कृषि निर्यात बढ़ाने संबंधी मसौदा नीति की ज़रूरत क्यों? | 02 Nov 2017
संदर्भ
- हाल ही में कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (Agricultural and Processed Food Products Export Development Authority-Apeda) द्वारा कृषि निर्यात बढ़ाने संबंधी मसौदा नीति को सार्वजनिक चर्चा के लिये प्रस्तुत किया गया है।
- ध्यातव्य है कि पिछले कुछ वर्षों से कृषिगत समस्याएँ विकराल होती जा रही हैं। खेती-किसानी से लोगों को लाभ नहीं मिलने का एक बड़ा कारण कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों के निर्यात में देखी जा रही कमी भी है। ऐसे में यह नीति एकदम उचित समय पर प्रस्तुत की गई है।
कृषि निर्यात बढ़ाने संबंधी मसौदा नीति की ज़रूरत क्यों?
- विदित हो कि बीते तीन वर्षों में कृषि निर्यात लगातार कम हुआ है। वर्ष 2013-14 के 42.9 अरब डॉलर से घटकर यह वर्ष 2016-17 में 33.4 अरब डॉलर रह गया है और इस गिरावट को रोकना आवश्यक है।
- दरअसल यह इसलिये चिंतित करने वाला है, क्योंकि कृषि जिंसों के मामले में भारत घाटे से अधिशेष वाला देश बन चुका है और उसे अपनी अतिरिक्त उपज के लिये नए बाज़ारों की आवश्यकता है।
- कमज़ोर घरेलू कीमतों और किसानों की बढ़ती निराशा के बीच निर्यात के ठिकानों की सख्त आवश्यकता है।
- हाल के दिनों में बंपर पैदावार के बाद किसानों को फसलों के उचित दाम नहीं मिले, इससे भी निर्यात बढ़ाने की ज़रूरत उजागर होती है।
क्या प्रभाव लाएगा बढ़ा हुआ कृषि निर्यात?
- गौरतलब है कि निर्यात, कृषि उपज का प्रतिफल बढ़ाने का सबसे सहज माध्यम है।
- इतना ही नहीं इससे सरकार के वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के उद्देश्य पूर्ति में भी सहायता मिलेगी। मौजूदा कमज़ोर स्तर पर भी निर्यात कृषि क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 13 फीसदी का योगदान कर रहा है।
- निर्यात बढऩे से कृषि क्षेत्र में मज़बूती ही नहीं आएगी, बल्कि अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर भी होगा।
कृषि निर्यात में गिरावट के कारण
- कृषि निर्यात में यह गिरावट सरकार की कृषि संबंधी विदेश व्यापार नीतियों में अस्थिरता की वज़ह से आई है।
- निर्यात पर अक्सर प्रतिबंध लगाए जाते रहे हैं, निर्यात शुल्क और न्यूनतम समर्थन मूल्य ऐसे नहीं हैं कि एक स्थिर निर्यात बाज़ार तैयार किया जा सके।
- चावल, गेहूँ और चीनी जैसी थोक निर्यात वाली जिंस ऐसी ही नीतियों की शिकार हैं। इससे भारत की भरोसेमंद निर्यातक की छवि को भी धक्का पहुँचता है और विदेशी खरीदार नियमित आपूर्ति के लिये दूसरे देशों का रुख करते हैं।
मसौदा नीति में शामिल महत्त्वपूर्ण बातें
- विदित हो कि अनेक प्रतिस्पर्धी मूल्य वाली कृषि जिंसों में दुनिया का अग्रणी उत्पादक होने के बावजूद वैश्विक कृषि व्यापार में भारत की हिस्सेदारी महज 2.4 फीसदी है।
- ऐसी ज़मीनी हकीकत के साथ एपीडा ने स्थिर कृषि निर्यात नीति की बात कहकर बेहतर काम किया है। उसने यह भी कहा है कि हर वर्ष कम से कम 10 से 20 फीसदी घरेलू उपज का निर्यात किया जाए।
- कृषि निर्यात बढ़ाने का कार्य आसान नहीं होगा| अतः इस काम का एक हिस्सा एपीडा स्वयं संभालेगा, साथ ही निजी क्षेत्र को सरकारी मदद इस प्रक्रिया का अहम हिस्सा है
- इसमें फसल कटाई के बाद की मूल्य श्रृंखला, खराब होने वाली उपज के लिये संग्रहण केंद्र, गुणवत्ता जाँच की प्रयोगशालाएँ, शीत गृह, ठंडी अवस्था में माल ढुलाई, ढुलाई के पहले साफ-सफाई, ग्रेडिंग और प्राथमिक गुणवत्ता बरकरार रखने संबंधी उपचार के लिये पैक हाउस की स्थापना तथा निर्यात होने वाले माल की पैकेजिंग आदि की व्यवस्था शामिल है।
निष्कर्ष
- इसमें दो राय नहीं कि शीत गृहों के निर्माण की दिशा में कुछ प्रगति हुई है, लेकिन अभी भी उनकी तादाद 4.2 करोड़ शीतगृहों की वास्तविक आवश्यकता से काफी कम है। इसी तरह फिलहाल देश में 250 पैक हाउस हैं जबकि ज़रूरत 70,000 की है।
- केंद्र और राज्य सरकारों को किसानों, पशुपालकों और मछुआरों को शिक्षित बनाना होगा, ताकि वे कीटनाशकों और एंटीबायोटिक का उचित इस्तेमाल करके अपनी उपज को इनके घातक असर से बचाएँ, क्योंकि प्रायः फसलों के प्रभावित होने के कारण निर्यात रद्द कर दिया जाता है।
- सरकार की खाद्य प्रसंस्करण नीति मौजूदा स्वरूप में बड़ी परियोजनाओं और खाद्य आधारित क्लस्टरों के पक्ष में झुकी हुई है। इसमें छोटी-मझोली इकाइयों के लिये खास जगह नहीं है।
- गौरतलब है कि सरकार एक दशक से बड़े फूड पार्क का समर्थन करती आई है, लेकिन इसका कोई बड़ा फायदा नहीं नज़र आया है। वर्ष 2008-09 से जिन 40 मेगापार्कों को मंजूरी दी गई है उनमें से कुछ ही पूरे हुए हैं।
- एपीडा ने खराब होने वाली निर्यातोन्मुखी सामग्री के हवाई परिवहन पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की दर को मौजूदा 18 फीसदी से कम कर 5 फीसदी करने की मांग की है। इस पर भी विचार होना चाहिये। जब तक इन मुद्दों को हल नहीं किया जाता, कृषि निर्यात प्रभावित होता रहेगा।