निरंतर गहराते जल संकट के कारण और समाधान के बिंदु | 08 Aug 2017

संदर्भ
भारत में जल संकट की समस्या इतनी गहराती जा रही है कि इसका समाधान करने के लिये जल्द ही उचित कार्यवाही किये जाने की आवश्यकता है| हालाँकि, ऐसा नहीं है कि इस संबंध में प्रयास नहीं किये गए हैं या जल के संरक्षण संबंधी कोई पहल नहीं की गई है| तथापि, अभी भी इस संबंध में बनाए गए कानून एवं नीतियाँ अपर्याप्त हैं| संभवतः इसका कारण यह है कि घरेलू जल और सिंचाई का प्राथमिक स्रोत भूमिगत जल ही है| ऐसी स्थिति में भूमिगत जल की उपयोगिता एवं महत्त्व दोनों ही महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं|  परन्तु, जल संरक्षण के संबंध में विचार करने वाले लोगों का ध्यान अभी भी सतही जल पर ही केन्द्रित है| इस प्रवृत्ति में बदलाव की आवश्यकता है, क्योंकि देश के अनेक भागों में जल का स्तर तेज़ी से गिरता जा रहा है, जिसका तात्पर्य यह है कि इसका उपयोग आवश्यकता से अधिक हो रहा है|

  • भूमिगत जल के अत्यधिक उपयोग का एक प्रमुख कारण संसाधनों तक पहुँच बनाने संबंधी कानूनी ढाँचा है| भूमिगत जल के संरक्षण संबंधी कानूनी ढाँचे के निर्माण की शुरुआत 19वीं सदी के मध्य में की गई थी|
  • इस संबंध में न्यायाधीशों द्वारा यह निर्णय लिया गया कि इस अदृश्य पदार्थ (invisible substance) के विनियमन का सबसे उचित तरीका यह होगा कि जिस भी भूमि मालिक की ज़मीन में तय मात्रा से अधिक भूमिगत जल प्राप्त होता है, उसे उस अधिक जल राशि के अनुरूप भुगतान करना होगा| 
  • वस्तुतः इस निर्णय के पीछे मंशा यह रही होगी कि ऐसा करने से भूमि मालिक भुगतान के लालच में कम से कम जल का उपयोग करेंगे, परंतु इस निर्णय का परिणाम बिलकुल उलट हुआ, भूमि मालिकों ने इसे एक अवसर के रूप में देखा तथा इससे भूमिगत जल के दुरुपयोग की समस्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई| 
  • यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारे देश में भूमिगत जल के संरक्षण एवं प्रबंधन से संबंधित कोई प्रभावी ढाँचा अभी तक प्रभाव में नहीं आ सका है, जिसके बलबूते जल संकट की समस्या का सामना किया जा सकता|
  • वस्तुतः इसके लिये एक ऐसे ढाँचे का निर्माण करने की आवश्यकता है, जिससे भूमि के स्वामी भूमिगत जल को अपनी संपत्ति समझें तथा एक संसाधन के रूप में वे इसका उपयोग करें| 

अपर्याप्त ढाँचा 

  • यांत्रिक पंपिंग में बड़े पैमाने पर विस्तार के बाद केंद्रीय सरकार ने भूमिगत जल के संरक्षण एवं प्रबंधन हेतु एक नियामकीय ढाँचे के आधुनिकीकरण की आवश्यकता को स्वीकार किया है|
  • भूमिगत जल से संबंधित इस प्रस्तावित उपाय को 1970 के दशक में पेश किये गए एक मॉडल विधेयक के अनुरूप तैयार किया गया है| 
  • उल्लेखनीय है कि उस विधेयक के अंतर्गत भूमिगत जल के अतिरिक्त उपयोग के संबंध में राज्य-स्तरीय नियंत्रण को संबद्ध करने की बात की गई थी, तथापि इसके अंतर्गत भूमिगत जल पर ज़मीन मालिकों को असीमित नियंत्रण देने संबंधी प्रावधान को स्वीकार नहीं किया गया था|
  • इसे 1990 के दशक के उत्तरार्ध से करीब एक दर्ज़न राज्यों द्वारा स्वीकार किया गया| हालाँकि, यह बहुत बुरी तरह से असफल रहा| 
  • इतना ही नहीं, इसके अंतर्गत भूजल की सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु किसी सटीक कानूनी व्यवस्था का कोई प्रावधान नहीं है| 
  • पिछले दशकों में यह स्थिति न केवल उन राज्यों में, जहाँ जल के स्तर में कमी आ रही है, बल्कि ऐसे राज्यों में भी बिगड़ गई है, जो जल की कमी से कम ही प्रभावित होते थे| 
  • वास्तव में जल पंपों की कुशलता भी चिंता का विषय बन गई है| अतः चिंता इस बात की है कि भूमिगत जल की पर्याप्त मात्र तक कैसे पहुँच बनाई जाए, जोकि स्वास्थ्य के लिये हानिकारक नहीं होता है|
  • वर्तमान कानूनी व्यवस्था भूमिगत जल से जुड़े बहु-संकटों का समाधान करने में प्रभावी सिद्ध नहीं हुआ है|
  • इसे इस दशक के प्रारंभ (पहले योजना आयोग में तथा हाल ही में जल संधान, नदी विकास और गंगा पुनर्नवीकरण मंत्रालय में) में ही औपचारिक मान्यता प्राप्त हुई है| 
  • इसके परिणामस्वरूप भूमिगत जल (सतत् प्रबंधन) विधेयक, 2017 पारित हुआ, जो भूमिगत जल के वर्तमान उपयोग पर आधारित है तथा यह सतही जल से भी जुड़ा हुआ है|

विकेंद्रीकरण के आधार पर

  • भूमिगत जल विधेयक, 2017 के अंतर्गत एक बिलकुल अलग एवं प्राचीन पद्धति पर आधारित नियामक ढाँचे का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया है| यह विधेयक जल की एकाग्रता की प्रकृति, भूमिगत जल पर विकेंद्रीकृत नियंत्रण की आवश्यकता तथा जल के स्तर को सुरक्षित रखने की आवश्यकता पर आधारित है|
  • यह विधेयक पिछले कुछ दशकों में भूमिगत जल के संबंध में लिये गए निर्णयों पर आधारित है|
    वस्तुतः यह जल को एक सार्वजनिक विश्वास की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करता है, यानि इसके उपयोग पर सभी प्राणियों का अधिकार है| इस विधेयक में जल की उपलब्धता को मौलिक अधिकार के रूप में वर्णित किया गया है|
  • इतना ही नहीं, बल्कि इसके अंतर्गत इसकी सुरक्षा हेतु कुछ विशेष सिद्धांतों को भी लाया गया है, जो कि वर्तमान में जल के उपयोग से संबंधित विधान में पूर्णतया अनुपस्थित है|
  • इसके अतिरिक्त इस विधेयक में जल के विकेंद्रीकरण एवं सामान्य जन द्वारा उपयोग किये जाने संबंधी प्रावधानों को भी शामिल किया गया है| 

निष्कर्ष
ध्यातव्य है कि देश कि 4/5 जनसंख्या को घरेलू उपयोग तथा सिंचाई हेतु जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु एक बेहतर विनियामक की आवश्यकता है| दशकों से इस संबंध में लापरवाही का रवैया अपनाया जा रहा है| संभवतः इसका मुख्य कारण यह है कि भूमिगत जल की सांद्रता में दिनोंदिन कमी आती जा रही है| बहुत से स्थानों की स्थिति तो ऐसी है कि वहाँ अब नियामक तंत्र भी प्रभावी रूप से कार्य करने में सक्षम नहीं है| इस संबंध में प्रस्तावित विधेयक के आशा की किरण साबित होने की संभावना है| इसके अंतर्गत वर्णित जल की सुरक्षा एवं प्रबंधन प्रावधान इस बात का संकेत देते हैं कि यदि इस संबंध में ईमानदारी से काम किया जाए तो भूमिगत जल के गिरते स्तर को रोका जा सकता है तथा जल को संरक्षित किया जा सकता है|