वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट, 2018 | 18 Nov 2017

संदर्भ

  • विश्व बैंक द्वारा हाल ही में जारी वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट, 2018 (World Development Report, 2018) में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने की राह में मौज़ूद चुनौतियों को संबोधित किया गया है।
  • 4 दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है जब विश्व बैंक ने अपनी वार्षिक डेवलपमेंट रिपोर्ट में शिक्षा का ज़िक्र किया है। इस लेख में हम वर्ल्ड बैंक डेवलपमेंट रिपोर्ट से संबंधित सभी बिन्दुओं पर चर्चा करेंगे।
  • लेकिन, शिक्षागत समस्याओं पर केन्द्रित इस रिपोर्ट के बारे में जानने से पहले शिक्षा के क्षेत्र में हमारे पिछड़ेपन की तस्दीक करते कुछ आँकड़ों के बारे में जानना आवश्यक है।

शिक्षागत समस्याओं पर एक नज़र

  • यद्यपि हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेज़ी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, लेकिन शिक्षा के मोर्चे पर हमें एक लंबा सफर तय करना है।
  • हालाँकि, हमारा देश निरक्षरता की समस्या से निपटने के लिये कई प्रयास कर रहा है। भारत में शिक्षा की दयनीय स्थिति के द्योतक कुछ तथ्य हैं:

♦ वैश्विक शिक्षा रिपोर्ट-2004 (global education report-2004)  के अनुसार शिक्षा क्षेत्र में बेहतरी के मामले में भारत 127 देशों की सूची में 106वें स्थान पर था।
♦  भारत में सबसे ज़्यादा निरक्षर जनसंख्या है, दुनिया भर में निरक्षर लोगों की कुल संख्या में भारत का योगदान लगभग 34% है।
♦  भारत दुनिया की दस सबसे तेज़ी से वृद्धि कर रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, लेकिन दुनिया के एक तिहाई निरक्षर लोग अकेले यहीं रहते हैं।

  • आज़ादी के 70 सालों बाद भी हम शिक्षा व्यवस्था को विश्व-स्तरीय नहीं बना पाए हैं, खासकर गरीबों के लिये तो बेहतर शिक्षा आज भी एक लक्ज़री है।

वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट, 2018

  • रिपोर्ट का उद्देश्य:

♦ विश्व बैंक की ‘वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2018: लर्निंग टू रियलाइज एजुकेशन प्रॉमिस’ (“LEARNING to Realize Education’s Promise”) शिक्षा पर केंद्रित है। यह रिपोर्ट मुख्य रूप से चार विषयों पर गंभीरता से विचार करती है:

♦ शिक्षा का वादा।
♦ ‘सीखने की प्रक्रिया’ पर अधिक ज़ोर।
♦ कैसे स्कूलों में ‘सीखने की प्रक्रिया’ को बढ़ावा मिले?
♦ कैसे व्यवस्था को ‘सीखने की प्रक्रिया’ के अनुकूल बनाया जाए?

  • रिपोर्ट के मुख्य बिंदु:

♦ इस रिपोर्ट की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें केवल सामान्य रूप से शिक्षा पर चर्चा नहीं की गई है बल्कि कुपोषण और गरीबी से शिक्षा के अंतर्संबंध एवं इसके निजीकरण पर भी विस्तार से चर्चा की गई है।
♦ रिपोर्ट में कहा गया है कि लाखों युवाओं को जीवन में बेहतर करने का मौका इसलिये नहीं मिल पाता है क्योंकि उनके प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल उन्हें जीवन में सफल होने के लिये आवश्यक शिक्षा देने में नाकाम रहते हैं।
♦ रिपोर्ट में बताया गया है कि कम-आय वाले देशों में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में स्टंटिंग की दर समृद्ध देशों की तुलना में तीन प्रतिशत अधिक है।
♦ बचपन के स्टंटिंग के यानी अल्प-वृद्धि का प्रभाव वयस्कता में भी बना रहता है।
♦ इस रिपोर्ट के कई अन्य महत्त्वपूर्ण सुझावों में से सबसे अहम् सुझाव यह है कि भारत में प्राइवेट स्कूलों का भी प्रदर्शन सार्वजनिक विद्यालयों जैसा ही है।
♦ यानी इस रिपोर्ट के बिंदु इस प्रचलित अवधारणा की विरोधाभासी तस्वीर पेश करते हैं कि प्राइवेट स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जाती है।
♦ ग्रामीण भारत में तीसरी कक्षा के तीन चौथाई और पाँचवीं कक्षा के आधे से ज़्यादा छात्र दो अंकों का जोड़-घटाने वाला मामूली सवाल हल करने में सक्षम नहीं हैं।
♦ निम्न और मध्यम आय वाले 12 वैसे देशों की सूची में मालावी के बाद भारत दूसरे स्थान पर है जहाँ वैसे बच्चों की संख्या सबसे ज़्यादा है, जो कक्षा 2 में हैं और किसी संक्षिप्त पाठ का एक भी शब्द नहीं पढ़ सकते हैं।
♦ रिपोर्ट में कहा गया है कि बिना सीखने की प्रक्रिया को बढ़ावा दिये, शिक्षा के ज़रिये गरीबी को खत्म करने और सबको समृद्ध बनाने के विचार को अमलीजामा नहीं पहनाया जा सकता।

गुणवत्ता-रहित शिक्षा के दुष्परिणाम

  • बेरोज़गारी: दोयम दर्ज़े की शिक्षा प्रणाली बेरोज़गारी को जन्म देती है। इस व्यवस्था के ज़रिये शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने वाले छात्र अपने जीवन में आगे आने वाली समस्याओं को सुलझाने के लिये पर्याप्त योग्य नहीं बन पाते हैं।
  • जवाबदेहिता का अभाव: बेहतर शिक्षा से व्यक्ति ज़िम्मेदार बनता है और एक ज़िम्मेदार व्यक्ति देश के लिये सक्षम मानव संसाधन है, जो कि किसी भी अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिये अत्यंत ही आवश्यक है।
  • स्वास्थ्य चिंताएँ: एक भलीभाँति शिक्षित व्यक्ति अपने स्वास्थ्य को लेकर सज़ग रहता है। प्रायः यह देखा गया है कि जहाँ शिक्षा का स्तर कम होता है वहाँ के लोगों का स्वास्थ्य बेहतर नहीं रहता। बीमारियों के बढ़ने से स्वास्थ्य क्षेत्र पर दबाव तो बढ़ता ही है साथ में अर्थव्यवस्था भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।
  • शिक्षा का निजीकरण: गुणवत्ता रहित शिक्षा का एक दुष्परिणाम यह भी है कि प्राइवेट प्लेयर्स का शिक्षा क्षेत्र में उद्भव हुआ, जिससे शिक्षा के व्यावसायीकरण को बढ़ावा मिला।

शिक्षा व्यवस्था के बदहाली के कारण

  • अनुपयुक्त बुनियादी ढाँचा:

♦  भारत में अधिकांश विद्यालय अभी भी शिक्षा के अधिकार के बुनियादी ढाँचे के अनुरूप नहीं हैं।
♦  वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट, 2018 में कहा गया है कि स्कूलों में इस्तेमाल करने योग्य शौचालयों के अभाव को लड़कियों के स्कूल छोड़ने का प्रमुख कारण है।
♦  दरअसल, स्कूलों में बड़ी संख्या में शौचालयों का निर्माण किया गया है, लेकिन ख़राब निर्माण एवं अन्य बुनियादी आवश्यकताओं के अभाव में इनका प्रयोग नहीं किया जा रहा है।

  • व्यय में असमानता:

♦  प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का मुख्य कारण शिक्षा पर होने वाले खर्च में भारी असमानता है।
♦  विदित हो कि केरल में प्रति व्यक्ति शिक्षा पर खर्च लगभग 42,000 रुपए है, वहीं बिहार समेत देश के अन्य राज्यों में यह रकम 6000 रुपए या इससे भी कम है।

  • सामाजिक भेदभाव: 

♦ भारतीय समाज में कई प्रकार के भेदभाव व्याप्त हैं, इसलिये महिलाओं, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक वर्गों की शिक्षा में कई बाधाएँ हैं।

  • भ्रष्टाचार: भारतीय शिक्षा प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार भी शिक्षा की गुणवत्ता को कम कर रहा है।
  • सीखने की प्रक्रिया का अभाव: हमारी शिक्षा व्यवस्था सीखने की कला विकसित करने के बजाय रटने-रटाने और बेहतर ग्रेड्स प्राप्त करने पर ज़्यादा बल देती है। यही कारण है कि डिग्री तो मिल जाती हैं, लेकिन अधिकांश युवा रोज़गार प्राप्त करने के लायक नहीं होते।

आगे की राह 

टी. एस. आर. सुब्रह्मण्यम समिति

गौरतलब है कि शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने हेतु गठित ’टी. एस. आर. सुब्रह्मण्यम समिति’ ने शिक्षा क्षेत्र के लिये कुछ अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये थे। इस समिति की 10 प्रमुख सिफारिशें हैं:
1. भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज़ पर ही एक अखिल भारतीय शिक्षा सेवा (Indian education service: IES) की स्थापना की जाए, जिसमें कैडर नियंत्रण का दायित्व मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय का हो।
2. समिति ने सुझाव दिया है कि बिना किसी विलम्ब के शिक्षा पर जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत खर्च किया जाए।
3. वर्तमान बीएड पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिये स्नातक स्तर पर 50% अंक प्राप्त करने की न्यूनतम पात्रता शर्त होनी चाहिये। सभी शिक्षकों की भर्ती के लिये शिक्षक प्रवेश परीक्षा (टीईटी) अनिवार्य करनी चाहिये। टीईटी के लिये केंद्र और राज्यों को संयुक्त रूप से मानदंडों और मानकों का निर्धारण करना चाहिये।
4. सरकारी और निजी स्कूलों में शिक्षकों के लिये अनिवार्य लाइसेंस या प्रमाणीकरण अनिवार्य किया जाना चाहिये, प्रत्येक 10 वर्षों में स्वतंत्र एवं बाहरी परीक्षण के आधार पर इस लाइसेंस के नवीकरण का प्रावधान किया जाए।
5. 4 से 5 आयु वर्ग के बच्चों के लिये स्कूल जाने से पहले दी जाने वाली शिक्षा को भी ‘शिक्षा के अधिकार’ के अंतर्गत लाया जाना चाहिये और इसके लिये तुरंत एक कार्यक्रम लागू किया जाना चाहिये। गौरतलब है कि वर्तमान में ‘शिक्षा के अधिकार’ के दायरे में 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को ही निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा शामिल है।
6. बच्चों को फेल नहीं करने की नीति जारी रहनी चाहिये लेकिन पाँचवीं तक ही, माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर बच्चों को फेल करने की नीति बहाल की जाए। साथ में फेल हुए बच्चे को उपचारी शिक्षा देने की व्यवस्था का भी प्रावधान किया जाना चाहिये और उन्हें अगले दर्ज़े में जाने की अपनी योग्यता सिद्ध करने के कम से कम दो मौके दिये जाने चाहियें।
7. छात्रों की असफलता दर में कमी लाने के लिये गणित, विज्ञान एवं अंग्रेज़ी में 10वीं कक्षा की परीक्षा दो चरणों में लेने का सुझाव दिया गया है। इसमें पहला भाग उच्च स्तर पर (भाग ‘ए’) और दूसरा भाग निम्न स्तर पर ( भाग ‘बी’ होगा)। 10वीं कक्षा के बाद के वैसे पाठ्यक्रमों जिनमें विज्ञान, गणित या अंग्रेज़ी जैसे विषयों की ज़रूरत नहीं होगी, उनमें शामिल होने के इच्छुक छात्र भाग-बी स्तर की परीक्षा का विकल्प चुन सकते हैं।
8. मिड-डे-मील योजना का विस्तारण करते हुए इसमें दसवीं तक के बच्चों को शामिल किया जाए। यह आवश्यक इसलिये है क्योंकि किशोरों में भी कुपोषण की समस्या अधिक है।
9. देश के संस्थानों को विश्व के श्रेष्ठ संस्थानों की सूची में स्थान नहीं मिलने को देखते हुए समिति ने उच्च शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिये सुझाव दिया कि विदेश के उच्च गुणवत्ता वाले शीर्ष 200 संस्थानों को भारत में आने की अनुमति दी जानी चाहिये। लेकिन ऐसे संस्थानों को उचित नियंत्रण के साथ यह अनुमति मिले।
10. समिति ने कौशल बढ़ाने वाली और रोज़गारोन्मुखी शिक्षा पर भी ज़ोर दिया है। यूजीसी और एआईसीटीई को शामिल कर शिक्षा के लिये रेगूलेटरी तंत्र बनाने की भी सिफारिश की गई है। साथ ही यूजीसी को चुस्त-दुरुस्त बनाने की बात भी कही गई है।

वर्तमान तस्वीर

  • पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में कुछ वर्ष पहले नई शिक्षा नीति बनाने के लिये समिति की रिपोर्ट पर अमल नहीं हुआ तथा एक नई समिति भारत के अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में गठित कर दी गई।
  • नई शिक्षा नीति पर काम करने वाली इस समिति में अध्यक्ष सहित विभिन्न विशेषज्ञता और शैक्षणिक योग्यता वाले 9 लोगों को शामिल किया गया है।
  • इस विविधता से समिति को महत्त्वपूर्ण नीतिगत दस्तावेज़ तैयार करते समय विभिन्न मुद्दों को ध्यान में रखने में मदद मिलेगी। टी.एस.आर. सुब्रमण्यम समिति के सुझावों का भी नई समिति अपनी रिपोर्ट में इस्तेमाल करेगी।

निष्कर्ष

विश्व बैंक की यह रिपोर्ट निश्चित भारत के लिये आँखें खोलने वाली होनी चाहिये, हालाँकि ऐसा नहीं है कि इससे पहले हम सुधारों के बारे में अनजान थे, फिर भी हम विफल रहे। अतः ज़रूरत इस बात की है कि अन्य सुधारों के साथ-साथ उचित प्रशासन मानकों, सरकार द्वारा पर्याप्त प्रोत्साहन और चेक और बैलेंस की नीति अपनाई जाए।