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निवारक निरोध

  • 07 Mar 2025
  • 5 min read

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने मुर्तुजा हुसैन चौधरी बनाम नगालैंड राज्य, 2025 में पुनः पुष्टि की कि निवारक निरोध एक कठोर उपाय है, जिसके लिये संवैधानिक और वैधानिक सुरक्षा उपायों का कड़ाई से पालन आवश्यक है। 

  • इस फैसले में उचित औचित्य के अभाव तथा कानूनी सिद्धांतों का उल्लंघन करने के कारण नगालैंड के निरोध आदेशों को रद्द कर दिया गया।

निवारक निरोध के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय क्या है?

  • मामला: दो व्यक्तियों को मादक पदार्थ जब्ती के बाद स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अवैध व्यापार निवारण अधिनियम, 1988 (PITNDPS अधिनियम) के तहत निवारक रूप से हिरासत में लिया गया था, जो पुलिस के इस आरोप पर आधारित था कि रिहा किये जाने पर वे फिर से तस्करी शुरू कर देंगे, लेकिन इसके लिये कोई अलग आधार नहीं था।
  • सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हिरासत आदेशों में पृथक, विशिष्ट आधारों का अभाव होने के कारण PITNDPS अधिनियम की धारा 6 का उल्लंघन हुआ है। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि हिरासत में लिये गए ऐसे लोग जो अंग्रेज़ी नहीं समझते थे, उन्हें मौखिक रूप से उनकी भाषा में जानकारी दी गई, लेकिन इसे अपर्याप्त माना गया। सर्वोच्च न्यायालय ने हरिकिसन बनाम महाराष्ट्र राज्य (1962) मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि हिरासत के आधार के बारे में केवल मौखिक संचार अपर्याप्त है।
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि निवारक निरोध से मूल अधिकारों पर प्रभाव पड़ता है और इसमें वैधानिक मानदंडों का सख्ती से पालन करना चाहिये। परिणामस्वरूप, न्यायालय ने निरोध आदेशों को रद्द कर दिया।

निवारक निरोध क्या है?

  • परिचय: इसका तात्पर्य संभावित गैर-कानूनी गतिविधियों को रोकने के क्रम में किसी व्यक्ति को बिना सुनवाई के हिरासत में लेना है।
    • दंडात्मक निरोध के विपरीत (जिसमें उचित प्रक्रिया और दोषसिद्धि नियमों का पालन किया जाता है) निवारक निरोध के तहत संदेह के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जाता है।
  • संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 22 के अंतर्गत गिरफ्तारी तथा निरोध के खिलाफ सुरक्षा प्रदान की जाती है। इसका पहला भाग आपराधिक जाँच से जुड़े सामान्य विधिक मामलों से संबंधित है जबकि दूसरा भाग निवारक निरोध से संबंधित है।
    • किसी व्यक्ति को बिना विचारण के तीन माह तक हिरासत में रखा जा सकता है, जब तक कि सलाहकार बोर्ड (जिसमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने के लिये अर्हित व्यक्ति शामिल होते हैं)  द्वारा अवधि न बढ़ा दी जाए।
    • हिरासत में लिये गए व्यक्ति को हिरासत में लिये जाने के कारणों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, जब तक कि इससे सार्वजनिक हित को नुकसान न पहुंचे। उन्हें विधिक  प्रतिनिधित्व का अधिकार है, हालाँकि कुछ मामलों में इस अधिकार को प्रतिबंधित किया जा सकता है।
  • निवारक निरोध से संबंधित प्रमुख कानून:
    • राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980: राष्ट्रीय सुरक्षा और लोक व्यवस्था को खतरे से बचाने के लिये नज़रबंदी की अनुमति का प्रावधान।
    • विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप (निवारण) अधिनियम, 1967: भारत की संप्रभुता, सुरक्षा और अखंडता को खतरा पहुँचाने वाली गतिविधियों की रोकथाम किये जाने का प्रावाधन।
    • लोक सुरक्षा अधिनियम, 1978: इसका उपयोग जम्मू-कश्मीर में लोक व्यवस्था और सुरक्षा के आधार पर निवारक निरोध के लिये किया जाता है।
    • न्यायिक निर्णय: अमीना बेगम बनाम तेलंगाना राज्य (2023) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि निवारक निरोध एक असाधारण उपाय है और इसका मनमाना रूप से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
    • जसीला शाजी बनाम भारत संघ मामले (2024) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि बंदियों को उनकी हिरासत में आक्षेप करने हेतु उचित अवसर सुनिश्चित किया जाना चाहिये।

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