राजनीति का निरपराधीकरण और विशेष अदालतें | 22 Jan 2018
संदर्भ
- विगत वर्ष में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के त्वरित निवारण हेतु विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया था।
- हाल ही में कानून मंत्रालय ने कैबिनेट सचिवालय को सूचित किया है कि जन-प्रतिनिधियों से संबंधित 1,500 मामलों की त्वरित सुनवाई के लिये 12 विशेष अदालतों के गठन एवं संचालन में करीब 8 करोड़ रुपए का खर्च आएगा।
जन-प्रतिनिधियों के लिये विशेष अदालतों का गठन क्यों (special courts)?
- विशेष न्यायालय एक ऐसी अदालत है जो कानून के किसी विशेष क्षेत्र से संबंधित होती है।
- दरअसल, दोषी प्रमाणित होने के बाद जन-प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था तो है। लेकिन कई मामलों में तो 20 सालों तक सुनवाई चलती रहती है और इस बीच जन-प्रतिनिधि चार कार्यकाल पूरे कर लेता है।
- ऐसे में सज़ा के बाद चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करने का कोई मतलब नहीं रह जाता।
- ऐसे मामलों में छह महीने से ज़्यादा का स्टे नहीं दिया जाना चाहिये और एक साल के भीतर जन-प्रतिनिधियों के मामलों का निपटारा किया जाना चाहिये।
- आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त जन-प्रतिनिधियों के मामलों का त्वरित निवारण उचित तो है।
- लेकिन यदि कुछ ही वर्षों के प्रतिबंध के बाद वह सक्रिय राजनीति में लौट आता है और चुनाव लड़ता है तो भी चुनाव सुधार के वास्तविक उद्देश्यों की प्राप्ति कर पाना संभव प्रतीत नहीं होता।
इस संबंध में मौजूदा प्रावधान
- कानूनी तौर पर अपराधी घोषित जन-प्रतिनिधियों को चुनाव लड़ने से रोकने हेतु जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (representation of peoples act, 1951) में निम्नलिखित प्रावधान किये गए हैं।
- इस अधिनियम की धारा 8(1) और (2) के अंतर्गत प्रावधान है कि यदि कोई विधायिका सदस्य (सांसद अथवा विधायक) हत्या, बलात्कार, अस्पृश्यता, विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम के उल्लंघन; धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर शत्रुता पैदा करना, भारतीय संविधान का अपमान करना, प्रतिबंधित वस्तुओं का आयात या निर्यात करना, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना जैसे अपराधों में लिप्त होता है, तो वह इस धारा के अंतर्गत अयोग्य माना जाएगा एवं उसे 6 वर्ष की अवधि के लिये अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
- वहीं इस अधिनियम की धारा 8(3) में प्रावधान है कि उपर्युक्त अपराधों के अलावा किसी भी अन्य अपराध के लिये दोषी ठहराए जाने वाले किसी भी विधायिका सदस्य को यदि दो वर्ष से अधिक के कारावास की सज़ा सुनाई जाती है तो उसे दोषी ठहराए जाने की तिथि से आयोग्य माना जाएगा। ऐसे व्यक्ति को सज़ा पूरी किये जाने की तिथि से 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिये अयोग्य माना जाएगा।
- हालाँकि, धारा 8(4) में यह भी प्रावधान है कि यदि दोषी सदस्य निचली अदालत के इस आदेश के खिलाफ तीन महीने के भीतर उच्च न्यायालय में अपील दायर कर देता है तो वह अपनी सीट पर बना रह सकता है।
- किंतु, 2013 में ‘लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा को असंवैधानिक ठहरा कर निरस्त कर दिया था।
जन-प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध उचित क्यों?
- राजनीति के निरपराधीकरण में सहायक:
► अपराधी करार दिये जा चुके जन-प्रतिनिधियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाना राजनीति के निरपराधीकरण में सहायक होगा।
► विदित हो कि ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स’ (एडीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान लोकसभा में चुने गए 34% सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं।
► अतः लगातार राजनीति में अपराधीकरण बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में यह कदम उपर्युक्त कहा जा सकता है। - आम जनता का राजनीतिक व्यवस्था में विश्वास मज़बूत:
► यदि आजीवन प्रतिबंध की व्यवस्था लागू की जाती है तो भविष्य में चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले उम्मीदवारों के लिये यह एक निवारक कारक की तरह कार्य करेगा और वे किसी भी आपराधिक गतिविधि में शामिल होने से बचेंगे।
► विधायिका में स्वच्छ पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का प्रवेश होगा। इससे आम जनता का राजनीतिक व्यवस्था में विश्वास मज़बूत होगा और लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत होंगी।
जन-प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध उचित क्यों नहीं?
- मौजूद है 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध की व्यवस्था :
► वर्तमान परिस्थितियों में अपराध प्रमाणित होने पर जन-प्रतिनिधि को 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है।
► आजीवन प्रतिबंध की सख्त सज़ा की बजाय यह व्यवस्था अधिक उचित प्रतीत होती है।
► दरअसल, आजीवन प्रतिबंध की ज़रूरत इसलिये नहीं है क्योंकि 6 वर्ष तक राजनीति की मुख्यधारा से बाहर रहने के पश्चात् किसी राजनीतिज्ञ का पुनः स्थापित होना लगभग असंभव होता है। - आजीवन प्रतिबंध की व्यवस्था के दुरुपयोग की संभावना :
► वहीं एक डर यह भी है कि इस प्रकार के कदमों का दुरुपयोग किया जा सकता है।
► सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वी नेताओं का सफाया करने अथवा निर्दोष राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं पर दोषारोपण के लिये भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।
समस्याएँ एवं चुनौतियाँ
- विशेष अदालतों के लिये बुनियादी सुविधाओं का अभाव:
► विशेष न्यायालयों का उद्देश्य न्यायिक मुकदमों का शीघ्र तथा कुशलतापूर्वक निपटान करना होता है, लेकिन इसके लिये आवश्यक बुनियादी सुविधाओं एवं सरंचनाओं का अभाव है। - विशेष अदालतों के लिये समुचित प्रावधानों की कमी:
► दरअसल, कई ऐसे मामलें हैं जिनमें विशेष अदालतों के गठन को मान्यता देने संबंधी प्रावधान बनाए ही नहीं गए हैं।
► उदाहरण के लिये अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं, लेकिन यहाँ विशेष न्यायालयों का कोई प्रावधान नहीं है। - विशेष अदालतों की स्थापना दीर्घकालिक समाधान नहीं:
► विशेष अदालतों को स्थापित किये जाने के क्रम में प्रायः यह देखा गया है कि नियमित अदालतों की कार्यवाही प्रभावित होती है।
► साथ ही कई बार ऐसा भी होता है कि विशेष अदालतों का उद्देश्य स्पष्ट नहीं होता इन परिस्थितियों में इन्हें दीर्घकालिक समाधान नहीं माना जा सकता।
निष्कर्ष
- भारतीय राजनीति की यह विडंबना रही है कि बड़ी संख्या में कानून बनाने वाले ऐसे हैं जो स्वयं कानून की धज्जियाँ उड़ाते आए हैं। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला है।
- अतः विशेष अदालतों का गठन कर मामलों का त्वरित निवारण करना होगा। लेकिन साथ में विशेष अदालतों के गठन में आने वाली अड़चनों को भी दूर करना होगा।
- जहाँ तक आजीवन प्रतिबंध का सवाल है तो यह भारतीय राजनीति को स्वच्छ बनाने की दिशा में एक दूरगामी एवं महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है, लेकिन पहले यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि इस प्रकार के कठोर प्रावधानों का दुरुपयोग न हो।