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भारतीय अर्थव्यवस्था

न्यूनतम समर्थन मूल्य का सुचारु क्रियान्वयन क्यों है ज़रूरी?

  • 05 May 2018
  • 13 min read

चर्चा में क्यों?
सरकार द्वारा किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने के लिए प्रारंभ की गई न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) नीति एक मज़बूत खरीद नीति और संबंधित रख-रखाव संबंधी सुविधा के बिना असफल होने को बाध्य हो रही है।

क्या है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी)?

  • न्यूनतम समर्थन मूल्य वह न्यूनतम मूल्य होता है, जिस पर सरकार किसानों द्वारा बेचे जाने वाले अनाज की पूरी मात्रा क्रय करने के लिये तैयार रहती है।
  • जब बाज़ार में कृषि उत्पादों का मूल्य गिर रहा हो, तब सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों को क्रय कर उनके हितों की रक्षा करती है।
  • सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा फसल बोने से पहले करती है।
  • न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा सरकार द्वारा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की संस्तुति पर वर्ष में दो बार रबी और खरीफ के मौसम में की जाती है। 

 कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP)

  • कृषि लागत एवं मूल्य आयोग भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय का एक संलग्न कार्यालय है। यह आयोग जनवरी1965 में अस्तित्व में आया।
  • यह आयोग कृषि उत्पादों के संतुलित एवं एकीकृत मूल्य संरचना तैयार करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सलाह देता है।
  • इस आयोग के द्वारा 24 कृषि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी किये जाते हैं।
  • इसके अतिरिक्त गन्ने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की जगह उचित एवं लाभकारी मूल्य की घोषणा की जाती है। गन्ने का मूल्य निर्धारण आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति द्वारा अनुमोदित किया जाता है।

एमएसपी के निर्धारक कारक - विभिन्न वस्तुओं की मूल्य नीति की सिफारिश करते समय कृषि लागत एवं मूल्य आयोग निम्नलिखित कारकों  को ध्यान में रखता है:

♦ मांग और आपूर्ति
♦ उत्पादन की लागत
♦ घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों बाज़ार में मूल्य प्रवृत्तियाँ
♦ अंतर-फसल मूल्य समता
♦ कृषि और गैर-कृषि के बीच व्यापार की शर्तें
♦ उस उत्पाद के उपभोक्ताओं पर एमएसपी का संभावित प्रभाव।

न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण का उद्देश्य: 

  • न्यूनतम समर्थन मूल्य का मुख्य उद्देश्य किसानों को बिचौलियों के शोषण से बचाकर उनकी उपज का अच्छा मूल्य प्रदान करना और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये अनाज की खरीद करना है। 
  • यदि किसी फसल का बम्पर उत्पादन होने या बाजार में उसकी अधिकता होने के कारण उसकी कीमत घोषित मूल्य की तुलना में कम हो जाती है तो सरकारी एजेंसियाँ किसानों की अधिकांश फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद लेती हैं।

न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण संबंधी मुद्दे:
न्यूनतम समर्थन मूल्य  के निर्धारण संबंधी पाँच प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं-

पहला :

  • न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की अवधारणा ने बाज़ार को विकृत कर दिया है। यह धान और गेहूँ के लिये  प्रभावी है, जबकि यह अन्य फसलों के लिये  केवल संकेत है।
  • एमएसपी को बाज़ार  की गतिशीलता के साथ जोड़ने के बजाय, किसानों के हितों के अनुरूप बढ़ाने से कीमत निर्धारण प्रणाली विकृत हो गई है।
  • इसलिये, जब सोयाबीन की  एमएसपी बढ़ती है, तब बाज़ार  की कीमतों में बढ़ोतरी होगी, भले ही फसल अच्छी हो, क्योंकि एमएसपी एक बेंचमार्क तय  करती  है। एमएसपी एक उचित बाज़ार  मूल्य  बनने के बजाय आय-निर्धारित करने वाली  बन जाती  है। इसका मुद्रास्फीति में भी योगदान है।

दूसरा:

  • एमएसपी विभिन्न वर्गों के बीच अंतर नहीं करता है; बल्कि यह एक औसत उचित गुणवत्ता को संदर्भित करता है।
  • उच्च गुणवत्ता की फसल को आधार मूल्य पर बिक्री के लिये बाध्य करने से, किसानों और व्यापारियों दोनों की स्थिति एक जैसी हो जाती है।
  • ऐसी नीतियाँ किसानों को अपने मानकों को कम करने और निम्न किस्मों के उत्पादन के लिये प्रेरित करेंगी जिससे क्रेता कम गुणवत्ता वाली अन्न के लिये उच्च मूल्य का भुगतान करने को अनिच्छुक होगा और इससे गतिरोध हो सकता है।

तीसरा:

  • धान और गेहूँ के लिये  खरीद तय की गई है, जो सीधे पीडीएस से जुड़ी हुई है। एक के पीछे एक व्यवस्था अच्छी तरह से काम करती है, लेकिन यह कुछ विशिष्ट फसलों तक सीमित होती है।
  • इसके अलावा, एक खुली समाप्ति योजना (ओपन एंडेड स्कीम) होने पर, एफसीआई के पास अधिशेष अनाज का बाढ़ आ जाता है, जिससे भंडारण और अपव्यय की समस्याएँ  उत्पन्न होती हैं।
  • इससे पूर्व भी यह देखा गया है कि दालों, चीनी और तिलहन के उत्पादन में तेज़ी आने से बाज़ार की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसलिये ऐसी सभी भेद्य (vulnerable) वस्तुओं का न्यूनतम स्टॉक बनाए रखने की आवश्यकता है।

चौथा: 

  • थोक व्यापारी और फुटकर विक्रेता द्वारा जमा की जाने वाली राशि को प्रतिबंधित करने के लिये आवश्यक वस्तु अधिनियम को किसी भी समय लागू किया जा सकता है।
  • चूँकि, यह अवधारणा सही लगती है, क्योंकि यह जमाखोरी से निपट सकती है, परंतु जो बात भुला दी जाती है वह यह है कि अधिकांश फसलें वर्ष में एक बार ही काटी  जाती हैं  और शेष वर्ष के लिये  संग्रहीत की जाती हैं।
  • किसी न किसी को फसल का भण्डारण करना ही पड़ता है, अन्यथा इसे उपभोक्ताओं के लिये पूरे वर्ष उपलब्ध नहीं किया जा सकता है।
  • इसमें गुणवत्ता के नुकसान के जोखिम के साथ-साथ लागत की जोखिम भी शामिल है, जो मध्यस्थ द्वारा वहन किया जाता है। अतः प्रश्न यह है कि कोई भंडारण और संग्रहण के बीच अंतर कैसे कर सकता है?

पाँचवा:

  • कृषि उत्पादों के लिये  हमारी व्यापार नीति भी विकृत है। जैसे जब अन्न के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रहता है तब फसल उत्पादन में कमी के समय, अन्न की कमी की पहचान करने और बोली प्रक्रिया के माध्यम से आयात करने में अधिक समय लग जाता है।
  • कई बार ऐसा भी हुआ है कि जब तक अन्न का आयात होता है, तब तक  मूल्य  सामान्य हो जाता है।

कृषि से जुड़े जोखिम

  • भारत में कृषि को एक जोखिम भरा व्यवसाय माना जाता है। किसानों को फसलों के रोपण से लेकर अपने उत्पादों के लिये बाज़ार खोजने तक जोखिमों का सामना करना पड़ता है।
  • भारत में कृषि में जोखिम फसल उत्पादन, मौसम की अनिश्चितता, फसल की कीमत, ऋण और नीतिगत फैसलों से जुड़े हैं।
  • जबकि कीमतों में जोखिम का मुख्य कारण पारिश्रमिक लागत से भी कम आय, बाज़ार की अनुपस्थिति और बिचौलियों द्वारा अत्यधिक मुनाफा कमाना है।
  • बाज़ारों की अकुशलता और किसानों के उत्पादों की विनाशशील प्रकृति, उत्पादन को बनाए रखने में उनकी असमर्थता, अधिशेष या कमी के परिदृश्यों में बचाव या घाटे के खिलाफ बीमे में बहुत कम लचीलेपन के कारण कीमतों में जोखिम बहुत अधिक है।

समस्या से निजात के उपाय?

  • राष्ट्रीय कृषि बाज़ार किसान को उसकी आय की सुरक्षा के बजाय, अन्न उत्पादकता बढ़ाने के लिये  प्रोत्साहन मिलना चाहिये जिसका अर्थ बीज और सिंचाई तक पहुँच हो सकती है।
  • राष्ट्रीय कृषि बाज़ार  को मूर्त  रूप देना इसका दीर्घकालिक समाधान है, लेकिन इसे अनुबंध खेती से या कस्बों और शहरों में प्रत्यक्ष बिक्री के साथ जोड़ने से यह और बेहतर हो सकता है।
  • मांग-आपूर्ति गतिशीलता को प्रतिबिंबित करने के लिये कीमतें हमेशा बाज़ार द्वारा निर्धारित की जानी चाहिये, एवं इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये।
  • फसलों का बीमा किसानों की आय बढ़ाने के लिये  कीमतों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि समस्याग्रस्त क्षेत्रों में सभी फसलों का बीमा हो।
  • सभी कृषि ऋणों को बीमा से जोड़ा जाना चाहिये ताकि बैंक को ऋण हानि से सुरक्षा मिल सके।
  • भारत में ऋण माफी की अवधारणा स्वाभाविक रूप से दोषपूर्ण है। किसी भी ऋण को क्षमा करना एक नैतिक संकट पैदा करता है और इससे किसान को एक प्रतिकूल प्रोत्साहन मिलता है अर्थात किसानों को उम्मीद होती है कि भविष्य में फिर इसी तरह की छूट मिल सकती है।
  • अंततः यह राज्य वित्त के लिये भयावह हो जाता है। अतः एमएसपी को खरीद के साथ जोड़ा जाना चाहिये  और इसकी एक सीमा होनी चाहिये अन्यथा बाज़ार में फिर विकृति उत्पन्न होगी। 
  • ऋण माफी अंतिम उपाय होना चाहिये और हमेशा सशर्त होना चाहिये, ताकि धोखा देने के लिये  कोई प्रोत्साहन न हो।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता स्तर भी एक चुनौती है। इन उपर्युक्त जोखिमों को कम करने से कृषि आय और मुनाफे में वृद्धि हो सकती है, लेकिन आज भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।
  • साथ ही, नीतिगत फैसलों और विनियमों से संबंधित कृषि जोखिमों को दूर करने के लिये व्यापार नीति और व्यापारियों के लिये स्टॉक की सीमा की घोषणा फसल लगाने से पहले घोषित की जानी चाहिये तथा इसे किसानों द्वारा कटी हुई फसल के बेचे जाने तक रहने दिया जाना चाहिये।

निष्कर्ष:
अतः यह कहा जा सकता है कि खेती की समस्या के निदान के लिये कृषि और खाद्य नीतियों को समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता है, क्योंकि इसकी कमी के परिणामस्वरूप अनिश्चित उत्पादन, संदिग्ध गुणवत्ता, मूल्य अस्थिरता और विकृत बाजारों का परिणाम ऐसे ही जारी रहेगा। इसके साथ ही हमें अल्पकालिक व भावपूर्ण दृष्टिकोण को अपनाने से भी बचना चाहिये।

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