अंतर्राष्ट्रीय संबंध
सुस्त वैश्विकरण के दौर में भारत को घरेलु मांग को बढ़ाना चाहिये
- 18 Jul 2017
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संदर्भ
वर्तमान में, जब वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्त हो तो केवल घरेलू निवेश ही मांग को बढ़ा सकता है। भारत को भी वैश्वीकरण के उतार-चढ़ाव से सबक लेते हुए अपने आंतरिक आधारभूत संरचनाओं में और सुधार एवं विकास करना चाहिये जिससे की आंतरिक बाज़ार का विस्तार हो तथा मांग में वृद्धि हो।
हाइपरवैश्वीकरण
- अर्थशास्त्रियों का कहना है कि हाइपरवैश्वीकरण कुछ समय तक ही रहने वाली घटना होती है जिसकी पुनरावृत्ति की संभावना कम होती है। हाइपरवैश्वीकरण विश्व व्यापार में आनेवाली नाटकीय तेज़ी को कहते हैं। विश्व व्यापार में ऐसी ही तेज़ी 1990 से 2008 के बीच देखी गई थी। उसके पश्चात् आर्थिक संकट का दौर आरंभ हुआ।
- 19वीं शताब्दी के अंत से करीब अगले 50 वर्षों तक, दुनिया ने विश्व व्यापार में जितना विस्तार देखा था, वह वास्तव में हाल ही में संपन्न चरण के दौरान उतना ही अधिक था। उस दौरान ब्रिटिश पूंजी दुनिया भर में रेलवे के निर्माण के लिये प्रवाहित हुई, प्रवासियों को यूरोप से संयुक्त राज्य अमेरिका ले जाया गया और एशियाई श्रमिकों की तैनाती पश्चिमी देशों के पूंजी निवेश स्थलों में की गई। इस तरह दुनिया ने वस्तुओं, पूंजी और लोगों के वैश्विक यातायात को देखा है।
- लेकिन 1870 से शुरू होने वाले उच्च व्यापार का चरण प्रथम विश्व युद्ध के साथ समाप्त हुआ और धीरे-धीरे, दूसरे विश्व युद्ध के बाद फिर से जीवित हो उठा। फिर, 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध में पूर्वी यूरोपीय साम्यवाद के पतन के बाद, वैश्विक व्यापार में एकबार फिर पुनरुत्थान हुआ। यह चरण भी वैश्विक आर्थिक संकट के साथ वर्तमान में कुछ हद तक समाप्त हो गया है।
प्रौद्योगिकी की भूमिका
- 19वीं सदी के वैश्वीकरण को प्रौद्योगिकीय अग्रिमों से तीव्र किया गया था। नई प्रौद्योगिकी ने व्यापार को आसान बनाया, जैसे-टेलीग्राफ एवं दहन इंजन के आविष्कार के आगमन से एक तरफ जहाँ संचार के बुनियादी ढाँचे ने विश्व व्यापार को सक्षम किया तो वहीं समुद्र में सामानों के तेज़, विश्वसनीय और सस्ते परिवहन को भी सक्षम बनाया।
- उसके बाद, दुनिया भर में ब्रिटिश माल के खपत के लिये सैन्य विजय के बाद बाज़ारों को स्थापित किया गया था। ब्रिटिश पूंजी से लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में रेल नेटवर्क के बिछाने के कारण संचार और परिवहन का विकास हुआ जिससे व्यापारिक मांगो में तेज़ी आई।
- हालाँकि, यह भी सच है कि जब वैश्विक मांग बढ़ती है, तो व्यापारिक देश स्वयं व्यापारिक रास्तों का उपयोग कर अपनी अर्थव्यवस्थाओं का विकास करते हैं।
मंदी और भारत
- हम यह मानते हैं कि वैश्वीकरण के संबंध में भारत की स्थिति अनूठी है। परन्तु हम यदि ठीक से विचार करें, तो हमें पता चलेगा कि यह महज़ एक अहंकार है।
- अगर विश्व अर्थव्यवस्था निकट भविष्य में धीरे-धीरे बढ़ने की स्थिति में है, तो 1991 की भारत की आर्थिक नीति के अधिकांश भाग को हमें प्रतिस्थापित करना होगा। यह माना जा रहा था कि वैश्वीकरण का प्रभाव ज़ारी रहेगा और भारत को समृद्धि की तरफ बढ़ने के लिये केवल अपने वर्तमान को ठीक करना होगा। हालाँकि अब हमें इस बात की पहचान करने की आवश्यकता है कि खेल में काफी बदलाव आ चुका है।
- इस बदलाव को आईटी उद्योग में सबसे अधिक देखा जा सकता है। वहाँ तिमाही वृद्धि केवल कुछ इंच ही आगे बढ़ती है। इससे युवा कर्मचारियों में असुरक्षा की भावना बढ़ती है। इस क्षेत्र में हम एक घबराहट देख सकते हैं। दशकों से यह कहा जा रहा था कि भारत आईटी के निर्यात से सीधे सेवा अर्थव्यवस्था में छलांग लगा सकता है, अतः विनिर्माण अर्थव्यवस्था के लिये परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन हालात अब बदल रहे हैं।
- वैश्वीकरण की धीमी गति को स्वीकार करते हुए, भारत के आर्थिक नीति निर्माताओं को अब घरेलू बाज़ार की वृद्धि कैसे हो इसको संबोधित करना चाहिये, ताकि देश के भीतर आने वाले समय में सामानों और सेवाओं की मांग में वृद्धि की जा सके। वर्तमान में, जब वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्त चल रही हो तो केवल घरेलू निवेश ही मांग को बढ़ा सकता है।
सार्वजनिक निवेश
- कीन्स के अर्थशास्त्र ने लंबे समय से मान्यता प्राप्त की है कि अगर लाभ वापसी की दर निराशाजनक हो तो ब्याज की दर को कम करने से यह निजी निवेश के लिये कुछ ज़्यादा नहीं कर सकता है। हालाँकि, हम जानते हैं कि मांग को कैसे बढ़ाएँ। यह सार्वजनिक निवेश के माध्यम से किया जा सकता है।
- भारत में नीति-निर्माण के उच्चतम स्तर पर सुना गया है कि अब कोई व्यवहार्य परियोजनाएं नहीं बची हैं। लेकिन हमारी सड़कों और पुलों की स्थिति पर हाल के एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि भारत के राष्ट्रीय राजमार्गों पर स्थित 23 पुल और सुरंग 100 साल पुराने हैं, जिनमें से 17 को बड़े रखरखाव की आवश्यकता है।
- इसी तरह देश के 123 अन्य पुलों पर तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है और 6,000 तो संरचनात्मक रूप से जर्जर हो चुके हैं।
निष्कर्ष
देश के राजनीतिक नेतृत्व को अब व्यापारिक भागीदारों को गले लगाने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि भौतिक बुनियादी ढाँचे के विस्तार के भार को उठाने की आवश्यकता है। सड़क और पुल सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे के रूपक हैं जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था फलदायी हो सकती है।