अंतर्राष्ट्रीय संबंध
विशेष न्यायालय
- 06 Jan 2017
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गौरतलब है कि विधायिका द्वारा कई अवसरों पर विभिन्न कानूनों के माध्यम से “विशेष न्यायालयों” (special courts) के गठन के विषय में विभिन्न प्रस्ताव प्रस्तुत किये जा चुँके हैं| सामान्यतः इन विशेष न्यायालयों का उद्देश्य न्यायिक मुकदमों का शीघ्र तथा कुशलतापूर्वक निपटान करना होता है| परन्तु, वास्तविक संख्या में मौजूद न्यायालयों की तुलना में “विशेष न्यायालयों” की स्थापना के विषय में किये गए एक अध्ययन से प्राप्त जानकारी के अनुसार, यह ज्ञात होता है कि उक्त दोनों न्यायालयों की वास्तविक स्थिति तथा लक्ष्य एकसमान नहीं हैं|
प्रमुख बिंदु
- हाल ही में किये गए एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1950 से वर्ष 2015 के मध्य तक़रीबन 764 केन्द्रीय कानूनों को लागू तथा संशोधित किया जा चुका है| हालाँकि इस अध्ययन में यह भी स्पष्ट किया गया है कि इन 764 केन्द्रीय कानूनों में उन कानूनों को शामिल नही किया गया, जिन्हें इस समयावधि में या तो निरस्त कर दिया गया अथवा वर्ष 2015 के पश्चात संशोधित किया गया| विदित हो कि इन सभी कानूनों का निरीक्षण इनकी उपस्थिति एवं कार्यप्रणाली की बारंबारता एवं प्रासंगिकता का निर्धारण करने के लिये किया गया था|
- हालाँकि यहाँ यह स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि इन कानूनों के विषय में अध्ययन करने का एकमात्र औचित्य “विशेष” (special) अथवा “प्राधिकृत” (designated) न्यायालयों अथवा न्यायधीशों के विषय में जानकारी प्राप्त करना था| ताकि इस जानकारी का प्रयोग न्यायालयों तथा न्यायाधीशों (जिन्हें ज़िला तथा सत्र न्यायालयों की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं) की नियुक्ति के संबंध में प्रभावी परीक्षण की प्रक्रिया को सुनिश्चित किया जा सकें|
- ध्यातव्य है कि विभिन्न न्यायाधिकरणों जैसे- अर्धन्यायिक निकायों, प्राधिकरणों तथा आयोगों को इस अध्ययन के क्षेत्र से बाहर रखा गया|
- इस अध्ययन के तहत यह पाया गया कि वर्ष 1950 से 1981 के मध्य केवल तीन विधानों (statutes) को ही “विशेष न्यायालयों” की स्थापना के संबंध में उपलब्ध कराया गया था जबकि वर्ष 1982 से 2015 के मध्य “विशेष न्यायालयों” की स्थापना के लिये तक़रीबन 25 विधानों को आज्ञापत्र प्रदान किये गए|
विधायी नीति में हुए इस एकाएक परिवर्तन के कारण
- गौरतलब है कि वर्ष 1982 से 1987 की पाँच वर्षों की समयावधि में अप्रत्याक्षित रूप से “विशेष न्यायालयों” की स्थापना के संबंध में विधान (statute) प्रस्तुत किये गए| इसके उपरांत वर्ष 2012 से 2015 के मध्य इस संदर्भ में प्रस्तुत किये गए विधानों में इसी प्रकार की वृद्धि दर्ज़ की गई थी|
- हालाँकि प्रस्तुत विधानों में से कई न्यायालयों की स्थापना विशिष्ट घटनाओं के परिणामस्वरूप हुई थी| मसलन, वर्ष 1992 के प्रतिभूति घोटाले (securities scam) की सुनवाई विशेष न्यायालय अधिनियम, 1992 {प्रतिभूतियों के लेन-देन से सम्बन्धित अपराधों की सुनवाई (Trial of Offences Relating to Transactions in Securities)} के तहत की गई थी|
- ध्यातव्य है कि वर्ष 1982 तथा वर्ष 1992 के मध्य बड़ी संख्या में विशेष अथवा प्राधिकृत न्यायालयों की स्थापना की गई|
विशेष न्यायालयों की स्थापना
- उक्त अध्ययन के तहत यह पाया गया कि वर्ष 1950 से 2015 के मध्य तक़रीबन 28 विधानों को अधिनियमित किया गया| इनमे से तीन विधानों को दोनों प्रकार के न्यायालयों, 15 को केवल “विशेष न्यायालयों” तथा 10 विधानों को एक नामित न्यायालय के तहत अधिनियम करने की शक्ति प्रदान की गई|
- विशेष न्यायालयों की स्थापना के अलावा राज्य सरकारों ने कई विधानों के अंतर्गत न्यायालयों को प्राधिकृत किया है|
- विधायन के व्यवहार तथा प्राथमिक विषयों से सम्बन्धित मामलों (जिसके साथ यह जुड़ा होता है) के आधार पर इन विधानों को पाँच समूहों (आर्थिक अपराध, नियामकीय अपराध, कानून एवं व्यवस्था, सामाजिक न्याय एवं राष्ट्रीय सुरक्षा) में विभाजित किया गया है|
- हाल ही में जिन विधानों को अधिनियमित किया गया है उनमें से अधिकतर विधानों के लिए ( वे विधान जो आर्थिक अपराध के समूह में आते हैं) विशेष न्यायालयों का प्रावधान है जबकि पुराने विधायन (older legislation) जैसे; अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (क्रूरता की रोकथाम) अधिनियम,1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act) अथवा नशीली दवाएँ तथा नशीली वस्तु अधिनियम,1985 (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act) कुछ ऐसे पुराने विधायन हैं जिनके अंतर्गत लंबित मामलों की संख्या बहुत अधिक है|
- ध्यातव्य है कि अधिवक्ता की शक्ति (power of attorney) के अंतर्गत न्यायालयों में दर्ज किये गए मुकदमों के लंबित रहने की दर (pendency rates) बहुत अधिक है|
- गौरतलब है कि देश में लंबित मामलों की राष्ट्रीय औसत तक़रीबन 84.1 प्रतिशत है हालाँकि महाराष्ट्र एवं पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में यह दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है|
- इसके विपरीत POCA (Prevention of Corruption Act, 1988) के अंतर्गत भी कई विशेष न्यायालयों तथा फ़ास्ट ट्रैक न्यायालयों को स्थापित किया गया है| हालाँकि, इसके अंतर्गत नामांकित किये गए मुकदमों की कुल संख्या सम्पूर्ण मुकदमों का दसवाँ भाग ही है|
- गौरतलब है कि राष्ट्रीय जाँच एजेंसी अधिनियम (National Investigation Agency Act, 2008) के अंतर्गत विशेष न्यायालयों की स्थापना के संबंध में अनिवार्यता होने के बावजूद भी जितने न्यायालयों को स्थापित किया गया था वे सभी प्राधिकृत न्यायालय थे|
कोई अद्वितीयता नहीं
- पिछले तीन दशकों में लंबित मामलों के त्वरित समाधान हेतु अधिनियमित किये गए विधानों को “विशेष न्यायालयों” के रूप में ही विनिर्दिष्ट किया गया है
- हालाँकि इस संदर्भ में एक और बात पर गौर करने की आवश्यकता है कि अधिकतर लंबित मामलों में (जहाँ पहले से स्थापित न्यायालयों को “विशेष न्यायालयों” के तौर पर नामित किया जा रहा है) मुकदमों के जल्द निपटान का वास्तविक उद्देश्य सफल होता प्रतीत नहीं हो रहा है|
- ध्यातव्य है कि निर्णय के विलंबन के विषय में प्रायः प्रश्न उठते रहते हैं, ऐसे में क़ानूनी संस्थाओं की कुशलता एवं योग्यता के संदर्भ में भटकाव उत्पन्न होना एक स्वभाविक प्रक्रिया है| क्योंकि निर्णय की खराब गुणवत्ता अथवा आँकड़ों की अपूर्णता के कारण लंबित मामलों का निपटान एक बड़ी चिंता का विषय बनता जा रहा है|
निष्कर्ष
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि देश में लंबित मामलों के शीघ्र निपटान की समस्या से निपटने के लिये न्यायालयों तथा कानून व्यवस्था के विषय में और अधिक शोध किये जाने की आवश्यकता है| संभवतः यदि “विशेष न्यायालय” भी अन्य न्यायालयों के समान ही मुकदमों के निपटान के लिये एक अतिरिक्त फोरम उपलब्ध कराने की बात करते हैं तो ऐसे में “विशेष न्यायालयों” के संबंध में “विशेष” क्या होगा? स्पष्ट है कि लंबित मामलों के शीघ्र निपटान का उद्देश्य केवल तभी पूरा किया जा सकता है जब बिना किसी अवसंरचनात्मक सुधार के पहले से ही स्थापित न्यायालयों को “विशेष न्यायालयों” के रूप में परिवर्तित किया जाए| इसके साथ-साथ विशेष न्यायालयों के कार्यों पर नियंत्रण तथा इनके कार्यों के संबंध में उचित निरीक्षण करने की भी आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जिस उद्देश्य के लिये इन “विशेष न्यायालयों” को स्थापित किया गया है वे अपना कार्य ठीक से कर रहे हैं अथवा नहीं|