परिसीमन का द्वंद्व | 01 Aug 2017
संदर्भ
गौरतलब है कि 31 जुलाई, 2017 को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा संसद के एक नए अनुलग्नक भवन (Parliament Annexe building) का उद्घाटन किया गया, इस नए भवन के उपलब्ध होने के कारण कानून निर्माताओं को बैठने के लिये अधिक स्थान प्राप्त होगा, जिससे वे भली-भाँति कार्य कर सकेंगे| संभवतः आज से कुछ वर्षों बाद संसद के दोनों सदनों में उपस्थित सदस्यों की संख्या में वृद्धि होने के चलते हमें एक नए संसद भवन की भी आवश्यकता हो सकती है| ध्यातव्य है कि वर्ष 2026 में संविधान (42वें संविधान संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा अधिरोपित सीटों के आवंटन संबंधी समयावधि समाप्त हो जाएगी|
- परंतु, एक नए भवन के निर्माण की आवश्यकता से कहीं अधिक विवाद उन मुद्दों पर आ अटका है जो संवैधानिक दृष्टिकोण से अधिक महत्त्वपूर्ण है| वस्तुतः इनके अंतर्गत संवैधानिक महत्ता वाले मुद्दों (इन अतिरिक्त सीटों का आवंटन राज्यों को किस प्रकार किया जाएगा और 1971 की जनगणना के आधार पर सीटों के आवंटन से संबंधित समस्या का निवारण भविष्य में किस प्रकार किया जाएगा) पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है|
मुद्दा क्या है?
- ध्यातव्य है कि संविधान अधिनियम, 1976 से पूर्व संविधान के अनुच्छेद 81 में यह प्रावधान था कि लोकसभा के सदस्यों की संख्या 550 से अधिक नहीं होनी चाहिये|
- अनुच्छेद 81 के खंड (2) के अनुसार, खंड (1) के उप-खंड (अ) के उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रत्येक राज्य को लोकसभा में सीटों का आवंटन कुछ इस प्रकार से किया जाना चाहिये कि सीटों की संख्या और राज्य की जनसंख्या के बीच का अनुपात सभी राज्यों के लिये एकसमान हो|
- इसके अतिरिक्त, इस अनुच्छेद के खंड (3) में ‘जनसंख्या’ शब्द से तात्पर्य ऐसी पूर्व जनगणना से लगाया गया जिसके संबंध में आँकड़े जारी किये जा चुके हों|
- इस अध्यादेश के परिणामस्वरूप जो राज्य जनसंख्या नियंत्रण पर अधिक ध्यान केंद्रित करेंगे, लोकसभा में उनकी सीटों की संख्या कम हो जाएगी तथा जिन राज्यों की जनसंख्या अधिक होगी, लोकसभा में उन्हें अधिक सीटें प्राप्त होंगी|
- इस आशंका को दूर करने के लिये, संविधान अधिनियम, 1976 की धारा 15 के तहत 1971 (इस वर्ष जनसंख्या 54.81 करोड़ तथा पंजीकृत मतदाताओं की संख्या 27.4 करोड़ थी) की जनसंख्या को ही आधार मानकर तब तक लोकसभा में इसी आधार वर्ष को प्रमुखता देकर सीटों का आवंटन करने का प्रावधान रखा गया जब तक कि वर्ष 2000 के पश्चात् हुई प्रथम जनगणना के आँकड़े जारी नहीं कर दिये जाते हैं|
- परन्तु, 84वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान अधिनियम, 2001 की धारा तीन के तहत इस समय - सीमा को वर्ष 2000 से बढ़ाकर 2026 कर दिया गया|
- सीटों के इस प्रकार के आवंटन के परिणामस्वरूप वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया आवंटन वर्तमान जनसंख्या आँकड़ों को देखते हुए उचित ही प्रतीत होता है|
- जैसा कि हम सभी जानते हैं कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, हमारे देश की जनसंख्या 121 करोड़ है जिसमें 83.41 करोड़ पंजीकृत मतदाता हैं|
- स्पष्ट है कि वर्तमान जनसंख्या को प्रदर्शित करने के लिये वर्ष 1971 की जनसंख्या को आधार मानना हमारी लोकतांत्रिक नीति के विकृत स्वरूप को प्रदर्शित करता है साथ ही यह संविधान के अनुच्छेद के अंतर्गत दिये गए प्रावधानों के भी विपरीत है|
- हालाँकि वर्ष 2026 के पश्चात् की जाने वाली पहली जनगणना के आँकड़े वर्ष 2031 में उपलब्ध होंगे, तब कहीं अगला नया परिसीमन किया जाएगा| इस नए परिसीमन से संसद में राज्यों को आवंटित की गई सीटों की वर्तमान व्यवस्था में नाटकीय रूप से परिवर्तन होने की संभावना है|
भविष्य के संदर्भ में सतर्कता का प्रावधान
- परंतु, सदस्यों की संख्या में होने वाली बढ़ोतरी की समस्या का समाधान करने से पूर्व ऐसे कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं जिनके विषय में विचार किया जाना चाहिये|
- इनमें पहला प्रश्न यह है कि वर्ष 1971 को आधार वर्ष मानकर सीटों का आवंटन किये जाने पर राज्यों द्वारा जिस प्रकार चिंता व्यक्त की गई थी, वह आज उचित प्रतीत होती है| अत: भविष्य में ऐसी किसी संभावना से बचने के लिये आवश्यक है कि उक्त सभी संदर्भों में विचार किया जाए|
- दूसरा प्रश्न यह है कि संसद में सदस्यों की संख्या बढ़ाए जाने के उपरांत आखिर किस प्रकार सदन और विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारी इतनी बड़ी संख्या में सदस्यों को संबोधित करेंगे क्योंकि सदस्य सदन में किसी मुद्दे को उठाने के लिये अपनी ओर अध्यक्ष का ध्यान आकर्षित करने के लिये प्रायः संघर्ष करते रहते हैं|
- लोकसभा में सदस्यों की वर्तमान संख्या (543) के कारण अध्यक्ष को सदन की कार्यवाहियों का संचालन करने में अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ता है| कईं बार ऐसा भी होता है कि सदस्यगण अध्यक्ष की बातों पर विशेष ध्यान नहीं देते हैं| अतः सदन की कार्यवाहियों को सुचारु ढंग से चलाना कठिन हो जाता है|
- कईं बार ऐसा भी होता है कि अध्यक्ष द्वारा प्रदत्त दिशा-निर्देशों और नियमों के प्रति सदस्यों द्वारा कोई सम्मान प्रकट नहीं किया जाता है| इतना ही नहीं बल्कि सदन की कार्यवाहियों में बाधा भी उत्पन्न की जाती है| ऐसे में सदस्यों की संख्या में एकाएक वृद्धि होने से अध्यक्ष के लिये कार्य करना तथा सदन की गरिमा को बनाए रखना बहुत अधिक कठिन हो जाएगा|
- इस क्रम में तीसरा प्रश्न शून्यकाल, प्रश्नकाल और सार्वजनिक महत्त्व के उभरते मुद्दों से संबंधित हैं जो हमारे लोकतंत्र के मुख्य तत्त्व के रूप में उपस्थित है| वस्तुतः सदन के सामान्य विधायी कार्यों की शुरुआत से पूर्व उक्त संदर्भ में 60 मिनट का समय दिया जाता है परंतु, भविष्य में इसके चलते सत्र के दौरान प्रतिदिन सदन और विधानसभाओं में वर्तमान की अपेक्षा और अधिक समय लगने की संभावना बढ़ जाएगी| जो कि स्वयं में चिंता का विषय है|
निष्कर्ष
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि नीति निर्माताओं को इस संदर्भ में गंभीरता से विचार विमर्श करने की आवश्यकता है क्योंकि 2026 बहुत दूर नहीं है| स्पष्ट है कि यदि हम अब इन समस्याओं का समाधान करने के लिये विचार-विमर्श करना प्रारंभ नहीं करते हैं तो वर्ष 2001 की तरह ही वर्ष 2026 में भी 1971 को आधार वर्ष मानने वाली सीमा का विस्तार करना होगा| हालाँकि इससे समस्या का समाधान नहीं होगा| ये कुछ ऐसी चुनौतियाँ हैं जिनका समाधान जल्द से जल्द किया जाना चाहिये|