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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

क्यों पिछड़ रही है भारतीय अर्थव्यवस्था ?

  • 17 Jan 2017
  • 8 min read

पृष्ठभूमि

  • भारत में बैंकों ने निकट भविष्य में कभी इतना तनाव अनुभव नहीं किया होगा| अवसंरचना निर्माण क्षेत्र में गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों की समस्या से जूझ रहे बैंकों की परेशानी में विमुद्रीकरण के बाद और वृद्धि हुई है| हालाँकि, सरकार का उद्देश्य सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों के लिये पूंजी का सृजन करना था, लेकिन बढ़ते राजकोषीय घाटे की चिंताओं से घिरी सरकार ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया|
  • दिसंबर 2016 में रिज़र्व बैंक द्वारा जारी वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में कहा गया है कि अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के सकल गैर-निष्पादित अग्रिमों का अनुपात 7.8 प्रतिशत से बढ़कर  9.1 प्रतिशत हो गया है| हालाँकि, रिज़र्व बैंक ने इस संबंध में तर्क दिया है कि बैंक अपने तुलन-पत्र (Balance sheet) को संतुलित कर रहे थे|

चिंताजनक आँकड़ें

  • अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों का बकाया गैर-खाद्य ऋण जो कृषि, सेवा क्षेत्र और व्यक्तिगत ऋण में बढ़ रहा था, अब औद्योगिक क्षेत्र में लगातार गिरता जा रहा है| बैंकों की ऋण देयताओं में लगातार कमी लगातार महसूस की जा रही है, ऊर्जा और दूर-संचार क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कमी देखी जा रही है| औद्योगिक क्षेत्र की कुल देयताएँ (ऋण के रूप में) 26,687 अरब से गिरकर 25,793 अरब हो गई हैं, और अगर ऊर्जा और दूर-संचार क्षेत्र की बात करें तो उनकी देयताएँ (ऋण के रूप में) 5,865 अरब से गिरकर 5,253 अरब हो गई हैं|
  • एक ओर, जहाँ ढाँचागत औद्योगिक निवेशों में कमी देखी जा रही है, वहीं एक प्रचलन यह भी देखने को मिला है कि बैंकों के बकाया खुदरा ऋण में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है| वर्ष 2014 में बैंकों का बकाया आवास ऋण जहाँ 5,946 अरब रुपए था, जो 2016 के अंत में बढ़कर 8,153 अरब रुपए हो गया| यह इस बात का परिचायक है कि बैंक अवसंरचना निर्माण के क्षेत्र में ऋण देने की बज़ाय खुदरा ऋण को अधिक सुरक्षित मानते हुए इसके लिये सुलभ ऋण की व्यवस्था कर रहे हैं; यह किसी भी अर्थव्यवस्था के लिये कतई शुभ संकेत नहीं है|
  • दरअसल, पिछले 15 सालों से भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास का मुख्य कारण ऋण पोषित वित्तीय निवेश रहा है, और अब जबकि अवसंरचना निर्माण क्षेत्र में निवेश से बैंकों का मोहभंग हो रहा है तो सरकार को इस संबंध में सुधारवादी कदम उठाने चाहियें| 
  • इस संबंध में एक मुख्य चिंता यह भी है कि निजी क्षेत्र इस बात के भरोसे निवेश करता है कि सरकार द्वारा आरम्भ किये गए उपक्रम उसके निवेश को मज़बूत करेंगे| पिछले साल विश्व बैंक ने कहा था कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र निवेश कर रहा है और निजी क्षेत्र उपभोग कर रहा है| विश्व बैंक का यह कहना इस बात का द्योतक है कि भारत में ऋण लेने को लेकर निजी क्षेत्र में उत्साह नहीं है|
  • सरकार ने उम्मीद लगाई थी कि विमुद्रीकरण के पश्चात् बैंकों में उल्लेखनीय मात्रा में नकदी जमा हो जाएगी और बैंकों से अवसंरचना निर्माण के लिये ऋण की मांग में वृद्धि होगी, लेकिन ऐसा होता प्रतीत नहीं हो रहा है|

क्या हो आगे का रास्ता?

  • सरकार को निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहन देना होगा| हालाँकि, इसमें एक मुख्य समस्या यह है कि प्रायः निजी क्षेत्र के निवेशकों द्वारा किसी प्रोजेक्ट की लागत को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि जितना निवेश बैंको के माध्यम से सरकार करती है, उसकी तुलना में निजी निवेशकों द्वारा बहुत ही कम निवेश किया जाता है| 
  • बैंक खातों में बकाया ऋण के तौर पर जो रकम दिखती है, उस रकम की कभी भरपाई ही नहीं हो पाती, फलस्वरूप उसे गैर-निष्पादनकारी सम्पतियों की सूची में डाल दिया जाता है| इस पूरी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार भी अहम भूमिका निभाता है| ऐसे में सरकार को चाहिये कि अवसंरचना निर्माण क्षेत्र के निवेश उपक्रमों में पारदर्शिता बहाल करे|
  • गौरतलब है कि वर्तमान में केंद्र सरकार का अधिकांश राजस्व निर्माण कार्यों से इतर (सब्सिडी, राजकोषीय घाटे की भरपाई इत्यादि) उद्देश्यों की पूर्ति पर खर्च हो रहा है| ऐसे में हो ये रहा है कि निवेशकों को दिख रहा है कि सरकार का खर्च बढ़ रहा है, जबकि सरकार द्वारा स्वयं अवसंरचना निर्माण क्षेत्र में निवेश नहीं किया जा रहा है| 
  • आने वाले समय में यदि सरकार वार्षिक बजट में लोक-लुभावन वायदे और विमुद्रीकरण के कारण हुए नुकसान की भरपाई पर ध्यान केन्द्रित करती है, तो परिस्थितियाँ और भी मुश्किल हो सकती हैं| अतः सरकार को चाहिये कि इस बार के बजट के माध्यम से अवसंरचना निर्माण में व्याप्त शिथिलता को समाप्त करे|

निष्कर्ष

  • निवेशक पुन: आगे बढ़कर निवेश करें, बैकों के अवसंरचना निर्माण ऋण में बढ़ोतरी हो; इसके लिये आगामी बजट में सरकार को सुधारवादी प्रयास तो करने ही होंगे, साथ ही बुनियादी ढाँचे के निर्माण पर भी ध्यान देना होगा| दरअसल, बात ये है कि विकसित देशों में अवसंरचनात्मक विकास तो पर्याप्त हो चुका है, लेकिन उनका उपभोक्ता आधार संकुचित हो गया है| यही कारण है कि विदेशी निवेशक भारत की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में प्रवेश करना चाहते हैं, लेकिन यहाँ की अल्पविकसित अवसंरचना के चलते उन्हें विभिन्न प्रकार की चुनौतियों और जोखिमों के मद्देनज़र अपने कदमों की गति धीमी करनी पड़ रही है|
  • स्पष्ट है कि अब बुनियादी ढाँचे में निवेश ही वह धुरी है जिसके इर्द-गिर्द देश की भावी विकास-गाथा घूम रही है| बुनियादी ढाँचा ही विकास को रफ्तार देने का अहम काम कर सकता है। इसलिये बुनियादी ढाँचा क्षेत्र में निवेश संबंधी कमियों को दूर किया जाना ज़रूरी है। विस्तृत एवं दक्ष अवसंरचना नेटवर्क के लिये जीडीपी के एक इष्टतम अंश का उपयोग निवेश संबंधी कमियों को दूर करने के लिये किया जाना ज़रूरी है| सार्वजनिक खर्च और अवसंरचना निवेश आधारित प्रोत्साहन की नीति का भी एकदम स्पष्ट होना ज़रूरी है|
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