परोपकार का गुप्त एजेंडा | 01 Feb 2017

बहुत कम समय में ही सार्वभौमिक बुनियादी आय (Universal Basic Income - UBI) के विचार ने सम्पूर्ण वैश्विक जगत में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है| इसका सबसे जीवंत उदाहरण यह है कि जहाँ एक ओर स्वीटजरलैंड की सरकार ने इस सम्बन्ध में पिछले वर्ष एक प्रस्ताव पारित किया था, वहीं दूसरी ओर फ़िनलैंड ने भी जनवरी माह की शुरुआत में ही इस प्रस्ताव को संसद के पटल पर पेश किया है| मीडिया द्वारा प्रदत्त सूचनाओं की माने तो इस वर्ष भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले आर्थिक सर्वेक्षण में भी सार्वभौमिक आधारभूत आय को समर्थन प्रदान करने पर विचार किया जा रहा है|

  • प्रथम दृष्टया यह प्रत्येक व्यक्ति के लिये एक बिना शर्त बुनियादी आय के उत्तम विचार के रूप में प्रतीत होता है|
  • पश्चिमी देशों में सार्वभौमिक बुनियादी आय को दो समस्याओं के समाधान के रूप में परिभाषित किया जाता है| सर्वप्रथम, स्वचालन के कारण बेरोज़गारी (Unemployment due to Automation) तथा दूसरा, चरम असमानता एवं  अकालप्रौढ़ता (precarity) के कारण बढ़ते सामाजिक उपद्रव|
  • ध्यातव्य है कि भारत में सार्वभौमिक बुनियादी आय का विचार बहुत ही संकीर्ण है| इसका अधिकांश भाग आर्थिक व्यवहार्यता (Financial Viability) से सम्बद्ध है|
  • इससे सम्बन्धित मुद्दा वस्तुत: यह है कि कुछ बुद्धिजीवियों के अनुसार जहाँ एक ओर यह समृद्धि को बढ़ावा देने का एक अधिक कुशल मार्ग साबित हो सकता है वहीं इस सिद्धांत के विरोधी इस बात का दावा करते हैं कि इसके अनुपालन से अर्थव्यवस्था पर वित्तीय बोझ बढ़ जाएगा जिससे देश की विकास दर प्रभावित होने की प्रबल संभावना है|

सार्वभौमिक बुनियादी आय के प्रचारक 

  • वर्तमान में सार्वभौमिक बुनियादी आय के मुख्य प्रचारक घटक मुक्त-बाज़ार के उत्साहित अधिवक्ता हैं| वस्तुतः सार्वभौमिक बुनियादी आय का विचार सर्वप्रथम मिल्टन फ्राइडमैन (Milton Friedman) द्वारा प्रस्तुत किया गया था|
  • शैक्षणिक दायरे से बाहर सार्वभौमिक बुनियादी आय का प्रबल समर्थक क्षेत्र वैश्विक तकीनीकी क्षेत्र है|
  • सार्वभौमिक बुनियादी आय से संबंधित प्राथमिक परियोजनाओं के संबंध में जारी एक रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि गरीबों की मदद करने का सबसे बेहतर तरीका उनकी आर्थिक मदद करना होता है न कि पारंपरिक कल्याण योजनाओं का अनुपालन करना|
  • हालाँकि यह और बात है कि शायद किसी दिन अचानक अमीरों के नैतिक जागरण के कारण विश्व से गरीबी एवं असमानता की समस्या पूरी तरह से हल हो जाए| वस्तुतः यह कोरी कल्पना मात्र है| 

यह कोई लाभ जोड़ने वाला कारक नहीं है 

  • सार्वभौमिक बुनियादी आय के संबंध में सबसे बड़ा मिथक यह है कि यह पुनर्वितरण ही वह नीति है जो असमानता को खत्म करने में कारगर साबित होगी|
  • हालाँकि यह वास्तव में एक पुनर्वितरण साबित हो सकती है, बशर्ते यह दो महत्त्वपूर्ण शर्तों को पूरा करने में सक्षम हो| सर्वप्रथम इसे अमीर लोगों पर अधिरोपित करों के द्वारा वित्त पोषित किया जाए तथा दूसरा यह कि गरीब लोगों को प्रदत्त मौजूदा अधिकारों को बने रहने दिया जाए|
  • सम्भवतः इस प्रकार की सार्वभौमिक बुनियादी आय वास्तव में एक समाजवादी उपाय सिद्ध होगी, जो कि श्रमिक वर्ग की आय में वृद्धि करने के साथ-साथ उनकी व्यय क्षमता में भी बढ़ोतरी करने में सक्षम साबित हो सकेगी|
  • परन्तु आज तक भारत में अथवा वैश्विक स्तर पर सार्वभौमिक बुनियादी आय संबंधी जितने भी प्रस्ताव प्रस्तुत किये गए हैं उनमें से किसी में भी उपरोक्त तत्त्वों के विषय में चर्चा नहीं की गई है|
  • गौरतलब है कि इस संबंध में अभी तक का सबसे बहुप्रचारित प्रयोग बेरोज़गारी को प्रतिबंधित करके किया गया है| हालाँकि इसके अंतर्गत सभी प्रकार के कामों में संलग्न व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है|
  • इसके अतिरिक्त इसके अंतर्गत वर्तमान में मौजूद बुनियादी बेरोज़गारी भत्ते (Basic Unemployment Allowance) तथा श्रम बाज़ार सब्सिडी (Labour Market Subsidy) के स्थान पर किसी दूसरे लाभ को न जोड़ने का निर्णय किया गया है|
  • भारत में, सार्वभौमिक बुनियादी आय को लाभ से संबद्ध नहीं किया गया है| 

प्रमुख बिंदु

  • गौरतलब है कि वर्ष 2008 में, ईपीडब्लू नामक जर्नल में प्रकाशित एक लेख में यह स्पष्ट किया गया कि प्रतिवर्ष तकरीबन 1,80,000 करोड़ रुपये केंद्र द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों पर खर्च किये जाते हैं| इतना ही नहीं वरन् गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले तकरीबन 70 मिलियन घरों को विशेष सब्सिडी के रूप में नकद धनराशि भी प्रदान की जाती है|
  • ऐसे में भारत में सार्वभौमिक बुनियादी आय की संकल्पना पुरानी बोतल में नई शराब सी प्रतीत होती जान पड़ती है|
  • उल्लेखनीय है कि यूबीआई के प्रमुख उद्देश्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुदृढ़ बनाना तथा गरीब तबके के लिये सब्सिडी के माध्यम से भोजन, ईंधन तथा अन्य पोषक तत्त्वों की पहुँच सुनिश्चित करना शामिल है|
  • हालाँकि यदि गौर किया जाए तो उक्त संकल्पना के तहत सार्वभौमिक शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में किया गया है, यह और बात है कि इसका न तो कोई विशेष उद्देश्य ही यहाँ उल्लिखित किया गया है और न ही कोई विशेष कारण|
  • गौरतलब है की बुनियादी आय के संबंध में विचार करते समय कुछ बातों के विषय  में विशेष रूप से गौर किये जाने की आवश्यकता है| जैसा कि हम सभी जानते हैं कि बुनियादी आय को जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक कारक के सन्दर्भ में लिया जाता है|
  • पिछले वर्ष केंद्र सरकार द्वारा अकुशल एवं गैर-कृषि कार्यों में संलग्न श्रमिकों की न्यूनतम आय को (औद्योगिक क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों की आय के समान स्तर पर) 9,100 रुपये प्रतिमाह के स्तर पर लाने संबंधी एक प्रशंसनीय प्रयास किया गया है| उल्लेखनीय है कि वर्तमान में मज़दूरी की दर 4,800 रुपये प्रतिमाह के स्तर पर है| 
  • हालाँकि इस सन्दर्भ में बहुत से अलग-अलग आँकड़े प्रस्तुत किये गए हैं| (संभवतः इस सभी आँकड़ों को तेंदुलकर समिति द्वारा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के लिये प्रतिदिन का खर्च 33 रुपये करने के अनुमान के आधार पर तैयार किया गया है)|
  • इस आधार पर किसी व्यक्ति की यूबीआई 1000 रुपये से 1250 रुपये प्रतिमाह तथा 12,000 से 15,000 रुपये प्रतिवर्ष होनी चाहिये|
  • गौरतलब है कि इस न्यूनतम आँकड़े की अनुमानित लागत देश की जीडीपी के 12-15% के स्तर पर आँकी गई है| हालाँकि केंद्र सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सब्सिडी की लागत देश की जीडीपी का तकरीबन 4 - 4.5% मात्र ही है|

चुनौतियाँ

  • उपरोक्त विवरण से तीन चुनौतियाँ स्पष्ट होती हैं; प्रथम, जब हम बुनियादी आय की बात करते हैं तो क्या हम लोगों को बुनियादी आय के संबंध में कोई क़ानूनी अधिकार प्रदान कर रहे होते हैं?
  • दूसरी, क्या इसके सटीक अनुपालन हेतु कानून में किसी प्रावधान की व्यवस्था की गई है? तथा तीसरी चुनौती, क्या बुनियादी आय प्रदान करने के संबंध में किस प्रकार की क़ानूनी बाध्यता रहेगी? 
  • इस सन्दर्भ में यह अभी अस्पष्ट है कि यूबीआई की संकल्पना को वस्तुतः (धन के रूप में) सब्सिडी इत्यादि के रूप में प्रदान किया जाएगा अथवा किसी अन्य रूप में, इसमें  अभी भी संदेह बना हुआ है|
  • इसके अतिरिक्त अभी तक देश में गरीबी की परिभाषा को भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया गया है| 
  • इन सभी मुद्दों के साथ-साथ सबसे गंभीर प्रश्न यह कि इस संकल्पना को वास्तविक रूप प्रदान करने के लिये आवश्यक धन कहाँ से आएगा?
  • उल्लेखनीय है कि एक बुनियादी आय चाहे वह कम हो या अधिक, गरीबी उन्मूलन के विचारार्थ आरंभ किये गए सार्वजनिक वितरण कार्यक्रम, मध्यान्ह भोजन तथा मनरेगा जैसे कार्यक्रमों को सुदृढ़ करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है| 
  • ध्यातव्य है कि मनरेगा के अंतर्गत मात्र कुछ दिनों की मज़दूरी की गारंटी प्रदान की जाती है जबकि यूबीआई के अंतर्गत साल भर आय के रूप में सब्सिडी प्रदान की जाती है| यहाँ मनरेगा का उदाहरण इसलिये लिया गया है क्योंकि यह रोज़गार की गारंटी तो अवश्य प्रदान करता है परन्तु अधिकार नहीं| जबकि विदेशों में लोगों को यह अधिकार के रूप में प्राप्त होता है|
  • हालाँकि इस समस्त व्यवस्था को हाल ही में विमुद्रीकरण के कारण उपजी नकदी की समस्या के कारण भी बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है| हालाँकि उपरोक्त सन्दर्भ में बात करते समय सबसे गंभीर प्रश्न यह उठता है कि क्या सार्वभौमिक बुनियादी आय से असमानता एवं गरीबी के स्तर में कमी आएगी अथवा नहीं ? यदि इसका उत्तर हाँ है तो ऐसी कई वस्तुएँ हैं जो एक राज्य द्वारा सार्वभौमिक बुनियादी आय की लागत के अंश के रूप में प्रयोग की जा सकती है| उदाहरण के तौर पर, मनरेगा के अंतर्गत आवंटित किये जाने वाली धनराशि  को समय पर प्रदान करने हेतु एक प्रभावशाली कानून लागू किया जाना|

अन्य पक्ष

  • ध्यातव्य है कि जिस प्रकार देश में कल्याणकारी योजनाओं को उनके उद्देश्यों की पूर्ति हेतु हर स्तर पर सहयोग एवं बढ़ावा प्रदान किया जा रहा है, उससे यह तो स्पष्ट है कि यूबीआई जैम (जन-धन, आधार तथा मोबाइल) के मंच पर एक अत्यंत ही प्रभावकारी उपकरण सिद्ध होने वाली संकल्पना है|
  • यहाँ एक और बात गौर करने लायक है कि यदि देश में विद्यमान सभी कल्याणकारी योजनाओं के प्रतिमानों को यूबीआई के अधीन स्थानांतरित कर दिया जाता है तो सम्भवतः इन सभी  प्रतिमानों में निहित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की वैधानिक एवं सामाजिक प्रतिबद्धता एवं जवाबदेहिता में कमी आने की सम्भावना बढ़ जाएगी|
  • परन्तु यूबीआई के अंतर्गत, सरकार को यह अधिकार प्राप्त होगा कि वह मुद्रास्फीति की स्थिति में सब्सिडी के रूप में प्रदान की जाने वाली सहायता में (विशेषकर नकदी के रूप में) कटौती कर सकता है| उदाहरण के तौर पर, वृद्धा पेंशन एवं विधवा पेंशन में की गई कटौती|

एक सार्वभौमिक बुनियादी आय क्यों?

  • वस्तुतः सार्वभौमिक बुनियादी आय एक प्रकार का बेरोज़गारी बीमा होती है जो हर किसी को प्रदान नहीं किया जा सकता है| अत: इसे लागू करने के लिये कुछ विशेष पैमाने तय करने की आवश्यकता है|
  • इसका मुख्य कारण यह है कि देश के प्रत्येक नागरिक को बुनियादी आय प्रदान करने हेतु आवश्यक धन सरकार के पास नहीं होता है अत: यही कारण है कि सरकार इसे सामाजिक सुरक्षा के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करती है|
  • यहाँ यह स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि दीर्घकाल से विकसित देशों के द्वारा हमेशा यह इच्छा प्रकट की गई है कि भारत खाद्य सुरक्षा से सम्बन्धित प्रावधानों (राज्यों द्वारा खाद्यानों की खरीद एवं उनका सब्सिडीयुक्त वितरण) का विस्तार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से करें| ताकि इससे एक सार्वभौमिक बुनियादी आय के निराकरण के लिये मार्ग खुल सकें|