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शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968

  • 10 Sep 2024
  • 8 min read

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

हाल ही में उत्तर प्रदेश में एक भूखंड, जो पहले पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति के परिवार के स्वामित्व में था, शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 (Enemy Property Act, 1968) के तहत नीलाम होने वाला है। यह घटनाक्रम भारत में शत्रु संपत्तियों के प्रबंधन और समाधान के बारे में चल रही चर्चाओं पर प्रकाश डालता है।

शत्रु संपत्ति अधिनियम क्या है?

  • अधिनियमन: शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद "शत्रु विदेशी" या "शत्रु विषय" के रूप में वर्गीकृत व्यक्तियों के स्वामित्व वाली संपत्तियों को विनियमित करने के लिये अधिनियमित किया गया था।
  • शत्रु संपत्ति की परिभाषा: इसका तात्पर्य उन व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा छोड़ी गई संपत्तियों से है, जो वर्ष 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्धों और 1962 के चीन-भारत युद्ध जैसे संघर्षों के बाद दुश्मन देशों (पाकिस्तान और चीन) में चले गए थे।
    • इन संपत्तियों को शुरू में भारत रक्षा नियम, 1962 के तहत अधिग्रहित किया गया था, जो कि भारत रक्षा अधिनियम, 1962 के तहत अधिनियमित किये गए थे और गृह मंत्रालय के तहत एक विभाग भारत के शत्रु संपत्ति संरक्षक (CEPI) के पास निहित थे।
    • भारत और पाकिस्तान के बीच वर्ष 1966 के ताशकंद घोषणापत्र में ऐसी संपत्तियों की वापसी के बारे में चर्चा शामिल थी, लेकिन पाकिस्तान ने वर्ष 1971 में इन संपत्तियों का निपटान कर दिया।
      • भारत ने शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 के तहत इन संपत्तियों पर अपना कब्ज़ा जारी रखा।
    • यह अधिनियम सरकार को ऐसी संपत्तियों की अभिरक्षा और प्रबंधन का अधिकार देता है, ताकि राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध उनका उपयोग रोका जा सके।
  • संशोधन: शत्रु संपत्ति (संशोधन और विधिमान्यकरण) विधेयक, 2016 को संसद द्वारा 2017 में पारित किया गया, जिसमें 1968 अधिनियम और 1971 सरकारी स्थान (अप्राधिकृत अधिभोगियों की बेदखली) अधिनियम को संशोधित किया गया।
    • इसने "शत्रु विषय" और "शत्रु फर्म" की परिभाषाओं को व्यापक बनाते हुए, इसमें शत्रु के कानूनी उत्तराधिकारी और उत्तराधिकारी को शामिल किया है, चाहे वह भारत का नागरिक हो या किसी गैर-शत्रु देश का नागरिक हो, साथ ही शत्रु फर्म की उत्तराधिकारी फर्म को भी शामिल किया है, भले ही उसके सदस्यों या भागीदारों की राष्ट्रीयता कुछ भी हो।
    • वर्ष 2017 के संशोधन में स्पष्ट किया गया कि शत्रु संपत्ति सरकार के नियंत्रण में रहेगी, भले ही मूल शत्रु की स्थिति बदल जाए।
  • प्रमुख कानूनी मिसालें:
    • भारत संघ बनाम राजा मोहम्मद आमिर मोहम्मद खान मामला, 2005: महमूदाबाद के राजा के पास उत्तर प्रदेश में संपत्ति थी। विभाजन के बाद वे वर्ष 1957 में पाकिस्तान चले गए और पाकिस्तानी नागरिकता प्राप्त कर ली, जिसके कारण उनकी संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित कर दिया गया।
      • उनकी पत्नी और पुत्र भारतीय नागरिक के रूप में भारत में ही रहे और राजा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र ने उनकी सम्पत्तियों पर अपना दावा पेश किया तथा उन्हें शत्रु सम्पत्ति के रूप में वर्गीकृत किये जाने को चुनौती दी।
      • भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court- SC) ने माना कि चूंकि पुत्र भारतीय नागरिक है, इसलिये वह अपने पिता की संपत्ति वापस पाने का हकदार है। संपत्ति को शत्रु संपत्ति नहीं माना जा सकता क्योंकि असली वारिस भारत का नागरिक है।
      • प्रभाव: सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद पाकिस्तान चले गए लोगों के रिश्तेदारों ने कई दावे किये। जवाब में, सरकार ने अदालतों को शत्रु संपत्तियों की वापसी का आदेश देने से रोकने के लिये अध्यादेश जारी किये और अंततः वर्ष 2017 में शत्रु संपत्ति (संशोधन और मान्यता) अधिनियम पारित किया।
    • लखनऊ नगर निगम एवं अन्य बनाम कोहली ब्रदर्स कलर लैब प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य मामला, 2024: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शत्रु संपत्ति को कस्टोडियन में निहित करना अस्थायी है। भारत संघ स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि मूल मालिक से कस्टोडियन को स्वामित्व का कोई हस्तांतरण नहीं होता है, और इस प्रकार सरकार को कोई स्वामित्व अधिकार हस्तांतरित नहीं होता है।

सरकारी स्थान (अप्राधिकृत अधिभोगियों की बेदखली) अधिनियम, 1971

  • इसे आम तौर पर सार्वजनिक परिसर अधिनियम के रूप में जाना जाता है और इसे सार्वजनिक संपत्ति पर अनधिकृत कब्ज़े के मुद्दे को हल करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
  • सरकारी स्थान की परिभाषा: अधिनियम की धारा 2(e) के तहत, ‘सरकारी स्थान’ में शामिल हैं:
    • केंद्र सरकार से संबंधित या पट्टे पर दी गई संपत्तियाँ।
    • संसद के किसी भी सदन के सचिवालय के नियंत्रण में परिसर।
    • केंद्र सरकार की महत्त्वपूर्ण शेयरधारिता वाली कंपनियों, केंद्रीय अधिनियमों द्वारा स्थापित निगमों, विश्वविद्यालयों और प्रौद्योगिकी संस्थानों द्वारा नियंत्रित संपत्तियाँ।
  • अधिभोगियों और भू-स्वामियों के लिये निहितार्थ:
    • अप्राधिकृत अधिभोगी: अधिनियम बेदखली के लिये एक कठोर तंत्र प्रदान करता है, जो कानूनी सहारे के लिये सीमित अवसर प्रदान करता है। न्यायालय लगातार इस सिद्धांत को कायम रखते हैं कि सरकारी स्थान उनके इच्छित उपयोग के लिये उपलब्ध होना चाहिये और अप्राधिकृत कब्ज़ा इस उद्देश्य को कमज़ोर करता है।
    • भू-स्वामी (सरकारी निकाय/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम): यह अधिनियम कब्ज़े वाली संपत्तियों की पुनः प्राप्त करने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करता है। हालाँकि, अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिएक कि बेदखली की प्रक्रिया निष्पक्ष और उचित हो, तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाए। न्यायिक व्याख्याएँ इस बात पर बल देती हैं कि यद्यपि एस्टेट अधिकारियों के पास पर्याप्त शक्तियाँ हैं, इनका प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये।
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