जलवायु परिवर्तन की जंग को वैश्विक बनाए रखने की ज़रूरत | 25 Apr 2017
तमिलनाडु के सूखा प्रभावित क्षेत्रों से आया हुआ किसानों का एक जत्था दिल्ली के जंतर-मंतर पर पिछले एक महीने से अधिक समय से धरने पर बैठा हुआ है। ये किसान भयंकर सूखे के चपेट में आकर नष्ट हो चुकी फसलों के एवज में मुवावजे की मांग कर रहे हैं।
सूखे और अकाल की यह कहानी केवल भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि विश्व के कई अन्य हिस्सों में भी सूखे की मार से फसलें नष्ट हो रही हैं और चरागाह ख़त्म हो रहे हैं। बोलिव़िया और सब-सहारा अफ्रीका के कई देश इस समय सूखे की चपेट में हैं।
संकट की इस स्थिति का सबसे बड़ा कारण है जलवायु परिवर्तन, लेकिन यह भी सच है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिये आरम्भ किये गए संस्थागत प्रयासों की विफलता ने इस संकट को और बढ़ा दिया है।
ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका, जलवायु परिवर्तन के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में आनाकानी कर रहा है, ऐतिहासिक पेरिस समझौता से जो उम्मीद वैश्विक समुदाय ने लगा रखी थी वह अब टूटती सी लग रही है।
अमेरिका जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति असंवेदनशील कैसे?
हालाँकि अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर खुद को पेरिस समझौते से अलग नहीं किया है लेकिन हाल ही में ट्रम्प प्रशासन के द्वारा लिये गए कुछ निर्णय पेरिस समझौते के अनुरूप नहीं दिख रहे हैं।
विदित हो कि पेरिस समझौते के अंतर्गत ओबामा प्रशासन ने क्लीन पॉवर प्लान(सीपीपी) की नीति अपनाई थी जिसके तहत वर्ष 2030 तक अमेरिका को अपने कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में एक तिहाई कटौती करनी थी।
सीपीपी के नियमों के तहत अमेरिकी राज्यों और विद्युत् नियामकों को नवीकरणीय उर्जा के उपयोग, मांग में कमी लाने और वर्तमान बिजली सयंत्रों की क्षमता वृद्धि के माध्यम से उत्सर्जन में कमी लाना था।
अब चिन्तनीय यह है कि ट्रम्प प्रशासन ने कहा है कि सरकार उन सभी नीतियों को परिवर्तित करेगी जिनसे कि अमेरिका में विद्युत् उत्पादन प्रभावित होने की आशंका है, इतना ही नहीं ट्रम्प प्रशासन ने अमेरिका में जलवायु परिवर्तन के संबंध में खोज एवं अनुसन्धान के लिये आवंटित होने वाले बजट में भी कटौती कर दी है।
उल्लेखनीय है कि अमेरिका दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जक देश है और वर्ष 1850 के बाद से वायुमंडल में मानवीय क्रिया-कलापों द्वारा उत्सर्जित कुल ग्रीन हाउस गैसों का एक चौथाई अमेरिका से आया है। इन बातों के मद्देनज़र अमेरिका का जलवायु परिवर्तन की लड़ाई से मुँह मोड़ना निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण है।
क्या है पेरिस समझौता?
पेरिस समझौते को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकने और कम करने की दिशा में अब तक का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयास माना जाता है। लेकिन पेरिस समझौता क्या है यह समझने से पहले सीओपी (Conference of Parties - COP) के बारे में जानना ज़रूरी होगा।
यूएनएफसीसीसी (United Nations Framework Convention on Climate Change) में शामिल सदस्यों का जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन-कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) कहलाता है।
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को स्थिर और फिर कम करने और पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाने के लिये सन 1994 में यूएनएफसीसीसी का गठन हुआ था। उसके बाद से सीओपी के सदस्य प्रत्येक वर्ष मिलते रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि दिसम्बर 2015 में पेरिस में हुई सीओपी की 21वीं बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के जरिये वैश्विक तापमान में हुई वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने को लेकर एक व्यापक सहमति बनी थी। इस बैठक के बाद सामने आए 18 पन्नों के दस्तावेज को सीओपी-21 समझौता या पेरिस समझौता कहा जाता है।
क्यों रहा विवाद?
सालों से हो रही सीओपी बैठकों में विवाद का सबसे बड़ा बिंदु सदस्य देशों के बीच जलवायु परिवर्तन से निपटने की ज़िम्मेदारी और इसके बोझ के उचित बँटवारे का रहा है।
विकसित देश भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर वैश्विक उत्सर्जन बढ़ाने का दोष लगाते हुए कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि की अपनी ज़िम्मेदारी से बचते रहे हैं, जबकि आज भी विकासशील और विकसित देशों के बीच प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में बड़ा अंतर है।
हालाँकि पेरिस समझौते में भारत विकासशील और विकसित देशों के बीच अंतर स्थापित करने में कामयाब रहा और यह बड़ी सफलता है। भारत ने 2 अक्टूबर, 2016 को समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये हैं। अमेरिका और चीन ने भी अगस्त 2016 में समझौते पर अपनी सहमति जता दी थी।
क्या होना चाहिये?
पेरिस समझौते ने देशों की जलवायु परिवर्तन के प्रति दायित्वों का निर्धारण तो कर दिया लेकिन अभी भी कई मोर्चों पर काम किया जाना बाकी है।
ध्यातव्य है कि एक राष्ट्र के स्तर पर तो दायित्यों का निर्धारण हो गया लेकिन उन छोटी किन्तु महत्त्वपूर्ण कारकों पर किसी ने ध्यान नहीं जो कि इन दायित्वों के सफलतापूर्वक निर्वहन को निर्धारित करती हैं।
हम भारत का उदहारण लेते हैं, जहाँ यह आवश्यक नहीं है कि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार हो, ऐसे में इस बात की पूरी सम्भावना है कि अपनी उर्जा ज़रूरतों का हवाला देते हुए राज्य, केंद्र द्वारा तय लक्ष्यों के अनुरूप कार्य न करें। अतः किसी देश की राजनीतिक समीकरण को ध्यान में रखते हुए लक्ष्य तय किये जाएँ तो बेहतर होगा।
इस सन्दर्भ में अमेरिका का ही उदहारण काबिले तारीफ है जहाँ कि न्यूयॉर्क शहर के वासियों ने ही अपने शहर को कार्बन फ्री बनाने की ज़िम्मेदारी उठा रखी है। यह एक मिसाल है और इसी तरह क्षेत्रीय स्तर पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी।
निष्कर्ष
इसमें कोई दो राय नहीं है कि पेरिस समझौता अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है लेकिन मूल रूप से पेरिस जलवायु समझौते को मानने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है, इसके अलावा किसी देश ने अपने कार्बन उत्सर्जन में कितनी कटौती की है, इसकी जाँच का भी कोई तरीका अभी तक मौजूद नहीं है और ऐसे में अमेरिका का अपने वादों से मुकरना वैश्विक चिंता का विषय है। जल और वायु किसी की निजी संपत्ति नहीं हैं और न ही इन्हें किन्हीं भौगोलिक सीमाओं में कैद करके रखा जा सकता है, अमेरिका को समझना होगा कि यदि ग्लेशियर पिघलते हैं तो समुद्र के जलस्तर में वृद्धि से वह भी प्रभावित होगा। जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध यह लड़ाई एक वैश्विक लड़ाई है और अमेरिका को इसकी पहचान करनी होगी।