तीन तलाक और यूनिफार्म सिविल कोड | 23 Aug 2017

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते एक बार में तीन तलाक यानी ‘तलाक-ए-बिद्दत’ को असंवैधानिक करार दिया है। दरअसल, इस मुद्दे को लेकर दायर की गई याचिकाओं पर पाँच जजों की संवैधानिक पीठ इस वर्ष के मई से सुनवाई कर रही थी, इस दौरान न्यायालय ने तीन तलाक के सभी पहलुओं पर विचार किया। इससे पूर्व केन्द्र सरकार ने भी तीन तलाक को मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन बताया था।

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद तीन तलाक पर देशव्यापी चर्चा शुरू हो गई है। अतः यह आवश्यक है कि इस पूरे मुद्दे को समझा जाए, लेकिन उससे पहले यह देखते हैं कि इस संदर्भ में न्यायालय का विचार क्या है? इस लेख में हम 'सामान नागरिक संहिता' (Uniform Civil Code - UCC) की भी चर्चा करेंगे।

क्या कहा सर्वोच्च न्यायालय ने? 

  • न्यायालय का कहना है कि 'तलाक-ए-बिद्दत' इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है, अतः इसे अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण प्राप्त नहीं हो सकता।
  • इसी के साथ न्यायालय ने शरीयत कानून, 1937 की धारा-2 में दी गई "एक बार में तीन तलाक" की मान्यता को रद्द कर दिया।
  •  देश की सबसे बड़ी अदालत ने तीन-दो के बहुमत से 'एक बार में तीन तलाक' को असंवैधानिक बताते हुए इस पर 6 महीने की रोक लगा दी है।
  • इस फैसले में उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर और जस्टिस अब्दुल नज़ीर ने कहा कि यह 1400 साल पुरानी परंपरा है जो इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है, अतः न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। वहीं दूसरी तरफ, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस आर.ए.एफ. नरीमन और जस्टिस यू.यू. ललित ने 'एक बार में तीन तलाक' को असंवैधानिक ठहराते हुए इसे खारिज़ कर दिया। इन तीनों जजों ने तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन माना है। विदित हो कि संविधान का अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों को "विधि के समक्ष समानता" का अधिकार प्रदान करता है।
  • तीन तलाक पर 6 माह के लिये रोक लगाने के साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि संसद इस पर कानून बनाए, और यदि इस अवधि में ऐसा कानून नहीं लाया जाता है तब भी तीन तलाक पर रोक जारी रहेगी।

मामले की पृष्ठभूमि

  • दरअसल, उत्तराखण्ड की रहने वाली शायरा नाम की एक महिला को उसके पति ने तीन बार तलाक शब्द के उच्चारण मात्र से तलाक दे दिया था। फलस्वरूप शायरा ने तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु-विवाह के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।
  • गौरतलब है कि अक्तूबर 2016 में केंद्र सरकार ने भी सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाकर्त्ता ‘शायरा’ की मांगों का सैद्धांतिक तौर पर समर्थन करते हुए एक हलफनामा दायर किया था। इस प्रकार, प्रसिद्ध ‘शाह बानो मामले’ के तीन दशक बाद शायरा मामले ने एक बार फिर से लैंगिक समानता बनाम धार्मिक कट्टरपंथ की बहस को हवा दे दी और तीन तलाक पर पूरे देश में ज़ोरदार बहस छिड़ गई।
  • मामले की गंभीरता की पहचान करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह मामला संवैधानिक मुद्दों से संबंधित है, अतः संविधान पीठ को इसकी सुनवाई करनी चाहिये।
  • विदित हो कि न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया था कि इस मामले में सिर्फ कानूनी पहलुओं पर ही सुनवाई होगी और न्यायालय तीन तलाक के अलावा किन्ही अन्य माध्यमों से होने वाले तलाक के संबध में विचार नहीं करेगा।
  • दरअसल, मुस्लिम समुदाय में ‘तलाक-ए-बिद्दत’ के अलावा अन्य दो तरीकों से भी तलाक को सहमति प्राप्त है: तलाक-ए-एहसन और तलाक-ए-हसना।

न्यायालय ने किन बिन्दुओं पर विचार किया ?

  • सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार किया:

1. धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु-विवाह की इज़ाज़त संविधान के तहत दी जा सकती है या नहीं?
2. समानता का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में से प्राथमिकता किसको दी जानी चाहिये?
3. पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत कानून माना जाएगा या नहीं? 

  • ध्यातव्य है कि न्यायालय के इस फैसले से पहले मुसलमान पुरुष एक ही बार में तीन बार ‘तलाक’ शब्द का उच्चारण करके अपनी शादी समाप्त कर सकते थे।
  • हालाँकि कई मुस्लिम देशों ने तीन तलाक को प्रतिबंधित कर दिया है। 

क्या न्यायालय का यह निर्णय इस्लामिक सिद्धांतों के खिलाफ है?

  • मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट (Muslim Personal Law Application Act) 1937, मुसलमानों को पर्सनल लॉ के मामलों में कुरान और हदीस के आधार पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
  • हालाँकि, कुरान में तीन तलाक का स्पष्ट संहिताकरण (codification) नहीं किया गया है, बल्कि उलेमाओं द्वारा इसकी मनमाफिक व्याख्या की जाती है। साथ ही उन्होंने इन प्रथाओं को दैवीय रूप दिया हुआ है जिसकी वजह से लोग इनका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
  • देखा जाए तो मुस्लिम महिलाओं को केवल लिंग और धर्म के आधार पर कानून के तहत ‘समान संरक्षण’ और ‘भेदभाव से सुरक्षा के अधिकार’ से वंचित किया जा रहा था, और इस बात की पर्याप्त संभावना है कि न्यायालय के इस निर्णय के बाद इस पर रोक लगने की पूरी संभावना है।
  • तीन तलाक का विरोध कर रहे लोगों का तर्क है कि तलाक-ए-बिद्द्त का कुरान में कोई आधार नहीं है और न ही बहु-विवाह इस्लाम का अभिन्न अंग है। हालाँकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के संहिताकरण के अभाव में लैंगिक समानता सुनिश्चित करना अभी भी एक टेढ़ी खीर है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त न्यायिक शक्तियों के आधार पर 6 माह के लिये तीन तलाक को प्रतिबंधित अवश्य किया है लेकिन इसे समाप्त केवल विधायी प्रक्रिया के तहत ही किया जा सकता है और इसके लिये संसद को महत्त्वपूर्ण कानून बनाने होंगे।

तीन तलाक और सामान नागरिक संहिता 

  • तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता को लेकर दशकों से जारी बहस को फिर से हवा दे दी है।
  • क्यों इस्लामिक सिद्धांतों को अब तक सामान नागरिक संहिता (यूसीसी) के लिये बाधक माना जाता रहा है? इस मुद्दे का राजनीतिकरण क्यों किया गया और इसके लाभ - हानि क्या हैं? आइये, हम इन सभी सवालों का उत्त्तर ढूँढने का प्रयास करते हैं, लेकिन पहले समझ लेते हैं कि 'यूसीसी' है क्या?

क्या है यूनिफार्म सिविल कोड?

  • देश के प्रमुख धार्मिक समुदायों के ग्रंथों, रीति-रिवाज़ो और मान्यताओं के आधार पर बनाए गए व्यक्तिगत कानूनों के स्थान पर भारत के सभी नागरिकों के लिये एक समान संहिता बनाने को ही यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता कहते हैं।
  • दरअसल, पर्सनल लॉज़ यानी व्यक्तिगत कानूनों के भेदभावपूर्ण प्रावधानों के कारण अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित महिलाओं ने जब-जब न्यायपालिका का दरवाज़ा खटखटाया, तब-तब यूसीसी का मुद्दा ज्वलंत हो उठा।

यूनिफार्म सिविल कोड और इस्लाम

  • यूसीसी, न केवल इस्लाम से बल्कि हिन्दू और इसाई धर्मों से भी संबंधित है। जहाँ तक इस्लाम और यूसीसी के संबंध की बात है तो यह एक प्रचलित भ्रम है कि यूसीसी भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह के हितों के विरुद्ध होगा, जबकि सच यह है कि यूसीसी से सबसे अधिक लाभान्वित मुस्लिम महिलाएँ ही होंगी। यदि यूसीसी लागू होता है तो वे तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी मध्यकालीन और अमानवीय प्रथाओं से मुक्ति पा सकती हैं।
  • ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) का कहना है कि तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी प्रथाएँ धार्मिक आस्था के विषय हैं, अतः सरकार इनमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
  • हालाँकि एआईएमपीएलबी कोई वैधानिक या संवैधानिक संस्था नहीं है फिर भी दशकों से वह मुस्लिम पर्सनल लॉ के मामले में प्रगतिवादी प्रयासों का विरोध करती आ रही है।

यूनिफार्म सिविल कोड ज़रूरी क्यों?

  • सभी को बराबरी का दर्ज़ा: एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य का यह उत्तरदायित्व है कि वह विभिन्न जाति, धर्म, वर्ग और लिंग से संबंध रखने वाले अपने सभी नागरिकों के लिये एक समान नागरिक और व्यक्तिगत कानून का निर्माण करे।
  • लैंगिक समानता की बहाली: आमतौर पर यह देखा गया है कि लगभग सभी धर्मों के व्यक्तिगत कानून महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण हैं। पुरुषों को उत्तराधिकार और विरासत के मामले में तरज़ीह दी जाती है। ऐसे में, यूसीसी पुरुषों और महिलाओं दोनों को समानता के स्तर पर लाने में सहायक होगा।
  • नव-भारत की आकांक्षाओं की पूर्ति: दरअसल, समकालीन भारत पूरी तरह से एक नया समाज है, जिसमें आधे से भी अधिक आबादी 25 वर्ष से कम उम्र के लोगों की है। भारत के इस नौजवान वर्ग की सामाजिक चेतना को समानता, मानवता और आधुनिकता के सार्वभौमिक और वैश्विक सिद्धांतों ने आकार दिया है। यूनिफार्म सिविल कोड इस चेतना को और भी मज़बूत बनाएगा।
  • राष्ट्र की एकता और अखंडता की सुरक्षा: सभी भारतीय नागरिकों को कानूनों द्वारा एक समान सरंक्षण प्राप्त है, क्योंकि आपराधिक कानून और अन्य नागरिक कानून सभी के लिये समान हैं। यदि यूसीसी लागू होता है तो किसी विशेष समुदाय को रियायतें या अन्य विशेषाधिकारों के मुद्दों पर राजनीति की कोई संभावना नहीं होगी, जिससे देश की एकता और अखंडता अक्षुण्ण रहेगी।

क्यों आसान नहीं है यूनिफार्म सिविल कोड लागू करना?

  • देश की सांस्कृतिक विविधता के कारण व्यावहारिक कठिनाइयाँ: भारत के सभी धर्मों, संप्रदायों, जातियों, राज्यों आदि में व्यापक सांस्कृतिक विविधता देखने को मिलती है। यही कारण है कि विवाह जैसे व्यक्तिगत मुद्दों पर आम और एक समान राय बनाना व्यावहारिक रूप से कठिन है। उदाहारण के लिये: हिन्दू धर्म में विवाह को जहाँ एक संस्कार माना जाता है, वहीं मुस्लिम धर्म इसे 'संविदा' (Contract) मानता है।
  • धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का अतिक्रमण: भारत में बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक तबका और उनका प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं का मानना है कि यूसीसी उनके धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन होगा। दरअसल, ऐसा इस मुद्दे के राजनीतिकरण के कारण हुआ है। दक्षिणपंथी विचारधारा के उग्र समर्थकों का विचार यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय की सभी समस्याओं की जड़ उनके पर्सनल लॉज़ ही हैं, जबकि उन्हें वोट बैंक मानने वाली पार्टियाँ इस संबंध में तुष्टीकरण की नीतियों का पालन करती रहीं हैं, जिससे कट्टरपंथी वर्ग फल-फूल रहा है।
  • संवेदनशील और मुश्किल कार्य: यदि यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने का निर्णय ले भी लिया गया तो इसे समग्र रूप देना आसान नहीं होगा। इसके लिये न्यायालय को व्यक्तिगत मामलों से संबंधित सभी पहलुओं पर विचार करना होगा। विवाह, तलाक, पुनर्विवाह आदि जैसे मसलों पर किसी धर्म विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँचाए बिना कानून बनाना आसान काम नहीं है।

निष्कर्ष

  • तीन तलाक को असंवैधानिक करार देने का शीर्ष न्यायालय का यह फैसला निश्चित ही स्वागतयोग्य है। दरअसल, तीन तलाक को खत्म करने संबंधी कानून बनाने का दायित्व अब संसद का है लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय लोकतंत्र की मौलिक पहचान है और यह सरकार का दायित्व है कि वह अल्पसंख्यक समुदाय को यह विश्वास दिलाए कि उन पर बहुसंख्यकों के विचार नहीं थोपे जा रहे।
  • दरअसल, तीन तलाक के मामले में सुनवाई के दौरान न्यायालय ने यह भी कहा था कि सरकार ‘पाम राजपुत समिति’ की सिफारिशों को सार्वजनिक करे। विदित हो कि यह समिति पर्सनल लॉज़ के भेदभावपूर्ण प्रावधानों के कारण महिलाओं की चिंताजनक सामाजिक स्थिति को लेकर गठित की गई थी। अतः सरकार को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिये।
  • जहाँ तक यूनिफार्म सिविल कोड का प्रश्न है तो सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय ने फिर से इस मुद्दे को गरमा दिया है और विधि आयोग ने इस संबंध में पहल करना आरंभ कर दिया है।
  • दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 44 में यह प्रावधान है कि राज्य सम्पूर्ण देश में ‘समान नागरिक संहिता’ यानी यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने का प्रयास करेगा, अर्थात् सभी नागरिकों के लिये निजी कानून एक जैसे होंगे।
  • वहीं, कई लोगों का मानना यह है कि यूसीसी एनडीए सरकार द्वारा की गई एक पहल है, जिससे कि वह अल्पसंख्यकों को नियंत्रित करना चाहती है। यूसीसी के सार्थक उद्देश्यों के बावजूद इसे आज तक लागू नहीं किया जा सका, और इसका कारण यही राजनीति प्रेरित अवधारणाएँ हैं।
  • अब सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को भी लोगों ने अपने-अपने चश्मों से देखना शुरू कर दिया है। निजी कानूनों को लेकर जब तक हम अपने धार्मिक और पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो जाते, तब तक न तो यूनिफार्म सिविल कोड बहाल हो सकता है और न ही न्यायालय के इस आदेश का कोई दूरगामी प्रभाव होगा। फिलहाल न्यायपालिका ने अपना काम कर दिया है और अब गेंद विधायिका  के पाले में है।