न्यायाधीशों का विवेकाधिकार | 20 Feb 2020
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में न्यायाधीशों के किसी विशिष्ट मामले की सुनवाई से स्वयं को अलग करने के विवेकाधिकार पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
विश्व भर के अधिकांश उदार लोकतंत्रों में न्यायपालिका को अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के लिये न्याय सुनिश्चित करने हेतु सबसे महत्त्वपूर्ण प्राधिकरण माना जाता है और भारतीय न्यायपालिका इस विषय में विश्व में सर्वाधिक सक्रिय और शक्तिशाली है। भारत के सभी न्यायालय देश के अनुभवी न्यायाधीशों से भरे हुए हैं, जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा संविधान के नियमों के अनुसार नियुक्त किया जाता है। भारतीय संविधान के तहत न्यायाधीशों को काफी अधिक शक्ति प्रदान की गई है, साथ ही उनसे निष्पक्ष और तटस्थ होने की उम्मीद भी की गई है। हालाँकि मानवीय प्रकृति के कारण न्यायाधीशों की निष्पक्षता और तटस्थता प्रतिकूल रूप से प्रभावित होने का खतरा सदैव बना रहता है। किंतु कई अवसरों पर ऐसा देखा गया है कि न्यायाधीशों ने ऐसी स्थिति में अपने विवेक का प्रयोग करते हुए स्वयं को मामले से अलग करने का निर्णय भी लिया है। संविधान के अंतर्गत इस संबंध कोई भी लिखित प्रावधान न होने के कारण कई बार न्यायाधीशों के इस विवेकाधिकार पर प्रश्नचिह्न लगा है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस मोहन एम. शांतनगौदर ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिये जाने को लेकर उनकी बहन सारा अब्दुल्ला पायलट द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई से खुद को अलग कर लिया। हालाँकि उन्होंने इस संदर्भ में कोई विशेष कारण नहीं दिया है, जिससे यह विषय एक बार पुनः चर्चा में आ गया है।
सुनवाई से खुद को अलग करने संबंधी प्रावधान
- भारतीय संविधान के तहत न्यायाधीशों के लिये न्यायालय के समक्ष सूचीबद्ध मामलों की सुनवाई से खुद को अलग करने को लेकर किसी प्रकार का कोई लिखित नियम नहीं है। यह पूर्ण रूप से न्यायाधीश के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है।
- साथ ही न्यायाधीशों को इस संबंध में कारणों का खुलासा करने की ज़रूरत भी नहीं होती है।
- कई बार न्यायाधीशों के हितों का टकराव मामले की सुनवाई से खुद को अलग करने का सबसे मुख्य कारण होता है। उदाहरण के लिये यदि कोई मामला उस कंपनी से संबंधित है जिसमें न्यायाधीश का हिस्सा भी है तो उस न्यायाधीश की निष्पक्षता पर आशंका ज़ाहिर की जा सकती है।
- इसी प्रकार यदि न्यायाधीश ने पूर्व में मामले से संबंधित किसी एक पक्ष का वकील के तौर पर प्रतिनिधित्व किया हो तो भी न्यायाधीश की निष्पक्षता पर शंका उत्पन्न हो सकती है।
- यदि मामले के किसी एक पक्ष के साथ न्यायाधीश का व्यक्तिगत हित जुड़ा हो तब भी न्यायाधीश अपने विवेकाधिकार का उपयोग मामले की सुनवाई से अलग होने का निर्णय कर सकते हैं।
- हालाँकि उक्त सभी स्थितियों में मामले से अलग होने अथवा न होने का निर्णय न्यायाधीश के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है।
इस संबंध में अन्य मामले
- इस संबंध में सबसे पहला मामला वर्ष 1852 में सामने आया था, जहाँ लाॅर्ड कॉटनहैम ने स्वयं को डिम्स बनाम ग्रैंड जंक्शन कैनाल (Dimes vs Grand Junction Canal) वाद की सुनवाई से अलग कर लिया था, क्योंकि लाॅर्ड कॉटनहैम के पास मामले में शामिल कंपनी के कुछ शेयर थे।
- वर्ष 2018 में जज लोया मामले में याचिकाकर्त्ताओं ने मामले की सुनवाई कर रहे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, जस्टिस ए.एम. खानविल्कर और डी. वाई. चंद्रचूड़ को सुनवाई से अलग करने का आग्रह किया था, क्योंकि वे दोनों ही बंबई उच्च न्यायालय से थे। हालाँकि न्यायालय ने ऐसा करने इनकार करते हुए स्पष्ट किया था कि यदि ऐसा किया जाता है तो इसका अर्थ होगा कि न्यायालय अपने कर्तव्यों का त्याग कर रहा है।
- बीते वर्ष केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) के अंतरिम निदेशक के रूप में एम. नागेश्वर राव की नियुक्ति को चुनौती देना वाली याचिका की सुनवाई करते हुए मामले से संबंधित तीन न्यायाधीशों ने स्वयं को मामले से अलग कर लिया था।
- सर्वप्रथम तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने यह कहते हुए स्वयं को मामले से अलग कर लिया कि वे नए CBI निदेशक को चुनने हेतु गठित समिति का हिस्सा थे।
- रंजन गोगोई के स्थान पर मामले की सुनवाई करने के लिये जस्टिस ए.के. सीकरी को नियुक्त किया गया। किंतु जस्टिस ए.के. सीकरी ने भी यह कहते हुए स्वयं को मामले से अलग कर लिया कि वे उस पैनल का हिस्सा थे जिसने पिछले CBI निदेशक आलोक वर्मा को उनके पद से हटाने का निर्णय लिया था।
- इसके पश्चात् मामले से संबंधित एक अन्य न्यायाधीश जस्टिस एन. वी. रमाना ने भी व्यक्तिगत कारणों का हवाला देते हुए स्वयं को मामले से अलग कर लिया।
संबंधित समस्याएँ
- न्यायिक प्रथाओं के अनुसार, न्यायाधीशों को किसी भी विशिष्ट मामले से स्वयं को अलग करने के कारणों का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं होती है, जिसके कारण इस संबंध में न्यायाधीशों की विवेकाधिकार की शक्ति पर अनावश्यक प्रश्नचिह्न लगते हैं।
- कारणों की लिखित व्याख्या मौजूद न होने के कारण यह निश्चित करना अपेक्षाकृत काफी मुश्किल होता है कि इस प्रकार के निर्णय की आवश्यकता थी या नहीं?
- यदि मामले की सुनवाई करने के लिये न्यायालय द्वारा गठित पीठ से कोई एक न्यायाधीश भी स्वयं को मामले से अलग कर लेता है तो इससे मामले में अनिवार्य रूप से देरी होती है। क्योंकि मामला पुनः मुख्य न्यायाधीश के पास जाता है और वे मामले की सुनवाई के लिये पुनः किसी को नियुक्त करते हैं।
- पद की शपथ लेते समय सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश किसी भी परिस्थिति में अपने कर्तव्यों को निभाने तथा बिना किसी डर, पक्षपात एवं द्वेष भावना के न्याय करने का निश्चय करते हैं।
- इंग्लैंड के एक पूर्व न्यायाधीश स्टीफन सेडली ने लिखा है कि ‘डर और पक्षपात’ किसी भी न्यायाधीश की स्वतंत्रता के दुश्मन होते हैं, अतः हमें डर तथा पक्षपात से बचने के यथासंभव प्रयास करना चाहिये।
- इससे मामले से संबंधित पक्षों को अपनी पसंद की पीठ चुनने का अवसर मिलता है, जो कि स्पष्ट तौर पर न्यायिक निष्पक्षता के विरुद्ध है।
आगे की राह
- वरिष्ठ वकीलों और विशेषज्ञों का मानना है कि न्यायाधीशों को किसी भी मामले की सुनवाई से स्वयं को अलग करने के कारणों का लिखित स्पष्टीकरण देना चाहिये, चाहे वे व्यक्तिगत कारण हों या सार्वजानिक कारण।
- वर्ष 1999 में दक्षिण अफ्रीका की संवैधानिक न्यायलय ने कहा था कि “न्यायिक कार्य की प्रकृति में कई बार कठिन और अप्रिय कार्यों का प्रदर्शन भी शामिल होता है और इन्हें पूरा करने के लिये न्यायिक अधिकारी को दबाव के सभी तरीकों का विरोध करना चाहिये।”
- बिना किसी डर और पक्षपात के न्याय प्रदान करना सभी न्यायिक अधिकारियों का कर्तव्य है। यदि वे विचलित होते हैं तो इससे न्यायपालिका और संविधान की स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
प्रश्न: चर्चा कीजिये की क्या न्यायाधीशों को विशिष्ट मामलों में स्वयं को सुनवाई से अलग करने को लेकर लिखित स्पष्टीकरण देना चाहिये या नहीं?