धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल: महत्त्व और चुनौतियाँ | 12 Aug 2020
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
देश के प्रमुख विपक्षी दलों के अनुसार, राम मंदिर भूमि पूजन में प्रधानमंत्री का धार्मिक गतिविधियों में भाग लेना ‘प्रधानमंत्री के रूप में ली गई शपथ के साथ-साथ संविधान की मूल संरचना’ का भी उल्लंघन है। ध्यातव्य है कि प्रधानमंत्री ने अयोध्या में भूमि पूजन कर ‘श्री राम जन्मभूमि मंदिर’ का शिलान्यास किया और कहा कि राम मंदिर राष्ट्रीय एकता व भावना का प्रतीक है तथा इससे समूचे अयोध्या क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में सुधार होगा। राम मंदिर को भारतीय संस्कृति की ‘‘समृद्ध विरासत’’ का द्योतक बताते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि यह न केवल आने वाली पीढ़ियों को आस्था और संकल्प की, बल्कि अनंतकाल तक पूरी मानवता को प्रेरणा देता रहेगा।
वस्तुतः धर्मनिरपेक्षता एक जटिल तथा गत्यात्मक अवधारणा है। इस अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम यूरोप में किया गया। यह एक ऐसी विचारधारा है जिसमें धर्म और धर्म से संबंधित विचारों को इहलोक से संबंधित मामलों से जान बूझकर दूर रखा जाता है अर्थात् तटस्थ रखा जाता है। धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म को संरक्षण प्रदान करने से रोकती है।
इस आलेख में धर्मनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता का संवैधानिक दृष्टिकोण, धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक व नकारात्मक पक्ष, धर्मनिरपेक्षता के भारतीय व पश्चिमी मॉडल का तुलनात्मक अध्ययन तथा चुनौतियों और समाधान पर विमर्श किया जाएगा।
धर्मनिरपेक्षता से तात्पर्य
- धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य राजनीति या किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखे तथा सरकार धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव न करे।
- धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है।
- धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान होता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता है।
- धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में धर्म, व्यक्ति का नितांत निजी मामला है, जिसमे राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि विभिन्न धर्मों की मूल धारणाओं में आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।
धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में संवैधानिक दृष्टिकोण
- भारतीय परिप्रेक्ष्य में संविधान के निर्माण के समय से ही इसमें धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा निहित थी जो संविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद-25 से 28) से स्पष्ट होती है।
- भारतीय संविधान में पुन: धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए 42 वें संविधान संशोधन अधिनयम, 1976 द्वारा इसकी प्रस्तावना में ‘पंथ निरपेक्षता’ शब्द को जोड़ा गया।
- यहाँ पंथनिरपेक्षता का अर्थ है कि भारत सरकार धर्म के मामले में तटस्थ रहेगी। उसका अपना कोई धार्मिक पंथ नही होगा तथा देश में सभी नागरिकों को अपनी इच्छा के अनुसार धार्मिक उपासना का अधिकार होगा। भारत सरकार न तो किसी धार्मिक पंथ का पक्ष लेगी और न ही किसी धार्मिक पंथ का विरोध करेगी।
- पंथनिरपेक्ष राज्य धर्म के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव न कर प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है।
- भारत का संविधान किसी धर्म विशेष से जुड़ा हुआ नहीं है।
धर्मनिरपेक्षता का महत्त्व
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता अपने आप में एक अनूठी अवधारणा है जिसे भारतीय संस्कृति की विशेष आवश्यकताओं और विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अपनाया गया है। इसके महत्त्व को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है-
- धर्मनिरपेक्षता समाज में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा तर्कवाद को प्रोत्साहित करता है और एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य का आधार बनाता है।
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य धार्मिक दायित्वों से स्वतंत्र होता है सभी धर्मों के प्रति एक सहिष्णु रवैया अपनाता है।
- व्यक्ति अपनी धार्मिक पहचान के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होता है इसलिये वह किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह के हिंसापूर्ण व्यवहार के विरुद्ध सुरक्षा प्राप्त करना चाहेगा। यह सुरक्षा सिर्फ धर्मनिरपेक्ष राज्य ही प्रदान कर सकता है।
- धर्मनिरपेक्ष राज्य नास्तिकों के भी जीवन और संपत्ति की रक्षा करता है साथ ही उन्हें अपने तरीके की जीवन शैली और जीवन जीने का अधिकार भी प्रदान करता है।
- इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता एक सकारात्मक, क्रांतिकारी और व्यापक अवधारणा है जो विविधता को मज़बूती प्रदान करता है।
धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक पक्ष
- धर्मनिरपेक्षता की भावना एक उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है जो ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना से परिचालित है।
- धर्मनिरपेक्षता सभी को एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य करती है।
- इसमें किसी भी समुदाय का अन्य समुदायों पर वर्चस्व स्थापित नहीं होता है।
- यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करती है तथा धर्म को राजनीति से पृथक करने का कार्य करती है।
- धर्मनिरपेक्षता का लक्ष्य नैतिकता तथा मानव कल्याण को बढ़ावा देना है जो सभी धर्मों का मूल उद्देश्य भी है।
धर्मनिरपेक्षता के नकारात्मक पक्ष
- भारतीय परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्षता को लेकर आरोप लगाया जाता है कि यह पश्चिम से आयातित है। अर्थात् इसकी जड़े/उत्पत्ति ईसाइयत में खोजी जाती हैं।
- धर्मनिरपेक्षता पर धर्म विरोधी होने का आक्षेप भी लगाया जाता है जो लोगों की धार्मिक पहचान के लिये खतरा उत्पन्न करती है।
- भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता पर आरोप लगाया जाता है कि राज्य बहुसंख्यकों से प्रभावित होकर अल्पसंख्यकों के मामले में हस्तक्षेप करता है जो अल्पसंख्यकोंं के मन में यह शंका उत्पन्न करता है कि राज्य तुष्टीकरण की नीति को बढ़ावा देता है। ऐसी प्रवृत्तियाँ ही किसी समुदाय में सांप्रदायिकता को बढ़ावा देती हैं।
- धर्मनिरपेक्षता को कभी-कभी अति उत्पीड़नकारी रूप में भी देखा जाता है जो समुदायों/व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता में अत्यधिक हस्तक्षेप करती है।
धर्मनिरपेक्षता के भारतीय व पश्चिमी मॉडल का तुलनात्मक अध्ययन
- कभी-कभी यह कहा जाता है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की नकल भर है। लेकिन संविधान को ध्यान से पढ़ने से पता चलता है कि ऐसा नहीं है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। जिसका जिक्र निम्न बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है-
- पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता जहाँ धर्म एवं राज्य के बीच पूर्णत: संबंध विच्छेद पर आधारित है, वहीं भारतीय संदर्भ में यह अंतर-धार्मिक समानता पर आधारित है।
- पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का पूर्णत: नकारात्मक एवं अलगाववादी स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, वहीं भारत में यह समग्र रूप से सभी धर्मों का सम्मान करने की संवैधानिक मान्यता पर आधारित है।
- गौरतलब है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने अंतःधार्मिक और अंतर-धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केंद्रित किया है। इसने हिंदुओं के अंदर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अंदर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किये जा सकने वाले खतरों का विरोध किया है, जो इसे पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से भिन्न बनाती है।
- यदि पश्चिम में कोई धार्मिक संस्था किसी समुदाय या महिला के लिये कोई निर्देश देती है तो सरकार और न्यायालय उस मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। जबकि भारत में मंदिरों, मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश जैसे मुद्दों पर राज्य और न्यायालय दखल दे सकते हैं।
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी होती है और अनुकूलता भी, जो पश्चिम में देखने को नहीं मिलती है। उदाहरण के लिये भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है, वहीं सरकार ने बाल विवाह के उन्मूलन हेतु अनेक कानून भी बनाए हैं।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता की आलोचना के बिंदु
- कुछ आलोचकों का तर्क है कि धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी है, लेकिन भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है। इसमें सभी धर्मों को उचित सम्मान दिया गया है। उल्लेखनीय है कि धर्म निरपेक्षता संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व का विरोध तो करती है लेकिन यह धर्म विरोधी होने का पर्याय नहीं है।
- धर्म निरपेक्षता के विषय में यह भी कहा जाता है कि यह पश्चिम से आयातित है, अर्थात इसाईयत से प्रेरित है, लेकिन यह सही आलोचना नहीं है। दरअसल भारत में धर्मनिरपेक्षता को प्राचीन काल से ही अपनी एक विशिष्ट पहचान रही है, यह कहीं से आयातित नहीं बल्कि मौलिक है।
- यह आरोप लगाया जाता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा संचालित होती है। अल्पसंख्यकों को शिकायत है कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। उल्लेखनीय है कि तीन तलाक के मसले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का यह कहना था कि सामाजिक सुधारों के नाम पर राज्य द्वारा निजी कानूनों में दखल दिया जा रहा है। वहीं जैन धर्मावलंबी अपनी संथारा प्रथा का बचाव उसके हजारों सालों से चले आने के आधार पर कर रहे हैं।
- धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठाती कुछ घटनाएँ भी इसके समक्ष चुनौती पेश करती रही हैं जैसे 1984 के दंगे, बाबरी मस्जिद का ध्वंस, वर्ष 1992-93 के मुंबई दंगे, गोधरा कांड और वर्ष 2003 के गुजरात दंगे, गौहत्या रोकने की आड़ में धार्मिक और नस्लीय हमले आदि।
- आलोचकों द्वारा एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि धर्मनिरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है।
- यूनिफॉर्म सिविल कोड (Uniform Civil Code) धर्मनिरपेक्षता के समक्ष एक अन्य चुनौती पेश कर रही है दरअसल, यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता आज तक बहाल नहीं हो पाई है और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के तौर पर यह देश की सबसे बड़ी चुनौती है।
समाधान
- चूँकि धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग है अत:सरकारों को चाहिये कि वे इसका संरक्षण सुनिश्चित करें।
- एस.आर.बोम्मई बनाम भारत गणराज्य मामले में वर्ष 1994 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया कि अगर धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया गया तो सत्ताधारी दल का धर्म ही देश का धर्म बन जाएगा। अत: राजनीतिक दलों को सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय पर अमल करने की आवश्यकता है।
- यूनिफार्म सिविल कोड यानी एक समान नागरिक संहिता जो धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करती है, को मज़बूती से लागू करने की आवश्यकता है।
- किसी भी धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत मामला है। अत: जनप्रतिनिधियों को चाहिये कि वे इसका प्रयोग वोट बैंक के रूप में करने से बचें।
आगे की राह
- सरकार को चाहिये कि वह इसका सरंक्षण सुनिश्चित करे चूँकि धर्मनिरपेक्षता को न्यायालय द्वारा संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा मान लिया गया है।
- धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक जनादेश का पालन सुनिश्चित करने के लिये एक आयोग का गठन भी किया जाना चाहिये।
- जनप्रतिनिधियों को ध्यान में रखना चाहिये कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म एक विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत और निजी मामला होता है। अंत उसे वोट बैंक के लिये राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिये। साथ ही राजनीति को धर्म से अलग करके देखा जाना चाहिये।
प्रश्न- धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? धर्मनिरपेक्षता के भारतीय व पश्चिमी मॉडल का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।