संभव नहीं है बंदूक के साए में शांति बहाल करना | 04 Nov 2017
संदर्भ
- इस बार स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि 'न गोली से न गाली से, कश्मीर की समस्या सुलझेगी गले लगाने से’।
- कश्मीर के लिये अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाते हुए सरकार ने हाल ही में शांति वार्ता के माध्यम से मुद्दों के समाधान की पहल की है और दिनेश्वर शर्मा को विशेष वार्ताकार नियुक्त किया है।
- पूर्व आईबी प्रमुख दिनेश्वर शर्मा जम्मू और कश्मीर में निर्वाचित प्रतिनिधियों और विभिन्न व्यक्तियों के साथ वार्ता करेंगे और घाटी में शांति बहाली का प्रयास करेंगे।
पृष्ठभूमि
- आतंकी संगठन हिज़बुल मुजाहिद्दीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से भड़की हिंसा की आग में कश्मीर आज भी जल रहा है। भारत विरोधी प्रदर्शनों, आतंकी गतिविधियों में वृद्धि, आतंकियों एवं प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध सेना की सघन कार्रवाई के कारण इस क्षेत्र में गंभीर अशांति व्याप्त है। ऐसे में सरकार ने वार्ताकार की नियुक्ति कर कश्मीर में शांति बहल करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है।
क्या होगी वार्ताकार की भूमिका?
- आईबी के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को जम्मू-कश्मीर में सभी संबद्ध पक्षों के साथ संवाद करने का दायित्व सौंपा गया है। उन्हें इस मसले से संबद्ध पक्षों को तय करने की आज़ादी भी दी गई है, ताकि वे राज्य के निर्वाचित प्रतिनिधियों, विभिन्न संगठनों तथा संबंधित व्यक्तियों के साथ बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकें।
- वह राज्य के सभी वर्गों, विशेषकर युवाओं के साथ समग्र वार्ता करेंगे और उनकी अपेक्षाएँ तथा आकांक्षाएँ जानकर राज्य सरकार व केन्द्र सरकार को अवगत कराएंगे।
- साथ ही उनका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य उन ताकतों का पता लगाना भी होगा जो लगातार भारत विरोधी माहौल तैयार करने का कार्य कर रही हैं।
केंद्र सरकार की अपेक्षाएँ क्या हैं?
- सरकार अलगाववादियों से बातचीत करने की जल्दबाज़ी नहीं कर रही है और विभिन्न संगठनों के ज़रिये कश्मीरी लोगों से सीधे संपर्क करना चाहती है।
- यह स्पष्ट है कि सरकार भी कश्मीर में शांति चाहती है, लेकिन यह शांति टिकाऊ होनी चाहिये। ऐसा न हो कि अभी के लिये शांति बहाल हो जाए और कुछ दिनों बाद फिर से हिंसा भड़क जाए।
- अतः कश्मीर में चिरकाल तक शांति बहाली और इस समस्या का स्थायी समाधान सरकार के एजेंडे में है, जो कि उचित भी है।
सफल वार्ता के राह की चुनौतियाँ
- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भले ही गोली और गाली से परहेज़ करने को कहा है, लेकिन सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत का कहना है कि राज्य में सेना पहले की ही तरह अपनी गतिविधियाँ जारी रखेगी और वार्ताकार की नियुक्ति से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
- कुछ लोगों का मानना है कि कश्मीर समस्या हल करने का इकलौता रास्ता यही है कि घाटी में बम लगाकर सफाया कर दिया जाए और नए सिरे से शुरुआत की जाए।
- इस तरह के विचारों के कारण ही एक औसत कश्मीरी भारतीयों के प्रति मिली-जुली सोच रखता है, जबकि भारत सरकार के प्रति उसके मन में काफी नफरत है।
- केंद्र सरकार का मानना है कि कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल करने के लिये बातचीत केवल कानूनी रूप से स्वीकृत पक्षधारकों या राजनीतिक दलों के साथ ही की जा सकती है। जबकि दिनेश्वर शर्मा को सभी पक्षधारकों से बातचीत का दायित्व सौंपा गया है। ये बातें अनचाहे विरोधाभाष को जन्म देती हैं।
कश्मीर में अशांति के कारण
- कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में आगे की राह तब तक नहीं निकल सकती जब तक कि ये पता न हो कि आखिर अशांति के कारण क्या हैं? इस अशांति के कारण हैं:
♦ धार्मिक कट्टरवाद: कश्मीर में अशांति का एक प्रमुख कारण धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा मिलना है, हालाँकि इसका प्रभाव देश के दूसरे हिस्सों में भी महसूस किया गया है। अलगाववादी आज कश्मीर घाटी को स्वतंत्र इस्लामिक गणतंत्र में बदलना चाहते हैं। कश्मीर भारतीय संघ का हिस्सा है और इसकी इज़ाज़त नहीं दी जा सकती है।
♦ सोशल मीडिया का दुरुपयोग: सोशल मीडिया की लोकप्रियता इस बात में निहित है कि यहाँ विचारों का आदान-प्रदान मिनटों में हो जाता है। कश्मीर में इंटरनेट की इस खूबी का बेजा दुरुपयोग हुआ। विदित हो कि बुरहान वाली आतंकियों का पोस्टर बॉय भी इंटरनेट के माध्यम से अलगाववादी विचारों के प्रचार-प्रसार के कारण ही बना। बहुत से कश्मीरी युवाओं का इंटरनेट के ज़रिये ब्रेनवाश कर भारत विरोधी लंबे संघर्ष के लिये तैयार किया है।
♦ रोज़गार एवं शिक्षा का अभाव: जम्मू-कश्मीर में प्रमुख रोज़गार के साधनों की कमी है। युवा आबादी अधिकांशतः बेरोज़गार है अथवा उन्हें गुणवत्तापरक रोज़गार नहीं मिल पाता। इससे कश्मीरी युवाओं में निराशा एवं तनाव की वृद्धि हुई है। तनाव ग्रस्त युवाओं को भटकाना आसान होता है। कश्मीर में अशांति के दौरान ‘पत्थरबाज़’ शब्द चर्चा में रहा है। अधिकांश पत्थरबाज़ कश्मीर के वे युवा हैं जो बेरोज़गारी और धार्मिक कट्टरवाद की दोहरी मार झेल रहे हैं।
आगे की राह
- कश्मीर में शांति बहाल करना टेढ़ी-खीर है, क्योंकि सरकार को एक साथ कई मोर्चों पर बेहतर करना है। कश्मीर में शांति के लिये:
♦ आतंक के विरुद्ध ज़ीरो टॉलरेंस की नीति अपनाना: आतंक के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस की नीति का पालन करते हुए आतंकियों की बन्दूकों को शांत रखना होगा।
♦ सुरक्षा बलों को ज़िम्मेदार बनाना: साथ ही सुरक्षा बलों को सामान्य कश्मीरियों को परेशान करने से बचते हुए सावधानीपूर्वक गतिविधियों का संचालन करना होगा।
♦ कश्मीरियों का विश्वास जितना: जिन इलाकों में शांति स्थापित हो गई हो वहाँ सुरक्षाबलों की संख्या में कमी लाते हुए आम कश्मीरियों को विश्वास में लेना होगा।
♦ मीडिया की भूमिका: मीडिया को भी सकारात्मक भूमिका निभानी होगी। कश्मीर भारत का अंग है और कश्मीरी हमारे ही भाई-बहन हैं। अतः मीडिया को टीआरपी की दौड़ में भारत की धर्म निरपेक्ष छवि को धूमिल करने से बचना होगा।
♦ राजनीतिक उदासीनता खत्म करना: वर्ष 2010 में संप्रग सरकार के समय कश्मीर मसले पर वार्ताकार की भूमिका निभाने वाले एम.एम. अंसारी ने सरकार को सौंपी अपनी विस्तृत रिपोर्ट में कश्मीर से संबंधित तमाम पहलुओं को रखा था, लेकिन इन सिफारिशों पर अमल कर पाने में सरकार के नाकाम रहने से वह रिपोर्ट धूल ही फाँक रही है। हमें कश्मीर को डंडे के दम पर संतुलित रखने की राजनीतिक आकांक्षा से बचना होगा।
♦ पाकिस्तान से वार्ता: कश्मीर में भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने में पाकिस्तान का सीधा हाथ रहा है। यहाँ तक कि आईएसआई द्वारा अलगावादियों को फण्ड उपलब्ध कराने के भी प्रमाण मिलते रहे हैं। ऐसे में पाकिस्तान से वार्ता आरंभ कर कश्मीर पर सहमति बनाए बिना लंबे समय तक यहाँ शांति बहाल करना एक बड़ी चुनौती है।
निष्कर्ष
- कश्मीर की पहले से ही जटिल समस्या में आज कुछ नए दृष्टिकोण जुड़ गए हैं। आज वह दौर जहाँ महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्र निर्माताओं के विचारों को चुनौती दी जा रही, जबकि नाथूराम गोड्से की सराहना में कार्यक्रम एवं संगोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं।
- गाँधी और नेहरू जैसे महापुरुषों ने ही भारत के धर्म निरपेक्ष मूल्यों को तय किया है। यदि हम स्वयं अपने मूल्यों पर प्रश्न उठाएंगे तो मुस्लिम बहुल कश्मीर असुरक्षित महसूस करेगा।
- वार्ताकार के तौर पर दिनेश्वर शर्मा की सफलता बहुत हद तक इस बात पर भी निर्भर करती है कि उन्हें देश के अंदर से कितना समर्थन मिलता है। राजनीतिक आकांक्षाओं को दरकिनार कर सभी दलों को आतंक के खिलाफ एक जुट होना ही होगा।
- यह भी ध्यान रखना होगा कि कश्मीर समस्या का समाधान कश्मीर को खत्म करके नहीं, बल्कि कश्मीर में परिस्थितियों को सुधार कर ही किया जा सकता है। ज़ाहिर है बंदूकों के साए में शांति संभव नहीं है।