क्या इच्छामृत्यु की अनुमति दे दी जानी चाहिये? | 29 Jan 2018
‘द सी इनसाइड’ फिल्म का लकवाग्रस्त नायक सोचता है कि वह उठे और सामने दिख रही खिड़की से नीचे कूदकर आत्महत्या कर ले। वह अपनी कल्पना में ही उठता है और कूद भी जाता है, लेकिन वह नीचे ज़मीन पर आने की बजाय स्वयं को हवा में उड़ता हुआ पाता है।
दरअसल, फिल्म के नायक का हवा में उड़ना इस बात का परिचायक है कि वह अपनी भयानक पीड़ा और कष्ट से मुक्त हो चुका है और यूथेनेसिया यानी इच्छामृत्यु के पक्ष में भी प्रायः यही तर्क दिया जाता रहा है।
इच्छामृत्यु के पक्ष में तर्क:
- अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा के साथ जीने का अधिकार:
► संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन का अधिकार देता है, लेकिन इसकी व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बताया है कि जीवन के अधिकार में गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है।
► यदि कोई निसक्त व्यक्ति जिसके जीवन में पीड़ा ही पीड़ा हो और वह अपने प्रत्येक कार्य के लिये औरों पर निर्भर हो तो ऐसे में उसके गरिमा के साथ जीने के अधिकार का प्रत्यक्ष उल्लंघन होता है।
- धारा 309 में सुधार की व्यापक गुंज़ाइस:
► आईपीसी की धारा 309 के तहत आत्महत्या का प्रयास करने वालों को दंड देने का प्रावधान किया गया है और इच्छामृत्यु को आत्महत्या का प्रयास माना जाता है।
► आत्महत्या एक अपराध है, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिये। कोई स्वयं को मारने का प्रयास करता है, लेकिन यदि वह जीवित रह जाए तो उसे जेल की बजाय काउंसलिंग के लिये भेजना चाहिये।
- सांस्कृतिक पिछड़ेपन का लक्षण:
► हाल ही महाराष्ट्र के एक दंपति नारायण लावते (88) और इरावती लावते (78) का कहना है कि वे अपने बुढ़ापे में समाज पर बोझ नहीं बनना चाहते हैं।
► यह दंपति भारत में इच्छामृत्यु के प्रति घृणा को "सांस्कृतिक पिछड़ेपन" का एक लक्षण मानता है। उनका कहना है कि उनकी इच्छामृत्यु की मांग तर्क से प्रेरित है न कि आध्यात्मिकता से।
► लावते दंपतियों ने विभिन्न मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखने के बाद, राम जेठमलानी जैसे कानूनी विशेषज्ञों और संसद सदस्यों से भी गुहार लगाईं है, लेकिन इस संबंध में उन्हें कोई राहत नहीं मिली है।
► अब उन्होंने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को लिखा है कि वे "दया मौत" की अपनी याचिका पर अनुकूल प्रतिक्रिया चाहते हैं।
- अरुणा शानबाग मामला:
► अरुणा शानबाग बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2011) मामले में पहली बार इच्छामृत्यु का मुद्दा सार्वजनिक चर्चा में आया।
► इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा की इच्छामृत्यु की याचिका स्वीकारते हुए मेडिकल पैनल गठित करने का आदेश दिया था। हालाँकि, बाद में न्यायालय ने अपना फैसला बदल दिया था।
► लेकिन, इस फैसले ने असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति को इच्छामृत्यु देने की बहस को आगे बढ़ाने का कार्य किया।
इच्छामृत्यु के विपक्ष में तर्क
- भारत इसके लिये तैयार नहीं है:
► दुनिया के कई देशों में (लक्ज़मबर्ग, नीदरलैंड और बेल्जियम आदि) इच्छामृत्यु की अनुमति है, लेकिन भारत इसके लिये अभी तैयार नहीं है।
► इन देशों में प्रत्येक मांगने वाले को इच्छामृत्यु नहीं दी जा सकती, इसके लिये कुछ कायदे-कानून बनाए गए हैं। ज़ाहिर है प्रत्येक समाज में यह एक जटिल मुद्दा है।
- मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ लोगों के लिये उचित नहीं:
► अरुणा शानबाग मामले में हमें ध्यान रखना होगा कि शानबाग खुद कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं थी।
► वैसे मामलों में जहाँ कि किसी बीमार के ठीक होने की उम्मीद नहीं है और वह असाध्य पीड़ा से गुज़र रहा हो तो इच्छामृत्यु को लेकर बहस की भी जा सकती है।
► लेकिन इसे मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों के जीवन को समाप्त करने के एक तरीके के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
- दुरुपयोग की संभावनाएँ:
► इच्छामृत्यु की अनुमति देना या इसे वैध बनाना इसके दुरुपयोग की संभावनाओं को बल देगा।
► धन-संपत्ति या पारिवारिक दुश्मनी के कारण इच्छामृत्यु का दुरुपयोग टालना असंभव सा कार्य होगा।
क्या है वर्तमान स्थिति?
- अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या:
► संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त जीवन के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं ने और भी व्यापक बनाया है। इसे संविधान के बुनियादी ढाँचे (Basic structure) का हिस्सा माना गया है।
► इस अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही किसी व्यक्ति से जीवन का अधिकार छीना जा सकता है।
► मौत की सज़ा, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार जीवन समाप्त करने का एक उदाहरण है। लेकिन इच्छामृत्यु कानून द्वारा स्थापित किसी भी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। अतः यह एक गैर-कानूनी कृत्य है।
- यूथेनेसिया के संबंध में कोई प्रावधान नहीं:
► यूथेनेसिया यानी इच्छामृत्यु को अनुमति देने के संबंध में प्रक्रिया का उल्लेख न तो संविधान में किया गया है और न ही संसद द्वारा बाद में जोड़ा गया है।
► इच्छामृत्यु की मांग करने वाले व्यक्ति को प्रायः न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है और प्रावधानों के अभाव में तथ्यों को देखते हुए विवेकानुसार फैसले किये जाते हैं।
► अतः यूथेनेसिया के संबंध में एक व्यापक कानून बनाया जाना चाहिये जो इसे स्वीकारने या अस्वीकारने के संबंध में मज़बूत और वैध तर्क प्रस्तुत करता हो।
- अहम है पैसिव यूथेनेशिया:
► केंद्र सरकार का कहना है कि विशेष परिस्थितियों में पैसिव यूथनेशिया (कोमा में पड़े मरीज़ का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाना) सही तो है, लेकिन वह लिविंग विल का समर्थन नहीं करती है।
► जिस भयंकर पीड़ा के आधार पर इच्छामृत्यु का समर्थन किया जाता रहा है उसके लिये आंशिक तौर पर पैसिव यूथेनेसिया की इजाज़त है।
क्या है एक्टिव और पैसिव यूथेनेसिया?
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- नकारात्मक रहा है न्यायपालिका का रुख:
► गौरतलब है कि पी. रथिनाम बनाम भारत संघ मामले में आईपीसी की धारा 309 की संवैधानिकता पर यह कहते हुए सवाल उठाया गया था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण है।
► लेकिन, ज्ञानकौर बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत 'जीवन के अधिकार' में मृत्युवरण का अधिकार शामिल नहीं है। अर्थात् जीने का अधिकार तो है, लेकिन मरने का अधिकार नहीं है।
क्या इस संबंध में कोई विधायी प्रयास किये जा रहें हैं?
- हाल ही में लिविंग विल को मान्यता देने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए केंद्र सरकार ने कहा था कि उसने पैसिव यूथनेशिया को लेकर विधेयक का मसौदा तैयार कर लिया गया है।
- लॉ कमीशन की सिफारिश के आधार पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने ‘द मेडिकल ट्रीटमेंट ऑफ टर्मिनली इल पेंसेंट (प्रोटेक्शन ऑफ पेसेंट एंड मेडिकल प्रैक्टिसनर्स) बिल’ का मसौदा तैयार किया है।
- संबंधित विधेयक यह सुनिश्चित करेगा कि असाध्य और भयंकर पीड़ा देने वाली बीमारी से पीड़ित मरीजों को इलाज से मना करने की यानी लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाने की इज़ाज़त है या नहीं?
- इस विधेयक में यह कहा गया है कि पैसिव यूथेनेशिया के मामले में मेडिकल बोर्ड यह निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र होगा कि मरीज़ से लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जाना चाहिये या नहीं?
क्या है लिविंग विल का मामला?
- महाराष्ट्र के लावते दंपति के अलावा एनजीओ ‘कॉमन कॉज’ ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जिस तरह नागरिकों को जीने का अधिकार दिया गया है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है।
- जबकि केंद्र सरकार का मानना है कि इच्छामृत्यु की वसीयत (लिविंग विल) लिखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, हालाँकि मेडिकल बोर्ड के निर्देश पर मरणासन्न व्यक्ति का ‘लाइफ सपोर्ट सिस्टम’ हटाया जा सकता है।
- इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ द्वारा सुनवाई की जा रही है।
आगे की राह:
- बीमार व्यक्तियों के लिये इच्छामृत्यु यानी बिना कष्ट के मरने के अधिकार की मांग अक्सर होती रही है।
- विदित हो कि लॉ कमीशन भी संसद को दी अपनी एक रिपोर्ट में पैसिव यूथेनेशिया को कानूनी जामा पहनाने की सिफारिश कर चुका है।
- हालाँकि, इच्छामृत्यु को लेकर स्पष्ट प्रावधान नहीं है और इस संबंध में उठने वाले सभी मामलों का निपटारा न्यायालयों द्वारा किया जाता है।
- लेकिन जहाँ तक लिविंग विल का प्रश्न है तो यह इसलिये उचित नज़र आता है, क्योंकि कोमा में पहुँच चुका मरीज़ खुद इस स्थिति में नहीं होता कि वह अपनी इच्छा व्यक्त कर सके।
- इसलिये उसे पहले ही ये लिखने का अधिकार होना चाहिये कि जब उसके ठीक होने की उम्मीद खत्म हो जाए तो उसके शरीर को यातना न दी जाए।
- लेकिन यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ‘लिविंग विल’ की इजाज़त केवल पैसिव यूथेनेशिया के मामलों में ही दी जानी चाहिये।
- हालाँकि, बड़ा सवाल यह है कि कोई यह कैसे तय कर सकता है कि उसके शरीर को बाद में यातना झेलनी पड़ेगी?
- अतः एक उपाय यह हो सकता है कि डॉक्टरों की एक टीम द्वारा संबंधित व्यक्ति के स्वास्थ्य की भली-भाँति जाँच की जाए, लेकिन कानूनी प्रावधानों के अभाव में ऐसा नहीं हो पाता है।
निष्कर्ष:
- इच्छामृत्यु के पक्ष में खड़े लोगों का तर्क है कि व्यक्ति के शरीर पर केवल उसका अधिकार है।
- यदि बीमारी के कारण व्यक्ति का दर्द सहनशक्ति की सीमा से ऊपर जा चुका है, तो उस व्यक्ति को इच्छामृत्यु के ज़रिये दर्द से मुक्ति पाने का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिये।
- वहीं इच्छामृत्यु का विरोध करने वालों का कहना है कि जीवन ईश्वर की देन है, इसलिये इसे वापस लेने का हक भी सिर्फ उसे है।
- इसके विरोध में एक मज़बूत तर्क यह भी दिया जाता है कि इसे कानूनी मान्यता प्रदान करने पर इसके दुरुपयोग के मामले बढ़ जाएंगे।
- लावते दंपति और एनजीओ ‘कॉमन कॉज’ से संबंधित मामले में भले ही बहस लिविंग विल पर केंद्रित है, लेकिन यह आवश्यक जान पड़ता है कि असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति को सम्मानजनक मौत मिले।
- हालाँकि, इससे संबंधित तमाम नैतिक एवं वैधानिक आयामों पर एक व्यापक बहस के बाद ही इस संबंध में आगे कदम बढ़ाना उचित होगा।