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जीवंत लोकतंत्र, निष्क्रिय संसद

  • 14 Jul 2017
  • 9 min read

सन्दर्भ

  • संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है, क्योंकि लोकतंत्र में संसद का वही स्थान है, जो कि धर्म में भगवान का। लोकतंत्र के इस मंदिर में हमारे जन-प्रतिनिधियों की हालत मंदिर में खड़े उस बच्चे की तरह ही है, जो सम्पूर्ण पूजा-पाठ को नीरसता से देखता है, लेकिन खड़ा इसलिये है, क्योंकि उसे प्रसाद पाना है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत का लोकतंत्र, जहाँ प्रत्येक विगत दशक के साथ जीवंत हुआ है वहीं संसद नीरस होती जा रही है।
  • हमारे संविधान निर्माताओं ने कहा था कि लोकतंत्र में प्रत्येक विचार का केंद्र बिंदु संसद ही है। संविधान लागू हुआ, भारत गणतंत्र बना और समय बीतता गया। आज़ादी के 70 सालों में बहुत कुछ बदल गया है। यदि कुछ नहीं बदला है तो वह है भारत की संसद। हाँ, धीरे-धीरे ही सही, लेकिन निश्चित रूप से इसका कद और महत्त्व ज़रूर कम हो गया है।
  • संविधान निर्माताओं ने संसद को मुख्य रूप से तीन जिम्मेदारियाँ सौंपी थी;- कानून बनाने की, सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने की और आवश्यक मुद्दों पर बहस और चर्चा करने की। यह देखा जाना चाहिये कि अपने दायित्वों के निर्वहन में संसद किस हद तक सफल रही है।

कैसे कम हुआ संसद का महत्त्व ?

  • विधि निर्माण की प्रक्रिया धीमी और सुस्त है। कई बार एक विधेयक सत्र-दर-सत्र घूमता रहता है, जिसे कानून की शक्ल लेने में वर्षों लग जाते हैं, वहीं कई बार विधेयक ज़ल्दबाजी और अफरा-तफरी में पारित किये जाते हैं। संसद के कामकाज पर नज़र दौडाएं तो प्रतीत होता है कि सरकार संसद सत्र के बजाय चुनाव के समय में लोगों के प्रति अधिक जवाबदेह होती है।
  • संसद की कार्यप्रणाली का विश्लेषण और मूल्याँकन, सरकार की जवाबदेही तय करने के लिये अत्यंत आवश्यक है, लेकिन शायद ही कभी ऐसा आकलन या मूल्याँकन किया जाता हो। राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर व्याख्यान और बहस 1970 के दशक तक संसद की मुख्य विशेषता थी, लेकिन समय बीतने के साथ ही यह धीरे-धीरे कम  होती गई। बहस के दौरान जन-प्रतिनिधि प्रायः अपनी पार्टी लाइन से ऊपर उठकर बहस नहीं करते और सत्र हंगामे की भेंट चढ़ जाता है।

क्यों कम हुआ है संसद का महत्त्व ?

  • दरअसल, संसद के कद में कमी इसलिये आयी है, क्योंकि जब संसद सत्र चल रहा होता है, तो इसके हर मिनट पर 2.5 लाख रुपए का खर्च आता है, परन्तु इस कीमती समय का बेहतर इस्तेमाल नहीं हो पाता है।
  • विदित हो कि वर्ष 1950 से 1960 के दौरान लोक सभा एक साल में औसतन 120 दिन चलती थी। इसकी तुलना में बीते दशक में लोकसभा हर साल औसतन 70 दिन ही चली।
  • ज़्यादातर देशों में संसद का सत्र 120 दिन से अधिक चलता है, खासकर ब्रिटेन और कनाडा में। गौरतलब है कि संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिये गठित राष्ट्रीय आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि लोक सभा के लिये कम से कम 120 दिन और राज्य सभा के लिये 100 दिन की बैठक अवश्य होनी चाहिये।
  • संसद बैठक न करके एक तरह से कार्यपालिका पर नियंत्रण रखने की अपनी मूल दायित्व के निर्वहन में लापरवाही बरत रही है। नीचे दिए गए चार्ट से हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हमारी संसद कितना काम कर रही है?
  • ऐसा नहीं है कि हमारे संसद सदस्यों (सांसदों) को पर्याप्त भुगतान नहीं किया जाता है। सांसद का वेतन, भत्ता और कार्यालय का खर्च 1 लाख रुपए प्रति माह है। इसके अतिरिक्त, संसद या इसकी समितियों में उपस्थिति के लिये दैनिक भत्ता दिया जाता है। साथ ही मुफ्त आवास, फर्निशिंग, बिजली, पानी, टेलीफोन और स्वास्थ्य सेवा भी प्रदान की जाती है, जिसे यदि एक साथ जोड़ दें तो प्रतिमाह 1.52 लाख रुपए का खर्च आता है। इस प्रकार एक सांसद पर प्रति वर्ष लगभग 35 लाख से अधिक खर्च किया जाता है जो कि देश की प्रति व्यक्ति आय का लगभग 40 गुना अधिक है।
  • क्या हो आगे का रास्ता ?
  • विधायिका के काम करने के तरीके और प्राथमिकताएँ तय करने में हमें व्यवस्थित तरीका अपनाना होगा। संसदीय समिति, जो पहले भी बहुत लोकप्रिय नहीं थी और अब जिसका चलन खत्म ही हो गया है, को फिर से महत्त्व देना होगा।
  • पिछली सीटों पर बैठने वाले सांसदों को कानून बनाने की प्रक्रिया के दौरान इस तरह की समितियों में आम जनता की तरफ से आवाज बुलंद करने का मौका मिलता है। जैसा कि कानून मंत्रालय ने भी यह मुद्दा उठाया है, हमें एक संविधान समिति बनाने की भी ज़रूरत है।
  • संविधान संशोधन विधेयक संसद में साधारण कानूनों की तरह विधेयक के रूप में पेश किये जाने के बजाय अच्छा होगा कि संविधान में बदलाव का ड्राफ्ट बनाने से पहले ही समिति इसकी समीक्षा कर ले।
  • प्रायः यह देखा जाता है कि दल-बदल निरोधक कानून के तहत ऐसे सांसदों को सदस्यता छीन कर दंडित किया जाता है, जो पार्टी लाइन से हट कर मतदान करते हैं। दल-बदल कानून में बदलाव किये जाने की ज़रूरत है, ताकि सांसदों को अपनी अंतरात्मा की आवाज का स्वतंत्र इस्तेमाल करने की आज़ादी मिल सके। दल-बदल निरोधक कानून का इस्तेमाल सिर्फ कुछ अपवाद स्थितियों में ही किया जाना चाहिये।  
  • हमें संसद की बौद्धिक संपदा में निवेश करने पर भी ध्यान देना होगा, ताकि सांसदों में जनहित के मुद्दों के प्रति चेतना विकसित की जा सके। अधिकतर सांसदों के पास स्टाफ या तो बहुत कम है या बिल्कुल ही नहीं है, जिस वजह से वे व्यक्तिगत स्तर पर विशेषज्ञ सलाह हासिल कर पाने से वंचित रह जाते हैं। उनके सहायक स्टाफ और संसदीय क्षेत्र के लिये मिले फंड में मौलिक शोध के लिये कुछ नहीं बचता।
  • विदित हो कि अमेरिकी कांग्रेस बजट ऑफिस की तरह भारत में भी संसदीय बजट ऑफिस की ज़रूरत है, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष रहते हुए किसी भी किस्म के खर्च का तकनीकी और वस्तुपरक मूल्याँकन कर सके। विदित हो केन्या, साउथ अफ्रीका, मोरक्को, फिलीपींस, घाना और थाईलैंड  जैसे देश इस पर अमल भी कर चुके हैं।
निष्कर्ष
मन में संसद का ख्याल आते ही यह भाव आता है कि यह ऐसा स्थान है जहाँ ओजस्वी वक्ताओं का जमावड़ा होगा, लेकिन पिछले कुछ दशकों से शायद ही कभी ऐसा देखने को मिला हो कि जब कोई ऐतिहासिक संसदीय चर्चा या बहस हुई हो।

पहले संसदीय चर्चाएँ राष्ट्रीय और महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर केंद्रित होती थीं, लेकिन अब इनकी जगह संकीर्ण और स्थानीय मुद्दों ने ले ली है। नाममात्र की उपस्थिति, स्तरहीन चर्चाओं, सत्र के दौरान शोर-शराबे, ये भारतीय संसद के कुछ मौलिक पहचान बन गए हैं। ऐसे में हमें संसद की गरिमा और महत्त्व को बनाए रखना होगा। ध्यान रहे संसद नीतियों पर बहस और कानून निर्माण का स्थान है न कि राजनीति करने का। हमें इन सुधारों पर ध्यान देना होगा, ताकि हम भारत के जीवंत लोकतंत्र में संसद की भी जीवंतता बनाए रखे।
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