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सामाजिक न्याय

भारत में महिला श्रम बल की भागीदारी

  • 24 Jun 2019
  • 16 min read

इस Editorial में देश में महिला श्रमिकों की स्थिति पर चर्चा करते हुए इसके सभी पक्षों का विश्लेषण किया गया है। साथ ही महिला श्रम बल की दयनीय स्थिति में सुधार के उपायों के बारे में भी जानकारी दी गई है।

संदर्भ

हाल ही में रोज़गार पर सांख्यिकी मंत्रालय की ओर से जारी आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण रिपोर्ट 2017-18 के मुताबिक, देश में आज़ादी के सात दशकों के बाद पहली बार नौकरियों में शहरी महिलाओं की हिस्सेदारी पुरुषों से अधिक हो गई है। शहरों में कुल 52.1% महिलाएँ और 45.7% पुरुष कामकाजी हैं। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ नौकरियों में अभी भी पुरुषों से पीछे हैं, हालाँकि पिछले छह वर्षों में उनकी हिस्सेदारी दोगुनी हुई है और यह 5.5% से 10.5% तक पहुँच गई है। शहरी कामकाजी महिलाओं में से 52.1% नौकरीपेशा, 34.7% स्वरोज़गार तथा 13.1% अस्थायी श्रमिक हैं। इससे पहले 2011-12 में हुए NSSO सर्वे में शहरी नौकरीपेशा महिलाओं का प्रतिशत 42.8 था और इतनी ही महिलाएँ स्वरोज़गार में थीं तथा 14.3% अस्थायी श्रमिक थीं। गौर से देखने पर पता चलता है कि पिछले छह वर्षों में स्थिति बदली है और स्वरोज़गार एवं अस्थायी मज़दूरों में महिलाओं की हिस्सेदारी घटी है, जबकि नौकरी में उनकी हिस्सेदारी करीब 10% बढ़ी है।

फिर भी बेहतर नहीं हैं हालात

भारत जैसे देश में महिला श्रम बल भागीदारी को सही मायनों में अर्थव्यवस्था के विकास का इंजन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। महिला श्रम बल भागीदारी दर की स्थिति को देखते हुए देश के तीव्र विकास कर सकने की क्षमता का संकेत प्राप्त होता है। हालाँकि श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी और वृहद् विकास परिणाम के बीच का संबंध बेहद जटिल है।

  • श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी के मामले में विकासशील देशों और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में व्यापक अंतर भी नज़र आता है। यह अंतर पुरुषों की भागीदारी में अंतर की तुलना में कहीं अधिक व्यापक है।
  • मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण एशिया में कामकाजी आयु की महिलाओं में से एक-तिहाई से भी कम की श्रम बल में भागीदारी है, जबकि पूर्वी एशिया और उप-सहारा अफ्रीका में यह अनुपात लगभग दो-तिहाई तक है।
  • यह भिन्नता आर्थिक विकास, शिक्षा के स्तर में वृद्धि, प्रजनन दर में गिरावट और सामाजिक मानदंडों जैसे कई आर्थिक व सामाजिक कारकों से प्रेरित है।
  • इसके अतिरिक्त विकासशील देशों में यह अंतर अधिक स्पष्ट है और दक्षिण एशियाई देशों में यह असमानता सबसे अधिक नज़र आती है।
  • दक्षिण एशिया में महिला श्रम बल भागीदारी दर वर्ष 2013 में मात्र 30.5 प्रतिशत थी, जबकि पुरुषों के मामले में यह दर 80.7 प्रतिशत थी।
  • इस भूभाग में महिला श्रम बल भागीदारी दर में उल्लेखनीय विविधता नजर आती है और पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं, अवसरों तथा रूढ़ियों का सकल परिणामों पर असर लगातार पड़ता रहता है।
  • दीर्घावधिक रुझान दर्शाते हैं कि बांग्लादेश में महिलाओं की श्रम बल भागीदारी में वृद्धि हुई है, जो रेडीमेड वस्त्र क्षेत्र के विकास और सूक्ष्म-ऋण (माइक्रो-क्रेडिट) के प्रसार से विशेषकर ग्रामीण महिला रोज़गार की स्थिति में वृद्धि के कारण हुई है।
  • इस भूभाग में नेपाल (जहाँ महिला श्रम बल भागीदारी वर्ष 2010-11 में 79.4 प्रतिशत तक पहुँच गई थी) और मालदीव (वर्ष 2009-10 में 54 प्रतिशत) के बाद बांग्लादेश ने सबसे बेहतर प्रदर्शन किया है।
  • महिला श्रम बल भागीदारी दर में पाकिस्तान में भी वृद्धि हुई है (हालाँकि यह वृद्धि बेहद कम है और शहरी क्षेत्र में यह भागीदारी विशेष रूप से कम है) जबकि श्रीलंका में यह भागीदारी अपेक्षाकृत स्थिर बनी हुई है (जबकि हाल के वर्षों में श्रीलंका ने मज़बूत आर्थिक विकास दर्ज किया है और उसके सामाजिक संकेतकों में व्यापक सुधार आया है)।
  • सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रवृत्ति यह नज़र आई है कि भारतीय श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी में गिरावट आ रही है, लेकिन कुल श्रम बल में उनका प्रतिशत बढ़ रहा है। यह परिदृश्य तब है जबकि अर्थव्यवस्था का विकास हो रहा है और मजदूरी व आय में वृद्धि हो रही है।

भारत में महिला श्रम बल भागीदारी में गिरावट

  • दीर्घावधिक रुझान दर्शाते हैं कि भारत में महिला श्रम भागीदारी की स्थिति समस्याजनक है। महिला भागीदारी दर वर्ष 1999-2000 के 34.1 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2011-12 में 27.2 प्रतिशत हो गई जबकि भागीदारी दर में व्यापक लैंगिक अंतराल भी बना रहा।
  • इसके अतिरिक्त शहरी और ग्रामीण भागीदारी दर में व्यापक अंतराल बना हुआ है।
  • ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी दर वर्ष 2009-10 के 26.5 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2011-12 में 25.3 प्रतिशत हो गई, जबकि इसी अवधि में शहरी महिलाओं की भागीदारी दर 14.6 प्रतिशत से बढ़कर 15.5 प्रतिशत हो गई।
  • महिला श्रम बल भागीदारी दर में कोई समग्र परिवर्तन नहीं आया है और इसे 22.5 प्रतिशत (सभी आयु वर्ग के लिये) आकलित किया गया, जो वर्ष 2009-10 में 23.3 प्रतिशत दर्ज किया गया था।
  • इस परिप्रेक्ष्य में, ग्रामीण क्षेत्रों में महिला श्रम बल भागीदारी दर में नियमित गिरावट की प्रवृत्ति नजर आती है, जबकि शहरी क्षेत्रों में इसमें मामूली वृद्धि देखने को मिली है।
  • वर्ष 2011-12 के नवीनतम आँकड़ों से यह भी उजागर होता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं का न्यून अनुपात कार्यरत था और वर्ष 2009-10 की तुलना में भी वे प्रायः सहायक या अधिक सीमांत रोजगार में संलग्न थीं।

भारत में महिला श्रम बल भागीदारी में कमी के प्रमुख कारण

  • श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी का निर्णय और उनकी समर्थता उन विभिन्न आर्थिक व सामाजिक कारकों पर निर्भर होता है, जो पारिवारिक स्तर और स्थूल-स्तर (मैक्रो-लेवल) पर जटिल रूप से सामने आते हैं। वैश्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि इसमें शैक्षणिक योग्यता, प्रजनन दर व विवाह की आयु, आर्थिक विकास/चक्रीय प्रभाव और शहरीकरण जैसे घटक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन विषयों के साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका को निर्धारित करने वाले सामाजिक मानदंडों का भी प्रभाव पड़ता है।

चार मुख्य बिंदुओं पर केंद्रित

भारत में महिला श्रम बल भागीदारी में गिरावट की प्रवृत्ति पर जारी विमर्श चार मुख्य बिंदुओं पर केंद्रित रहा है: 1. युवा महिलाओं के शैक्षणिक नामांकन में वृद्धि; 2. रोज़गार अवसरों की कमी; 3. भागीदारी पर पारिवारिक आय का प्रभाव और 4. आकलन विधि।

पिछले लगभग एक दशक में भारत ने शिक्षा तक स्त्रियों की पहुँच के मामले में उल्लेखनीय प्रगति की है, जो माध्यमिक विद्यालयों में कामकाजी आयु की स्त्रियों के नामांकन के बढ़ते स्तर से प्रकट होता है।

इसका कारण यह भी है कि देश में आर्थिक विकास की प्रकृति ऐसी रही कि उन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में रोज़गार का सृजन नहीं हुआ, जो महिलाओं को, विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है।

अपर्याप्त रोज़गार सृजन के बावजूद पारिवारिक आय में वृद्धि हुई, जिसकी वज़ह से संभावित रूप से महिलाओं की भागीदारी में कमी आई, विशेष रूप से प्राथमिकताओं में परिवर्तन के कारण उनकी सहायक गतिविधियों में कमी आई (इसे ‘आय प्रभाव’ कहा जाता है)।

नहीं दर्ज होते महिलाओं के घरेलू कामकाज के अधिकांश आँकड़े

  • भारत में अधिकांश महिलाएँ कार्यरत हैं और किसी-न-किसी रूप में अर्थव्यवस्था में योगदान कर रही हैं, लेकिन उनके अधिकांश कार्य दर्ज नहीं होते अथवा आधिकारिक आँकड़ों में उन्हें कोई जगह नहीं मिलती और उनकी कार्य भागीदारी के पुष्ट आँकड़े प्राप्त नहीं हो पाते।
  • भारत में महिलाओं का एक बड़ा अनुपात अपनी कार्य-स्थिति को घरेलू कार्य के रूप में दर्ज कराता है अर्थात अधिकांश महिलाएँ घरेलू कामकाज में संलग्न रहती हैं।
  • वर्ष 2011-12 में 35.3 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ और 46.1 प्रतिशत शहरी महिलाएँ घरेलू कार्यों में संलग्न थीं, जबकि वर्ष 1993-94 में यह संख्या क्रमशः 29 प्रतिशत और 42 प्रतिशत थी।
  • इस प्रकार त्रुटिपूर्ण आकलन न केवल स्तर को प्रभावित करता है बल्कि भागीदारी दर के रुझान को भी गलत दर्शाता है।
  • सामान्यतः यह बात भी उल्लेखनीय है कि घरेलू कार्यों में संलग्न महिलाओं का एक बड़ा प्रतिशत तभी कार्य करने का इच्छुक था यदि कार्य उन्हें घर में ही उपलब्ध हो।
  • घरेलू कार्यों में सामान्यतः संलग्न कुल महिलाओं के 34 प्रतिशत (ग्रामीण क्षेत्र में) और 28 प्रतिशत (शहरी क्षेत्र में) ने कार्य करने की इच्छा प्रकट की और शहरी-ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में सिलाई-कढ़ाई के कार्य को सबसे पसंदीदा कार्य बताया।
  • अपने गृह परिसर में उपलब्ध कार्य की इच्छा रखने वाली महिलाओं में से लगभग 95 प्रतिशत (ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों में) ने नियमित रूप से उपलब्ध कार्य करने की इच्छा जताई।
  • ग्रामीण क्षेत्रों की 74 प्रतिशत व शहरी क्षेत्रों की 70 प्रतिशत महिलाओं ने नियमित रूप से उपलब्ध ‘अंशकालिक’ (पार्टटाइम) कार्य करने की इच्छा जताई, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों की 21 प्रतिशत व शहरी क्षेत्रों की 24 प्रतिशत महिलाओं ने नियमित रूप से उपलब्ध ‘पूर्णकालिक’ रोज़गार की इच्छा जताई।
  • (उपरोक्त आँकड़े अक्तूबर 2014 में किये गए एक अध्ययन पर आधारित हैं)

वृहद् दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता

महिला श्रम बल भागीदारी और उपयुक्त कार्य तक उनकी पहुँच समावेशी और सतत विकास प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण और आवश्यक तत्त्व हैं। श्रम बाज़ार में प्रवेश और उपयुक्त कार्य तक पहुँच की राह में महिलाओं के लिये विभिन्न बाधाएँ बनी हुई हैं और उन्हें रोज़गार तक पहुँच, कार्य के चयन, कार्य स्थिति, रोज़गार सुरक्षा, समान मजदूरी, भेदभाव और कार्य का बोझ व पारिवारिक उत्तरदायित्व के बीच संतुलन बनाए रखने जैसी विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं का अत्यधिक प्रतिनिधित्व मौजूद है, जहाँ उनके शोषण का जोखिम भी अत्यधिक होता है और उन्हें न्यूनतम औपचारिक सुरक्षा मिलती है।

क्या किया जाना चाहिये?

इन तथ्यों पर विचार करते हुए भारत और इस संपूर्ण भूभाग के नीति-निर्माताओं को महिलाओं के लिये श्रम बाज़ार परिणामों में सुधार हेतु एक वृहद् दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।

  • इसके लिये शैक्षणिक व प्रशिक्षण कार्यक्रमों की पहुँच एवं उपयुक्तता, कौशल विकास, शिशु देखभाल की व्यवस्था, मातृत्व सुरक्षा और सुगम व सुरक्षित परिवहन के साथ-साथ ऐसे विकास प्रारूप को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है, जो रोज़गार अवसरों का सृजन करे।
  • मानक श्रम बल भागीदारी दर की प्राप्ति के लक्ष्य से आगे बढ़ते हुए नीति-निर्माताओं को यह देखना चाहिये कि बेहतर रोज़गार तक पहुँच अथवा बेहतर स्वरोज़गार तक महिलाओं की पहुँच हो रही है या नहीं और देश के विकास के साथ उभरते नए श्रम बाज़ार अवसरों का लाभ वे उठा पा रही हैं या नहीं।
  • महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित कर इन्हें सक्षम बनाने वाले नीतिगत ढाँचे का निर्माण किया जाना चाहिये, जहाँ महिलाओं के समक्ष आने वाली लैंगिक बाधाओं के प्रति सक्रिय जागरूकता मौजूद हो। इस क्रम में लैंगिक असमानता दूर करने वाली प्रभावी नीतियों को विकसित किये जाने की आवश्यकता है।
  • अंततः लक्ष्य केवल यह नहीं है कि महिला श्रम बल भागीदारी में वृद्धि हो, बल्कि उन्हें उपयुक्त कार्य के लिये उपयुक्त अवसर प्रदान करना है, जो महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण में योगदान करेगा।

अभ्यास प्रश्न: श्रम बल में पर्याप्त हिस्सेदारी के बावजूद देश में महिला श्रमिकों की स्थिति दयनीय है। इसमें सुधार करने के लिये आवश्यक उपायों की चर्चा कीजिये।

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