भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप, कैसा हो एफआरबीएम का स्वरुप? | 01 May 2017
हाल ही में सरकार ने राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) समीक्षा समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक चर्चा के लिये पेश कर दी है। निःसंदेह एन. के. सिंह के नेतृत्व में गठित इस समिति ने कुछ बड़ी ही शानदार अनुशंसाएँ प्रस्तुत की हैं, लेकिन अहम यह है कि रिपोर्ट की अनुशंसाओं एवं उनके पीछे की वज़हों को समझा जाए।
क्या है एफआरबीएम?
- उल्लेखनीय है कि देश की राजकोषीय व्यवस्था में अनुशासन लाने के लिये तथा सरकारी खर्च तथा घाटे जैसे कारकों पर नज़र रखने के लिये राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) कानून को वर्ष 2003 में तैयार किया गया था तथा जुलाई 2004 में इसे प्रभाव में लाया गया था।
- यह सार्वजनिक कोषों तथा अन्य प्रमुख आर्थिक कारकों पर नज़र रखते हुए बजट प्रबन्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एफआरबीएम के माध्यम से देश के राजकोषीय घाटों को नियंत्रण में लाने की कोशिश की गई थी, जिसमें वर्ष 1997-98 के बाद भारी वृद्धि हुई थी।
- केन्द्र सरकार ने राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबन्धन कानून की नए सिरे से समीक्षा करने और इसकी कार्यकुशलता का पता लगाने के लिये एन. के. सिंह के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया था।
एफआरबीएम कानून में बदलाव आवश्यक क्यों?
- विदित हो कि साल 2003 में जब यह कानून बना था उस वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार काफी छोटा था। हमारी अर्थव्यवस्था विदेशी निवेश के लिये उतनी अनुकूल नहीं थी जितनी कि आज है। भारत में प्रति व्यक्ति आय विकसित होते अन्य देशों की तुलना में काफी कम थी।
- लेकिन आज स्थिति काफी बदल चुकी है। भारत अब एक मध्यम आय वाला देश बन चुका है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था किसी भी दूसरी अर्थव्यवस्था की तुलना में काफी बड़ी, खुलापन लिये हुए और तेजी से विकास करने वाली बन चुकी है।
- उल्लेखनीय है कि 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से दुनिया भर में राजकोषीय नीति में व्यापक बदलाव देखने को मिला है। ज़्यादातर देशों की राजकोषीय नीति में पूरा जोर कर्ज़ के बजाय घाटे पर दिया जा रहा है| अब तक भारत की नीति का पूरा जोर राजकोषीय घाटे को सीमित रखने पर रहा है।
- इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए एफआरबीएम कानून में बदलाव की आवश्यकता महसूस की गई और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये एन. के. सिंह समिति का गठन किया गया। इस समिति ने अपनी अनुशंसाएँ तो पिछले वर्ष के अंत में ही प्रस्तुत कर दी थी लेकिन हाल ही में उन्हें सार्वजनिक किया गया है।
एन. के. सिंह समिति की प्रमुख सिफारिशें
1. समिति ने सरकार के ऋण के लिये जीडीपी के 60 फीसदी की सीमा तय की है यानी केंद्र सरकार का कर्ज जीडीपी का 40 फीसदी और राज्य सरकारों का सामूहिक कर्ज 20 फीसदी होगा।
2. समिति ने मौजूदा एफआरबीएम कानून 2003 और एफआरबीएम नियम, 2004 को खत्म कर इसकी जगह नया कर्ज और राजकोषीय उत्तरदायित्व कानून बनाने की सिफारिश भी की है। साथ ही राजकोषीय घाटे का सालाना लक्ष्य तय करने के लिये तीन सदस्यीय राजकोषीय परिषद बनाने का सुझाव भी समिति ने दिया है।
3. समिति ने कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष खतरा होने, युद्ध की स्थिति आने, राष्ट्रीय स्तर की कोई आपदा या फिर खेती बर्बाद होने जिसका कृषि उत्पादन पर गंभीर असर पड़े, इन परिस्थितियों में राजकोषीय घाटे के लक्ष्य में फेरबदल किया जा सकता है।
4. समिति ने यह भी कहा है कि ढाँचागत सुधार वाले प्रयासों (जिनमें कि राजकोषीय प्रभावों का पहले से आकलन नहीं किया जा सकता) के क्रियान्यवयन में राजकोषीय लक्ष्य अनुपालन के रास्ते से हटा जा सकता है। अर्थात राजकोषीय लक्ष्य, विकास के आड़े नहीं आने चाहियें।
5. समिति ने राजस्व घाटे में भी साल दर साल 0.25 प्रतिशत की कटौती करने को कहा है। समिति ने कहा है कि चालू वित्त वर्ष में राजस्व घाटा 2.05 प्रतिशत होना चाहिये, वहीं अगले वित्त वर्ष में इसे घटाकर 1.8 प्रतिशत तथा वित्त वर्ष 2019-20 में कम करके 1.55 प्रतिशत के स्तर पर लाना चाहिये। समिति का कहना है कि वित्त वर्ष 2022-23 में राजकोषीय घाटा कम करके 0.8 प्रतिशत के स्तर पर लाना चाहिये।
(टीम दृष्टि इनपुट)
सिफारिशें, महत्त्वपूर्ण क्यों?
- समिति ने रिपोर्ट में सरकार के ऋण के लिये जीडीपी के 60 फीसदी की सीमा तय की है यानी केंद्र सरकार का कर्ज जीडीपी का 40 फीसदी और राज्य सरकारों का सामूहिक कर्ज 20 फीसदी होगा। गौरतलब है कि भारतीय संविधान (अनुच्छेद 292 और 293) ने सरकार के ऋण की सीमा तय की हुई है। इस तरह से समिति ने आखिरकार संविधान के प्रावधान को लागू कर दिया है।
- यदि सरकार समिति के ऋण-जीडीपी अनुपात के सन्दर्भ में तय लक्ष्यों पर अमल करती है तो ऋण-जीडीपी अनुपात के संबंध में नज़र आने वाली अंतरराष्ट्रीय चिंताओं को हल करने में मदद मिल सकती है। फिलहाल यह दर अन्य ब्रिक्स देशों से अधिक है। रेटिंग एजेंसियाँ भी इस अनुपात को तवज्जो देती हैं। इस कवायद का वैश्विक निवेशक समुदाय पर सकारात्मक असर होगा।
- समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ढाँचागत सुधार वाले प्रयासों (जिनमें कि राजकोषीय प्रभावों का पहले से आकलन नहीं किया जा सकता) के क्रियान्यवयन में राजकोषीय लक्ष्य अनुपालन के रास्ते से हटा जा सकता है। यह एक सुधारवादी प्रयास है।
- ग्लोबलाइजेशन के बाद किसी भी बड़ी अर्थव्यस्था में हुए बदलावों का असर पुरे विश्व में देखा जाता है लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था का अपना एक विशेष लक्षण है, यहाँ उपभोक्ता प्रवृत्तियों में व्यापक अंतर देखा जाता है तभी तो भारत पर 2008 की वैश्विक मंदी के छींटे ही पड़े। ऐसी स्थिति में राजकोषीय लक्ष्यों को ढाँचागत सुधारों के राह में बाधक नहीं बनना चाहिये और समिति ने यहाँ अपनी दूरदर्शिता दिखाई है।
क्या हो आगे का रास्ता?
- वित्तीय दायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) समिति ने दुनिया की 40 विकसित व उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अध्ययन के बाद राजकोषीय परिषद के गठन की सिफारिश की है। राजकोषीय परिषद को स्वायत्त निकाय बनाने के साथ-साथ ही इसे वित्त मंत्रालय के अधीन रखने की भी बात की गई है।
- लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि सरकारी हलकों में इसका विरोध होगा क्योंकि राजकोषीय परिषद सरकार के राजकोषीय नीति संबंधी कदमों की तार्किकता पर प्रश्न करेगी। भारत जैसे गोपनीय कार्य संस्कृति वाले देश में जहाँ मनमाने निर्णय आम हैं, वहाँ यह एक ज़रूरी सुधार है।
- सरकार को इस प्रकार के कदम उठाने से बचना होगा। अगर समिति की सिफारिशें सरकार स्वीकार कर लेती है तो राजकोषीय परिषद, मौजूदा एफआरबीएम अधिनियम की जगह ले लेगा। राजकोषीय परिषद या इस तरह का कोई निकाय तभी कानूनी रूप ले सकता है जब इस संबंध में विधेयक पारित किया जाए।
निष्कर्ष
- अर्थशास्त्री और नीति निर्माता अक्सर इस बात पर सहमत नज़र आते हैं कि बड़ा और निरंतर बरकरार राजकोषीय घाटा बेहतर आर्थिक प्रदर्शन के आड़े आ जाता है।
- इसकी वज़ह से निजी निवेश बाहर जाता है, मुद्रास्फीति का दबाव बनता है, भुगतान संतुलन कमज़ोर पड़ जाता है, वित्तीय क्षेत्र में सुधार करना मुश्किल होता जाता है और आने वाली पीढिय़ों पर कर्ज़ का बोझ बढ़ता है।
- इन बातों के मद्देनज़र राजकोषीय घाटे को नियंत्रण में लेना आवश्यक हो जाता है, लेकिन आदर्श स्थिति यह भी नहीं है कि इसे काबू में रखने के प्रयासों में हम इतने रम जाएँ कि सार्वजनिक निवेश का रास्ता ही बंद हो जाए।
- एन. के. सिंह समिति की सिफारिशें राजकोषीय लक्ष्यों और आर्थिक विकास के अन्य घटकों के मध्य संतुलन स्थापित करने की दिशा में एक मज़बूत पहल है।