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भारतीय अर्थव्यवस्था

उचित आहार का निर्धारण (Setting a proper diet plan)

  • 16 Nov 2018
  • 10 min read

संदर्भ

पूरे विश्व में तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने का तमगा लगने के बावजूद भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2018 के 119 देशों की सूची में 103वें पायदान पर है। इस पायदान पर होना भारत के लिये अत्यंत गंभीरता का विषय है। हाल ही में भारत की राजधानी, दिल्ली में दीर्घकालिक कुपोषण तथा भूख की वज़ह से आश्चर्यजनक ढंग से तीन बच्चियों की मौत हो गई थी।

क्या यह विडंबना नहीं है कि ऐसी घटना उस जगह पर हुई जहाँ प्रति व्यक्ति आय काफी उच्च है। भारत में कुपोषण की भयावह स्थिति वैश्विक पटल पर दयनीय होने के साथ-साथ सभी राज्यों में भी असमान रूप से भिन्न-भिन्न है।

भारत की स्थिति

  • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2016 के मुताबिक, भारत में 5 वर्ष से कम उम्र वाले नाटे कद (उम्र के अनुपात में लंबाई का कम होना) के बच्चों की संख्या (38.4%) का अनुपात भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर (22.9%) की तुलना में काफी ज़्यादा है।
  • उम्र के अनुपात में वज़न का कम होना भी भारत के लिये एक बड़ी समस्या है। भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र की श्रेणी में अनुमानतः 53.3 मिलियन से ज़्यादा नाटे कद के, 49.6 मिलियन कम वजन वाले और 29.2 मिलियन कमज़ोर (लंबाई के अनुपात में कम वज़न) बच्चे हैं।

बड़ी चुनौतियाँ

  • बढ़ती समृद्धि ने मुश्किल से ही कुपोषण की चिरकालिक समस्या पर कोई सार्थक प्रभाव डाला है। तीव्र आर्थिक संवृद्धि के अनेकों लाभ होते हैं किंतु ऐसी संवृद्धि किसी तरह भी पर्याप्त और वहनीय नहीं होगी यदि लाखों बच्चे भयानक कुपोषण के शिकार होंगे।
  • यह कुपोषण केवल बच्चों के बचपन को प्रभावित करते हुए बीमारियाँ ही नहीं लाता है अपितु दीर्घकालिक तौर पर भी प्रभाव डालता है। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होंगे शिक्षा, श्रम और उत्पादकता के साथ-साथ भारत की आर्थिक संवृद्धि भी प्रभावित होगी। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि समाधान कहाँ है?
  • पहली समस्या, आर्थिक संवृद्धि पर आधारित विकास की एकदिष्ट सोच से जुड़ी हुई है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सशक्त कार्य समूह (EAG) राज्य कुपोषण से संबंधित समस्याओं का सामना सबसे ज़्यादा करते हैं। किंतु दो EAG राज्यों, छत्तीसगढ़ और ओडिशा ने महाराष्ट्र तथा गुजरात (जिनकी प्रति व्यक्ति आय लगभग दोगुनी है) के मुकाबले इस क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन किया है।

सशक्त कार्य समूह (EAG) राज्य

बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तरांचल और उत्तर प्रदेश को सशक्त कार्य समूह (EAG) राज्य कहा जाता है।

  • गुजरात में प्रचलित विकास का रास्ता कुपोषण से लड़ने की जगह आर्थिक संवृद्धि तथा निवेश की तरफ ज़्यादा झुका हुआ है। वहीं दूसरी तरफ, ओडिशा कम आय वाला राज्य होने के बावजूद एकीकृत बाल विकास सेवाओं (ICDS), सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा/प्रति लाख जनसंख्या कार्यबल और महिलाओं के बीच शिक्षा का बेहतर नेटवर्क स्थापित करने में सफल रहा है। इसकी बदौलत गुजरात के मुकाबले ओडिशा कुपोषण से प्रभावी ढंग से लड़ रहा है।
  • इसके अलावा, हरियाणा, गुजरात और पंजाब जैसे तथाकथित विकसित राज्यों में जनजातीय, ग्रामीण, गरीब और अशिक्षित महिलाओं के बच्चे पोषण से कोसों दूर हैं। कम वज़न तथा नाटे कद वाले दो-तिहाई बच्चे विकासशील तथा विकसित दोनों ही राज्यों के 200 ज़िलों से हैं।

एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS)

  • यह योजना वर्ष 1975 में 6 साल से कम आयु के बच्चों के सर्वांगीण विकास (स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा) के लिये  एक पहल के रूप में शुरू की गई थी।
  • इसका उद्देश्य शिशु मृत्यु दर, बाल कुपोषण को कम करना और विद्यालय में दाखिले से पूर्व आवश्यक शिक्षा प्रदान करना है।
  • ICDS योजना की निगरानी संबंधी समग्र ज़िम्मेदारी महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (MWCD) की है।

कृषि बनाम भूख

  • दूसरा प्रमुख विचार यह है कि कृषि और पोषण को एक-दूसरे से संबद्ध किया जाए क्योंकि पोषण से संबंधित तमाम समस्याओं का समाधान कृषि ही प्रस्तुत करती है। हालाँकि आकलनों के अनुसार, कृषि अधिशेष राज्यों जैसे- हरियाणा में भी कुपोषण की भयावह समस्या (34% बौने कद और 29.5% कम वज़न वाले बच्चे) बनी हुई है।
  • चिंता की बात यह है कि हरियाणा के कुछ ज़िलों जो कि कृषि में संपन्न और विकसित हैं, में कुपोषण की समस्या ओडिशा के औसत से भी ज़्यादा है।
  • हाल ही में मध्य प्रदेश ने गेहूँ का उत्पादन काफी ज़्यादा मात्रा में दर्ज किया है किंतु फिर भी तीव्र कुपोषण की समस्या (41.9% बौने कद और 42.8% कम वजन वाले बच्चे) इसके ज़्यादातर ज़िलों में अब भी बनी हुई है।
  • प्रचुर कृषि उत्पादन तथा कुपोषण के अंतर्विरोध को समझने के लिये विविध खाद्य पदार्थों का उदहारण लेते हैं। खाद्य सेवन में विविधता (खाद्य सेवन सूचकांक में दर्ज 19 खाद्य पदार्थों के आधार पर) आने के साथ ही कुपोषण (बौना कद/कम वजन) में गिरावट आने लगती है।
  • यदि खाद्य पदार्थों में विविधता को शामिल किया जाए तो महज 12 प्रतिशत बच्चे कुपोषण से पीड़ित होंगे, जबकि 3 से कम प्रकार के खाद्य पदार्थों का सेवन करने वाले बच्चों में कुपोषण की समस्या 50 प्रतिशत तक पहुँच सकती है।

कुपोषण क्या है? 

  • कुपोषण (Malnutrition) वह अवस्था है जिसमें पौष्टिक पदार्थ और भोजन अव्यवस्थित रूप से लेने के कारण शरीर को पूरा पोषण नहीं मिल पाता है। कुपोषण तब भी होता है जब किसी व्यक्ति के आहार में पोषक तत्त्वों की सही मात्रा नहीं होती है। 
  • दरअसल, हम स्वस्थ रहने के लिये भोजन के ज़रिये ऊर्जा और पोषक तत्त्व प्राप्त करते हैं, लेकिन यदि भोजन में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन और खनिजों सहित पर्याप्त पोषक तत्त्व नहीं मिलते हैं तो हम कुपोषण के शिकार हो सकते हैं।

कुपोषण का प्रभाव 

  • शरीर को लंबे समय तक आवश्यक संतुलित आहार नहीं मिलने से बच्चों और महिलाओं में कुपोषण के चलते रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है, जिससे वे आसानी से कई तरह की बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। बच्चों और स्त्रियों के अधिकांश रोगों की जड़ में कुपोषण ही है।

आगे की राह

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भोजन में पोषक तत्त्वों की कमी कुपोषण का प्रमुख कारण है जो अप्रत्यक्ष रूप से इस मामले की अनदेखी तथा आर्थिक संवृद्धि पर आधारित में विकास की एकदिष्ट सोच से जुड़ती है। यह सोच भारत जैसे देश के लिये खतरनाक साबित हो सकती है। बच्चों  में कुपोषण की इस समस्या का समाधान करना अति आवश्यक है। इसके लिये एक खाद्य और पोषण आयोग की स्थापना, संपूर्ण देश में पोषण के स्तर को बढ़ाए जाने की ज़रूरत जैसी बातों पर भी ध्यान देना चाहिये।

समय आ गया है कि सरकार इस मुद्दे के मूल कारण की पहचान कर कुपोषण से निपटने के लिये एक स्थायी समाधान की खोज करे। यह तभी संभव है जब राज्य हाशिये पर जीवन जी रहे लोगों के लिये रोज़गार के अवसर पैदा करके समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित करेगा जो उनकी क्रय शक्ति में सुधार के साथ-साथ कुपोषण को कम करने में मददगार साबित होगा। कुपोषण से निपटने के लिये खाद्य पदार्थों की कीमतों को विनियमित किया जाना चाहिये और इसके लिये विकसित तथा गरीब दोनों राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सशक्त करना होगा।

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