भारतीय अर्थव्यवस्था
करेंसी वार चिंता का विषय क्यों है?
- 07 Aug 2018
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संदर्भ
पिछले हफ्ते भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने चेतावनी दी थी कि विभिन्न देशों के बीच व्यापार युद्ध, करेंसी वार (Currency War) का कारण बन सकता है। इस अभिव्यक्ति का क्या यह तात्पर्य है कि कौन सी परिस्थितियाँ करेंसी वार की ओर ले जाती हैं और दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं पर इसका क्या प्रभाव है (जिसमें भारत भी शामिल है)?
दुनिया ने पहली बार करेंसी वार के बारे में कब सुना?
- सितंबर 2008 में अमेरिका में लेहमन ब्रदर्स के पतन के साथ शुरू होने वाले वित्तीय संकट के तत्काल बाद वैश्विक संक्रमण की स्थिति उत्पन्न होनी शुरू हुई।
- तब देशों की सबसे बड़ी चिंता, तेज़ी के साथ कम हो रही आर्थिक विकास की स्थिति की ओर झुकाव को रोकना था| सुस्त विकास का मतलब है नौकरियों का नुकसान और धीमी वृद्धि का मतलब है नई नौकरियाँ सृजित नहीं होना।
- स्थिति की भयावहता को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने नवंबर 2008 में वाशिंगटन डीसी में जी -20 (जी-20 देशों का समूह) शिखर सम्मेलन की घोषणा की। 13वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में भारत जी-20 का सदस्य था जो विश्व अर्थव्यवस्था के लगभग चौथे अथवा पाँचवें हिस्से का प्रतिनिधित्व करता था।
- इस शिखर सम्मेलन के नेताओं द्वारा लिया गया सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय समन्वित प्रयास और वैश्विक अर्थव्यवस्था के व्यापक पुनरुद्धार के लिये प्रयास करना था।
- विकसित देश - अमेरिका और यूरोपीय संघ के सदस्य, विस्तारित राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों (अधिक खर्च और ब्याज दरों को कम रखने) की शुरुआत पर सहमत हुए।
- अपनी व्यक्तिगत विकास संभावनाओं के बारे में चिंतित, कुछ देशों ने गैर-टैरिफ बाधाओं को शुरू करके और कभी-कभी आयात पर उच्च टैरिफ लागू करके देशों को संरक्षणवादी बना दिया।
- कई देशों द्वारा एक शक्तिशाली हथियार के रूप में अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन किया गया या जानबूझकर मूल्य को दबा दिया गया ताकि उनके निर्यात विश्व बाज़ार में सस्ता और प्रतिस्पर्द्धी बने रहें।
- अमेरिका और प्रमुख यूरोपीय देशों ने ब्याज दरों को कम रखने तथा मांग को और बढ़ाने के लिये कई उपायों को अपनाया। चीन, चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और 2008 में भी एक प्रमुख वैश्विक निर्यातक ने, जानबूझकर रॅन्मिन्बी (renminbi) मूल्य कम रखा और जापानी तथा दक्षिण कोरियाई सेंट्रल बैंकर मुद्राओं में मुद्रास्फीति के चलते अपनी मुद्राओं को कम रखने के लिये कदम उठाए।
- ब्राज़ील के वित्त मंत्री (जी-20 के सदस्य) गुइडो मंटेगा ने मौद्रिक और विनिमय दर उपकरणों का उपयोग कर प्रतिस्पर्द्धी मुद्रा मूल्यों को इस तरह से कम करने का वर्णन "अंतर्राष्ट्रीय करेंसी वार" के रूप में किया।
अब मुद्रा युद्ध के बारे में क्यों बात की जा रही है?
- इस साल मार्च के बाद से वैश्विक व्यापार संबंधी झड़पों में तेज़ी आई है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीनी सामानों पर टैरिफ लगाने की धमकी दी थी।
- चीनी आयात पर अमेरिकी टैरिफ जो वास्तव में प्रभाव में हैं, चीनी उत्पादों के कुल $ 506 बिलियन अमेरिकी आयात के 10% से कम है। लेकिन वर्तमान में प्रमुख शक्ति, अमेरिका और उभरती शक्ति चीन की कर्णभेदी आवाजों के कारण युद्ध गहरा सकता है।
- उच्च टैरिफ चीनी उत्पादों को अधिक महँगा बनाते हैं, लेकिन युआन के कमज़ोर पड़ने से आंशिक रूप से प्रभाव कम हो जाता है। पिछले तीन महीनों में युआन में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले करीब 8% की कमी आई है।
- हालाँकि यह चीनी अर्थव्यवस्था (धीमी वृद्धि) में मौलिक परिवर्तनों के कारण हो सकता है, लेकिन इसने ट्रंप को निराश कर दिया है, जिसने उन्हें और उपायों की घोषणा करने के लिये प्रेरित किया है।
- इसी प्रकार, अमेरिका और यूरोप के बीच एक युद्ध की आशंका जून की शुरुआत में यूरोपीय स्टील और एल्युमीनियम पर टैरिफ लगाए जाने के बाद बढ़ गई है जिस पर यूरोपीय संघ ने तीन सप्ताह बाद पलटवार किया है।
- ऐसे संरक्षणवादी उपाय (ईयू स्टील और एल्युमीनियम पर उच्च सीमा शुल्क को अमेरिका में महँगा बनाते हैं और घरेलू अमेरिकी उत्पादकों की रक्षा करते हैं) विभिन्न मुद्रा दरों और मौद्रिक नीति उपकरणों का उपयोग करके देशों के जोखिम को प्रतिस्पर्द्धात्मक रूप से कमज़ोर करने या उनकी मुद्राओं का अवमूल्यन करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं।
- इसीलिये 1 अगस्त को भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर पटेल ने मौद्रिक नीति समिति की एक बैठक के बाद कहा था कि "हम संभवतः करेंसी वार की शुरुआत में हैं।"
क्या भारत को इस करेंसी वार के बारे में चिंता करने की ज़रूरत है?
- पिछले 10 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ी है, 2008 में यह 13वीं सबसे बड़ी, जबकि 2018 में छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो गई है। यह वैश्विक बाज़ारों के साथ अधिक-से-अधिक एकीकृत है।
- जब विश्व व्यापार मज़बूत हो और वैश्विक अर्थव्यवस्था उन्नति पर हो तो भारत की विकास दर में वृद्धि होना आसान हो जाता है। यह 2003-08 के दौरान हुआ जब भारतीय अर्थव्यवस्था लगभग दो अंकों में बढ़ी। कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि (अब 68-70 डॉलर प्रति बैरल), हालाँकि, भारत के लिये अच्छा नहीं है।
- देश ऊर्जा का शुद्ध आयातक है और उच्च कीमतें राजकोषीय घाटे और चालू खाता घाटे जैसे महत्त्वपूर्ण मैक्रो-इकोनॉमिक वैरिएबल पर दबाव डालती हैं।
- आर्थिक स्थिति खराब हो तो पूंजीगत उड़ान का भी डर रहता है। पूंजी की उड़ान, बाज़ारों से पैसा निकालने वाले संस्थानों तक ही सीमित नहीं हो सकती है।
- पिछले कुछ सालों में भारतीय विदेशों में ज़्यादा से ज़्यादा पैसा भेज रहे हैं। 2017-18 में बाह्य प्रेषण कुल 11.33 बिलियन डॉलर था। सिर्फ एक दशक पहले यह सिर्फ 1.58 बिलियन डॉलर था। इससे मुद्रा, मुद्रास्फीति और ब्याज दरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
- कैलेंडर वर्ष 2018 में भारतीय रुपए में डॉलर के मुकाबले 6.77% गिरावट आई है।
- वैश्विक जोखिमों और करेंसी वार की ओर बढ़ने को लेकर पटेल की चेतावनी वैश्विक व्यापारिक झड़पों के संदर्भ में देखी जानी चाहिये जो मार्च से तब तेज़ हो गई है जब ट्रंप ने पहली बार चीनी सामानों पर टैरिफ की धमकी दी थी।
- देश अपनी स्थिति की ओर देख रहे हैं और व्यापार में अधिक संरक्षणवादी बन गए हैं। अमेरिका और भारत भी एक तेज़ दबाव में आगे बढ़ रहे हैं।
- पॉलिसी रेट में मौजूदा 25-आधार अंकों की वृद्धि, जो जून में इसी तरह की वृद्धि के कारण तेज़ी से आई, मुद्रा की समस्या को इंगित करती है। उच्च ब्याज दरें और स्थिर मुद्रास्फीति विदेशी निवेश के लिये एक देश को अधिक आकर्षक बनाती है। इससे रुपया मज़बूत हो जाता है|
- बढ़े हुए टैरिफ तनाव के कारण एक अंतर्राष्ट्रीय करेंसी वार वैश्विक अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचा सकता है और इस प्रक्रिया में भारत की विकास संभावनाओं को भी नुकसान पहुँच सकता है।
- यह भारत के लिये चिंताजनक है क्योंकि इससे उच्च मुद्रास्फीति की समस्याओं को हल करने, विकास की रफ़्तार तेज़ करने और कमज़ोर हो रहे रुपए को मज़बूती प्रदान करने के उपकरणों के उपयोग में केंद्रीय बैंक का लचीलापन कम हो जाएगा।