृद्धि नकारात्मक रूप से खाद्य सब्सिडी परिव्यय में वृद्धि से संबंधित है। उत्पादकता में वृद्धि के लिये निवेश महत्त्वपूर्ण इनपुट है इसलिये सब्सिडी का बढ़ता दायरा दीर्घकालिक रूप में कृषि क्षेत्र की वृद्धि को नुकसान पहुँचा रहा है।
  • सरकारी हस्तक्षेप ने खाद्यान्नों की माँग एवं आपूर्ति के बीच एक खाई उत्पन्न की है। उपभोक्ता व्यय पर एनएसएस के 73वें सर्वेक्षण से पता चलता है कि मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (Monthly Per Capita Expenditure- MPCE) में अनाजों की हिस्सेदारी में वर्ष 2004-05 से 2011-12 तक ग्रामीण भारत में लगभग 33% और शहरी भारत में लगभग 28% तक की गिरावट आई है। 
  • अनाजों की घटती मांग और बढ़ती आपूर्ति की यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि उत्पादन पैटर्न मांग पैटर्न के अनुरूप नहीं है। किसान अपने लिये संकेत मांग पैटर्न से नहीं बल्कि अनाज की खरीद एवं वितरण से संबंधित सरकारी नीतियों से प्राप्त कर रहे हैं।
  • इस प्रकार सरकार के हस्तक्षेप से खाद्यान्न बाज़ार में आनाजों की मांग एवं आपूर्ति के बीच संबंध के कमजोर होने के संकेत मिलते हैं।  

कर्ज माफी (Debt Waivers):

  • भारत के साख बाज़ारों में सरकारी हस्तक्षेप पूर्ण या आंशिक, सशर्त या बिना शर्त तथा राज्य स्तर पर ऋण राहत देने का प्रचलन शुरू हो गया है।
  • चुनाव से ठीक पहले या चुनाव के बाद किसानों का कर्ज माफ कर देने की घटना जो कि चुनाव घोषणा पत्र में किये गए वादे को पूरा करने के लिये थी, नब्बे के दशक की शुरुआत में ही खत्म हो गई थी।
  • हालाँकि वर्ष 2008 में केंद्र सरकार द्वारा घोषित बड़े पैमाने पर कृषि ऋण माफी की घोषणा के बाद यह घटना व्यापक हो गई है। इसके बाद आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में छूट की घोषणा की गई।  
  • भारत में कृषि ऋण राहत के रूप में सरकारी हस्तक्षेप की व्यापकता को देखते हुए लाभार्थियों और ऋण बाज़ार दोनों पर इसके परिणामों को सामान्य रूप से समझना महत्वपूर्ण है।
  • जब किसानों की कर्ज माफी के लाभों पर तर्क दिया जाता है तो समर्थक यह मानते हैं कि कर्ज़दार ‘कर्ज की अधिकता’ (Debt Overhang) की समस्या से पीड़ित हैं। यह एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है जहाँ संचित ऋण को चुकाने में चालू निधि का उपयोग किया जाता है जिससे भौतिक या मानव पूंजी में निवेश करने के लिये बहुत कम प्रोत्साहन मिलता है।
    • इस स्थिति को देखते हुए ऋण राहत के समर्थकों का तर्क है कि ऋण माफी कर्जदारों को कर्ज के जाल से बाहर आने में मदद करती है क्योंकि यह उनकी बैलेंस शीट में सुधार करता है और ऋण सेवाओं के बोझ को कम करता है। 
    • उधारकर्त्ताओं की बैलेंस शीट को बनाए रखने से नए निवेश के साथ-साथ नए फंड के बढ़ने की संभावना है क्योंकि आय में कोई बदलाव नहीं होने पर भी उधारकर्त्ताओं की पुनर्भुगतान क्षमता बढ़ती है।   
  • वर्ष 2008 में की गई कर्ज माफ़ी का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि इस कर्ज माफी से 2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसानों को पूरी राहत मिली, जबकि 2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले लोगों को केवल आंशिक राहत मिली। उदाहरणार्थ-
  • एक किसान के पास 1.98 हेक्टेयर जमीन है जो 2.02 हेक्टेयर जमीन वाले दूसरे किसान से अलग नहीं है। हालाँकि 1.98 हेक्टेयर भूमि वाले किसान को पूरी राहत मिलती है, जबकि 2.02 हेक्टेयर भूमि वाले किसान को केवल आंशिक राहत मिलती है। 
    • यदि ऋण राहत वास्तव में किसानों को लाभ पहुँचाती है तो पहले किस्म के किसानों को  निश्चित रूप से बाद के किसानों से ज़्यादा लाभ मिलना चाहिये था।
    • कर्ज माफी के बाद न तो कृषि निवेश में बढ़ोतरी हुई और न ही कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई और इसकी खपत पर भी बहुत थोड़ा ही प्रभाव पड़ा। अर्थात कर्ज माफी जो जीडीपी का 2% है किसानों के जीवन पर कोई महत्त्वपूर्ण प्रभाव न छोड़ पाई।
  • ऋण माफ किये जाने से क्रेडिट मार्केट पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कर्ज माफी केवल उसी स्थिति में लाभदायक हो सकती है जब इसे असाधारण परिस्थितियों में दिया जाए और ये परिस्थितियाँ अप्रत्याशित बनी रहें। ऐसी स्थितियों में ऋण राहत के चलते किसानों को खेती छोड़ने से और उत्पादन में कमी को रोका जा सकता है। हालाँकि एक प्रत्याशित छूट नैतिक खतरे को जन्म दे सकती है और क्रेडिट संस्कृति को नष्ट कर सकती है।
  •  भारत सरकार द्वारा वर्ष 2008 में की गई कर्ज माफी से भविष्य में ऋण बकायादारों की संख्या में वृद्धि  हुई और न तो मजदूरी में एवं न ही उत्पादकता/उपभोग में कोई सुधार हुआ।    

Full-circle

Act repealed

निष्कर्ष:

  • किसी अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धी बाज़ार संसाधनों को आवंटित करने में प्रभावी होते हैं। हालाँकि एक पूरी तरह से कुशल बाज़ार का होना दुर्लभ है किंतु 'बाज़ार विफलता' गंभीर नहीं होने पर सरकारी हस्तक्षेप से लाभ की संभावना कम हो सकती है। बेशक सरकार उन स्थितियों में हस्तक्षेप करके महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है जहाँ ‘बाज़ार विफलताएँ’ तीव्र हैं।
  • सर्वेक्षण में यह नहीं कहा गया है कि सरकार का बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये किंतु अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप को समाप्त करने से प्रतिस्पर्द्धी बाज़ार सक्षम होंगे और इससे निवेश एवं आर्थिक विकास में तेज़ी आएगी।
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