केवल प्रतिभू ज़मानत का आधार नहीं: सर्वोच्च न्यायालय | 03 Sep 2024
स्रोत : द हिंदू
चर्चा में क्यों ?
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने एक ऐसे मामले में जमानत की जटिलताओं को संबोधित किया, जिसमें 13 आपराधिक मामलों में जमानत प्राप्त एक आरोपी को पर्याप्त प्रतिभू हासिल करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
- न्यायालय ने प्रतिभू प्राप्त करने में चुनौतियों को पहचाना, जिसके लिये प्रायः करीबी संबंधियों या दोस्तों पर निर्भर रहना पड़ता है।
- न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत आरोपी के मौलिक अधिकारों के साथ-साथ न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने पर भी ज़ोर दिया। अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करता है, जो नागरिकों एवं गैर-नागरिकों दोनों पर लागू होता है।
जमानत, पैरोल और फरलो क्या है?
- जमानत: जमानत, कानूनी हिरासत में रखे गए व्यक्ति की सशर्त/अनंतिम रिहाई है, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय में उपस्थित होने का वादा किया जाता है।
- यह रिहाई के लिये न्यायालय के समक्ष जमा की गई सुरक्षा/संपार्श्विक को दर्शाता है।
- सुपरिटेंडेंट और रिमेंबरेंसर ऑफ लीगल अफेयर्स बनाम अमिय कुमार रॉय चौधरी (1973) मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने जमानत देने के पीछे के सिद्धांत को समझाया।
- जमानत के प्रकार:
- नियमित जमानत: यह न्यायालय द्वारा किसी ऐसे व्यक्ति को रिहा करने का निर्देश है, जो पहले से ही गिरफ़्तार है और पुलिस हिरासत में है।
- ऐसी जमानत के लिये कोई व्यक्ति CrPC [अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS)] की धारा 437 और 439 के तहत आवेदन दायर कर सकता है।
- अंतरिम जमानत: अग्रिम जमानत या नियमित जमानत की मांग करने वाले आवेदन के न्यायालय के समक्ष लंबित रहने तक न्यायालय द्वारा अस्थायी और अल्प अवधि के लिये जमानत दी जाती है।
- अग्रिम जमानत या गिरफ्तारी से पूर्व जमानत: यह एक कानूनी प्रावधान है, जो किसी आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार होने से पहले जमानत के लिये आवेदन करने की अनुमति देता है।
- यह CrPC (अब BNSS) की धारा 438 के तहत दी जाती है। यह केवल सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाती है।
- नियमित जमानत: यह न्यायालय द्वारा किसी ऐसे व्यक्ति को रिहा करने का निर्देश है, जो पहले से ही गिरफ़्तार है और पुलिस हिरासत में है।
- पैरोल एक अधिकार नहीं है। यह किसी कैदी को किसी विशिष्ट कारण से दिया जाता है, जैसे परिवार में मृत्यु या किसी रक्त संबंधी का विवाह।
- पैरोल: यह सजा के निलंबन के साथ कैदी को रिहा करने की एक व्यवस्था है। रिहाई सशर्त होती है, आम तौर पर व्यवहार के अधीन होती है और इसके तहत एक निश्चित अवधि के लिये अधिकारियों को समय-समय पर रिपोर्ट करने की आवश्यकता होती है।
- यदि प्राधिकारी को लगता है कि दोषी को रिहा करना समाज के हित में नहीं होगा, तो कैदी को यह छूट तब भी नहीं दी जा सकती, भले ही वह पर्याप्त कारण बताता हो।
- फरलो: यह लंबी अवधि के कारावास के मामलों में दी जाती है। कैदी को दी गई फरलो की अवधि को उसकी सजा में छूट के रूप में माना जाता है।
- पैरोल के विपरीत फरलो को एक कैदी का अधिकार माना जाता है, जिसे किसी भी कारण से समय-समय पर प्रदान किया जाता है तथा यह केवल कैदी को पारिवारिक व सामाजिक संबंधों को बनाए रखने और जेल में लंबे समय तक रहने के दुष्प्रभावों का मुकाबला करने में सक्षम बनाता है।
- पैरोल और फरलो दोनों को सुधारात्मक प्रक्रिया माना जाता है। इन प्रावधानों को जेल प्रणाली को मानवीय बनाने के उद्देश्य से पेश किया गया था। पैरोल और फरलो कारागार अधिनियम, 1894 के अंतर्गत आते हैं।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रश्न. भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजियेः (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) |