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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

लोक कल्याण बनाम व्यक्तिगत अधिकार

  • 29 Jul 2017
  • 11 min read

संदर्भ

  • क्या निजता का अधिकार मूल अधिकार है? इस जटिल सवाल का उत्तर देने के लिये सुप्रीम कोर्ट में नौ जजों की संविधान पीठ बैठा दी गई है।
  • इस मामले में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कहा था कि ‘निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं माना जा सकता, क्योंकि निजता की अपेक्षा लोक कल्याण को हमें ज़्यादा महत्त्व देना होगा’।
  • जब हमने 26 जनवरी 1950 को अपना संविधान अपनाया तभी से ‘सामूहिक कल्याण बनाम व्यक्तिगत अधिकार’ पर बहस जारी है।
  • दरअसल, कहा यह जा रहा है कि यह मामला राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व एवं मूल अधिकारों के बीच टकराव का है।
  • अब, जब इस मामले में नौ जजों की खंडपीठ का फैसला आना बाकि है तो यह देखना दिलचस्प होगा कि लोक कल्याण और व्यक्तिगत अधिकारों में से किसे अधिक वरीयता दी जाएगी।

व्यक्तिगत अधिकारों का महत्त्व 

  • विदित हो कि संविधान सभा की बैठकों में मौलिक अधिकारों के संबंध में व्यापक विचार-विमर्श किया गया।
  • वे कौन से ऐसे अधिकार हैं, जिन्हें मौलिक अधिकार बनाया जाना चाहिये और किन अधिकारों को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल नहीं किया जाना चाहिये, इसे लेकर बहसों का एक लम्बा दौर चला। उल्लेखनीय है इस बहस की परिणिति कई अन्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रावधानों के तौर पर हुई।
  • सभी मौलिक अधिकारों को संविधान के भाग-3 में रखा गया है। राज्य विधायी प्रक्रिया के माध्यम से इन अधिकारों को न तो खत्म कर सकता है और न ही इन अधिकारों पर कोई अंकुश लगाया जा सकता है।
  • हालाँकि, संविधान में इन अधिकारों पर कुछ उचित प्रतिबंध लगाए जाने कि बात भी की गई है, फिर भी हमारे संविधान ने ऐसी व्यवस्था की है कि राज्य इन अधिकारों का मनमाने तरीके से अतिक्रमण नहीं कर सकते हैं।
  • भारत विविधताओं का देश है, लेकिन वह संविधान और संविधान प्रदत्त मूल अधिकार ही हैं, जो विविधताओं से भरे भारत में एकता का सूत्रपात करते हैं।
  • भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार अच्छे जीवन की आवश्यक और आधारभूत परिस्थितियों के लिये दिये गए हैं।
  • ये मौलिक अधिकार भारतीय संविधान में निहित हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा सर्वोच्च कानून के द्वारा की जाती है, जबकि सामान्य अधिकारों की रक्षा सामान्य कानून के द्वारा की जाती है।
  • निजता के अधिकार को मूल अधिकार बनाने के पक्ष में याचिका दायर करने वालों का कहना है कि गोपनीयता गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है और नागरिकों के इस मौलिक अधिकार का हनन नहीं किया जा सकता है।

लोक कल्याण का महत्त्व

  • विदित हो कि संविधान के भाग-4 में राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को शामिल किया गया है। जैसा कि नाम से ही इंगित हो रहा है कि ये कुछ ऐसे निर्देश हैं जो राज्य के नीति निर्माण की आधारशिला हैं।
  • नीति निर्देशक तत्त्वों द्वारा यह निर्देशित किया जाता है कि भारतीय नागरिकों के जीवन और आजीविका में सुधार करने के लिये राज्य द्वारा नीतियों का निर्माण किया जाए।
  • इसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए भारतीय संविधान के शिल्पिकार डॉ अम्बेडकर ने कहा था कि नीति निर्देशक तत्त्व ही भारत में सामाजिक क्रांति के सूत्राधार बनेंगे।
  • दरअसल, नीति निर्देशक तत्त्वों में सामाजिक मूल्य निहित माने जाते हैं जैसे: कार्यस्थल पर बेहतर माहौल, समान कार्य के लिये समान वेतन और संसाधनों का न्यायसंगत वितरण आदि।
  • 1947 में जब भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, तब हालत ऐसे नहीं थे कि नीति निर्देशक तत्त्वों को एक प्रवर्तनीय प्रावधान के तौर पर लागू किया जा सके। इन्हें तत्काल लागू करने के लिये बहुत अधिक संसाधनों की आवश्यकता थी, जो तब हमारे पास नहीं थे।
  • हालाँकि, इन सिद्धांतों में से कुछ को भविष्य में मूलभूत अधिकार बनाने की परिकल्पना की गई थी और हमने ऐसा किया भी। जैसे वर्ष 2009 में संसद ने शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार बना दिया।

मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्त्वों के बीच अंतर

  • जब देश आर्थिक एवं सामाजिक मोर्चे पर अनेक समस्याओं से जूझ रहा था, तब हमारे संविधान-निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बहुत से प्रावधान बनाए।
  • नागरिकों को उनके विकास के लिये विभिन्न मौलिक अधिकार दिए गए। हालाँकि मौलिक अधिकारों से ही काम नहीं चल सकता था। अतः नागरिकों के हितों के संरक्षण के लिये कुछ प्रावधान आवश्यक थे।
  • इन्हें राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों के अंतर्गत स्थान देकर राज्य पर यह उत्तरदायित्व सौंपा गया कि वह कानून-निर्माण करते समय इन तत्त्वों को अवश्य ध्यान में रखेगा।
  • मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) और नीति-निर्देशक तत्त्वों (Directive Principles) में मुख्य अंतर निम्नलिखित हैं।

1. मौलिक अधिकारों को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है। उनके अतिक्रमण पर नागरिक न्यायालय से प्रार्थना कर सकते हैं, लेकिन, नीति-निर्देशक तत्त्वों को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त नहीं है। अतः नागरिक न्यायालय की शरण नहीं ले सकते हैं।
2. मौलिक अधिकार स्थगित या निलंबित किये जा सकते हैं, लेकिन नीति-निर्देशक तत्त्व नहीं।
3. मौलिक अधिकारों के अंतर्गत नागरिकों और राज्य के बीच के संबंधों की विवेचना की गई है, लेकिन नीति-निर्देशक तत्त्वों में राज्यों के नागरिकों के साथ  संबंध के अलावा उनकी अन्तर्राष्ट्रीय नीति की विवेचना भी शामिल है।
4. मौलिक अधिकारों को पूरा करने के लिये राज्य को बाध्य किया जा सकता है, लेकिन नीति-निर्देशक तत्त्वों के लिये नहीं।

क्या होना चाहिये ?

  • यद्यपि राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व और मूल अधिकारों  के बीच टकराव उचित नहीं कहा जा सकता, फिर भी यदि ऐसी स्थिति बनती है तो मूल अधिकारों को वरीयता दिये जाने की बात कही गई है।
  • विदित हो कि आठ जजों वाली संविधान पीठ ने वर्ष 1954 में एम.पी. शर्मा मामले में यह निर्णय दिया था कि निजता मौलिक अधिकार नहीं है। बाद में वर्ष 1962 में खड़ग सिंह से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट की 6 जजों की बेंच ने भी इसी फैसले के अनुसार व्यवस्था दी।
  • गौरतलब है कि खड़ग सिंह मामले के बाद से, विभिन्न निर्णयों में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि संविधान में मूलभूत अधिकारों को एक समग्र रूप में देखे जाने की ज़रूरत है।
  • मूल अधिकारों के तहत प्राप्त विभिन्न अधिकारों में से प्रत्येक अधिकार एक-दूसरे से किसी न किसी अर्थ में जुड़े हुए हैं, ऐसे में उन्हें अलग-अलग करके देखना या उन पर विचार करना तर्कसंगत नहीं होगा।
  • जब भी लोकहित और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच टकराव हुआ है, न्यायालय ने व्यक्तिगत अधिकारों को पूरी तरह से खारिज़ करने के बजाय उचित प्रतिबंध को आधार बनाते हुए सीमित भर किया है और इस मामले में भी शीर्ष न्यायालय से यही उम्मीद है।

निष्कर्ष

  • दरअसल, मूल अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व दोनों ही अलग-अलग व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं। मूल अधिकारों का सिद्धांत जहाँ फ्रांस की क्रांति से प्रभावित है, वहीं नीति निर्देशक तत्त्वों में रूसी क्रांति के मूल्य समाहित हैं।
  • कुछ विद्वानों का मानना है कि संविधान सभा में औपनिवेशिक शासन के आदी लोगों  का वर्चस्व था, इसीलिये संविधान की प्रकृति "गरीबी उन्मुख" होने के बजाय "संपत्ति-उन्मुख" हो गई।
  • हालाँकि, इस विचार से असहमत हुआ जा सकता है, क्योंकि मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्त्वों में टकराव की स्थिति में न्यायपालिका ने अब तक संतुलन बनाने का काम किया है।
  • दरअसल, एक व्यक्ति से ही समाज बनता है और किसी भी देश के लिये एक व्यक्ति और व्यक्तियों का समूह दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। अतः दोनों के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिये। दोनों एक-दूसरे के रास्ते में न आएं इसके लिये ‘संतुलन बना रहना चाहिये। निजता को मूल अधिकार बनाए जाने के मामले में यह संतुलन बनाए रखने की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका की है।
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