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दिवालिया फर्मों का खरीदार कौन ?

  • 15 Jul 2017
  • 8 min read

बैंकरप्सी कोड को जीएसटी के बाद सरकार का दूसरा सबसे बड़ा सुधार माना जा रहा। दरअसल, बैंकरप्सी कोड बैड लोन की समस्या से निपटने में अहम साबित हो सकता है।

  • विदित हो कि बैंकरप्सी कोड 2016 के अनुसार किसी ऋणी के दिवालिया होने पर आसानी से उसकी परिसंपत्तियों को अधिकार में लिया जा सकता है।
  • इस कानून के लागू होने से ऋणों की वसूली में अनावश्यक देरी और उससे होने वाले नुकसानों से बचा जा सकेगा। ऋण न चुका पाने की स्थिति में कंपनी को अवसर दिया जाएगा कि वह एक निश्चित कालखंड में अपने ऋण को चुका दे, अन्यथा स्वयं को दिवालिया घोषित करे।
  • यदि कोई ऋणी दोषी पाया जाता है तो उसे 5 साल की सज़ा का भी प्रावधान है। लेकिन अहम सवाल यह है कि दिवालिया घोषित कंपनियों को खरीदेगा कौन? 

बाज़ार का गणित

  • दिवालिया प्रक्रिया दरअसल एक बाज़ार है जहाँ खरीदार और विक्रेता दोनों पक्ष मौज़ूद हैं। बाज़ार सही ढंग से काम करे इसके लिये आवश्यक है कि दोनों पक्ष भी सही ठंग से काम करें।
  • जहाँ तक दिवालिया फर्मों को खरीदने का सवाल है तो दो तरह के खरीदार हमारे सामने हैं: पहले वे जो तत्कालीन समस्या के बीच ही फर्म को खरीदते हैं और दूसरे वे जो नकदीकरण की प्रक्रिया में इसे खरीदते हैं।
  • दरअसल, किसी कंपनी द्वारा तत्काल देनदारी नहीं चुकाया जाता तो उसे मौजूदा चिंता माना जाता है। हालाँकि देनदारी में पहली चूक के बाद उत्पन्न वित्तीय तनाव संस्थागत पूंजी को नष्ट कर देता है।
  • इन परिस्थितियों में फर्म का मूल्य तेज़ी से कम होने लगता है क्योंकि उत्पन्न वित्तीय तनाव अंशधारकों को फर्म को चलाए रखने लिये प्रोत्साहित नहीं कर पाता है।
  • समय बीतने के साथ ही फर्म केवल चुनिंदा भौतिक परिसंपत्ति का जमावड़ा भर बनकर रह जाती है जिसका नकदीकरण कर दिया जाता है। यहाँ खरीदार परिसंपत्ति के बदले नकदी देने की पेशकश रखता है। 
  • विदित हो कि कोई निजी इक्विटी फंड ही तात्कालिक संकट से जूझ रही फर्म का सही खरीदार होता है। खरीदार रियायती दर पर संकटग्रस्त फर्म को सही समय पर खरीदता है और संसाधनों के ज़रिये उसकी तकदीर सुधारने का प्रयास करता है।
  • निजी इक्विटी फंड उस कारोबार को मुनाफे वाला बनाने का प्रयास करते हैं। शीर्ष 2000 सूचीबद्घ कंपनियाँ भी अपने-अपने क्षेत्र की संभावित खरीदार तो हैं ही।
  • खरीदार ग्राहक आधार जुटाने, कुशल कर्मचारी और ब्रांड आदि मिलने पर ध्यान देता है। यदि पहले से ही बैंकरप्सी कोड लागू होता तो किंगफिशर 2009 में ही बिक जाता। उस वक्त जेट एयरवेज़ जैसे खरीदार उसकी कीमत लगा सकते थे। ऐसे खरीदार संगठनात्मक पूंजी को अलग ढंग से देखते हैं।
  • दूसरा मामला है नकदीकरण का। यहाँ संगठनात्मक पूंजी समाप्त हो चुकी होती है और जो कुछ बेचा जाता है वह केवल भौतिक संपत्ति के लिये। यहाँ भी एक बेहतर खरीदार शीर्ष सूचीबद्ध कंपनियों से ही ही होगा। उदाहरण के लिये अगर ब्रिटानिया किसी बेकरी की मशीन और ज़मीन सस्ते दाम पर खरीदे तो इसे समझा जा सकता है। यह उसके उत्पादन तंत्र का हिस्सा बन सकता है। 

क्या है ‘द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2016’ ?

  • विदित हो कि विगत वर्ष केंद्र सरकार ने आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाते हुए एक नया दिवालियापन संहिता संबंधी विधेयक पारित किया था जिसे ‘द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2016’ के नाम से जाना जाता है।
  • गौरतलब है कि यह नया कानून 1909 के 'प्रेसीडेंसी टाउन इन्सॉल्वेंसी एक्ट’ और 'प्रोवेंशियल इन्सॉल्वेंसी एक्ट 1920 को रद्द करता है और कंपनी एक्ट, लिमिटेड लाइबिलिटी पार्टनरशिप एक्ट और 'सेक्यूटाईज़ेशन एक्ट' समेत कई कानूनों में संशोधन करता है।
  • दरअसल, कंपनी या साझेदारी फर्म व्यवसाय में नुकसान के चलते कभी भी दिवालिया हो सकती है। यदि कोई आर्थिक इकाई दिवालिया होती है तो इसका मतलब यह है कि वह अपने संसाधनों के आधार पर अपने ऋणों को चुका पाने में असमर्थ है।
  • ऐसी स्थिति में कानून में स्पष्टता न होने पर ऋणदाताओं को भी नुकसान होता है और स्वयं उस व्यक्ति या फर्म को भी तरह-तरह की मानसिक एवं अन्य प्रताडऩाओं से गुज़रना पड़ता है। देश में अभी तक दिवालियापन से संबंधित कम-से-कम 12 कानून थे जिनमें से कुछ तो 100 साल से भी ज़्यादा पुराने हैं।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • दिवालिया होने वाली फर्मों के संभावित खरीदारों में बैंकरप्सी कोड को लेकर चिंता व्याप्त है। उनकी चिंताएँ यह हैं कि क्या यह तंत्र उस तरह काम करेगा जैसे सोचा गया था? क्या लेनदेन सही ढंग से होगा? कहीं बाद में कानूनी अड़चन तो नहीं आएगी?
  • ये अनिश्चितताएँ खरीदार को बहुत नियंत्रित बोली लगाने पर विवश करती हैं। यहाँ सरकार को विश्वसनीयता बहाल करनी होगी।
  • दरअसल, देश में कई निजी पूंजी फंड हैं जो अभी इतने समृद्ध नहीं हैं कि दिवालिया होने वाली फर्मों के लिये उल्लेखनीय निवेश कर सकें। ठीक इसी तरह 200 सूचीबद्घ कंपनियों को भी दिवालिया फर्म खरीदने के लिये आवश्यक ढाँचा विकसित करने में लम्बा समय लगेगा।
  • सरकार को चाहिये कि वह दिवालिया घोषित फर्मों को बेचने संबंधी मामलों के लिये गठित नियामक को अधिक स्वायत्तता प्रदान करे और यह नियामक बाज़ार को ध्यान में रखते हुए बिक्री योग्य परिसम्पत्तियों का मूल्य तय कर सके, क्योंकि कुछ न मिलने से यह बेहतर है कि कुछ भी मिल जाए।

निष्कर्ष
दरअसल, बैंकरप्सी कोड की सफलता दिवालिया फर्मों की नीलामी से प्राप्त राशि पर निर्भर है। शुरुआती वर्षों में यह राशि कम ही रहेगी और इसके इसके लिये उपरोक्त वज़ह ही ज़िम्मेदार हैं। इन परिस्थितियों में राजनीतिक नेतृत्व को एक नियामक का गठन करना चाहिये जो दिवालिया सुधार पर काम करे ताकि आने वाले सालों में नीलामी प्रक्रिया से बेहतर आय प्राप्त हो, जिससे कि बढ़ते हुए एनपीए को संतुलित किया जा सके। नीलामी प्रकिया खुली और निष्पक्ष हो तथा सभी पक्षों को समान अवसर मिले। हालाँकि आरंभिक नतीजों को लेकर ज़्यादा भावुक होने की आवश्यकता नहीं।

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