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कानूनी अभ्यास जारी रख सकते हैं नीति-निर्माता

  • 28 Sep 2018
  • 10 min read

संदर्भ 

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया है कि कानून-निर्माताओं (सांसद, विधायक एवं विधान परिषद सदस्य) को वकीलों की तरह काम करने से नहीं रोका जा सकता है।

पृष्ठभूमि

  • दिसंबर 2017 में श्री अश्विनी उपाध्याय ने सांसदों और विधायकों को कानूनी अभ्यास से रोकने के संबंध में बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) के अध्यक्ष को एक पत्र लिखा।
  • हालाँकि, पत्र के जवाब में गठित BCI उपसमिति ने फैसला दिया था कि विधायकों को अभ्यास करने की अनुमति दी जा सकती है।

बार काउंसिल ऑफ इंडिया

  • इंडियन बार को विनियमित और प्रतिनिधित्व करने के लिये अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के तहत संसद द्वारा बार काउंसिल ऑफ इंडिया का गठन किया गया था। यह एक सांविधिक निकाय है।
  • यह व्यावसायिक आचरण और शिष्टाचार के मानकों को निर्धारित करते हुए तथा बार पर अनुशासनिक अधिकार क्षेत्र का उपयोग कर विनियामक कार्य करता है।
  • यह कानूनी शिक्षा के लिये मानक निर्धारित करने के साथ-साथ उन विश्वविद्यालयों को मान्यता भी देता है, जिनकी उपाधि अधिवक्ता के रूप में नामांकन हेतु योग्यता निर्धारण करने का कार्य करेगी।
  • इसके अलावा, यह वकीलों के अधिकारों, विशेषाधिकारों और हितों की रक्षा करता है तथा उनके लिये कल्याणकारी योजनाओं हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिये धन इकठ्ठा करने जैसे प्रतिनिधि कार्यों का दायित्त्व भी संभालता है।
  • तत्पश्चात श्री उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें हितों के टकराव तथा BCI के नियमों के उल्लंघन के आधार पर किसी व्यक्ति द्वारा वकील और कानून-निर्माता की दोहरी भूमिका निभाने की अनुमति को चुनौती दी गई थी।

‘वकील की भूमिका में कानून-निर्माता’ के विपक्ष में तर्क

  • BCI के 49वें नियम में कहा गया है कि कोई भी पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी, चाहे वह किसी निगम, निजी कंपनी या सरकार से संबंधित हो, अदालत के समक्ष वकील के रूप में अभ्यास नहीं कर सकता है। कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी अन्य व्यवसाय की खोज में शामिल नहीं हो सकता है और निश्चित रूप से किसी अन्य सरकारी सेवा के दौरान वकील के रूप में अपनी सेवाओं की पेशकश नहीं कर सकता है।
  • डॉ. हनीराज एल चुलानी बनाम बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा (1996) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वकील बनने योग्य किसी व्यक्ति को भर्ती नहीं किया जाएगा यदि वह पूर्णकालिक या अंशकालिक रूप से किसी सेवा या रोज़गार में है।
  • कानून-निर्माता सार्वजनिक खजाने से अपना वेतन और पेंशन लेते हैं, इसलिये उन्हें ‘कर्मचारी’ के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  • वकीलों का काम पूर्णकालिक गतिविधि है। ऐसा ही सांसदों और विधायकों के संदर्भ में भी है यानी वे संसद और विधानसभाओं के पूर्णकालिक सदस्य हैं। उन्हें सदन की कार्यवाही में भाग लेना पड़ता है, अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों से मिलना पड़ता है और उनकी समस्याओं का समाधान करना पड़ता है। उनके काम को सुविधाजनक बनाने के लिये उन्हें बंगला, कार, कार्यालय, वेतन जैसी सभी सुविधाएँ दी जाती हैं। इसलिये, उन्हें जनता के पास जाना चाहिये और उनकी सेवा करनी चाहिये क्योंकि भारत को समर्पित सांसदों की ज़रूरत है।
  • जो सांसद और विधायक वकीलों के रूप में अभ्यास करते हैं वे याचिकाकर्त्ता से शुल्क लेते हैं और प्रतिवादी से अपना वेतन भी प्राप्त करते हैं। इसमें प्रतिवादी केंद्र या राज्य सरकार होती है। यह अपने आप में विरोधाभासी है, क्योंकि वे सार्वजानिक खजाने से वेतन प्राप्त करते हैं और सरकार के खिलाफ दलीलें पेश करते हैं। इसे व्यावसायिक दुर्व्यवहार के रूप में भी देखा जा सकता है।
  • सांसदों और विधायकों के पास किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने की शक्ति भी होती है, जिसका तात्पर्य यह है कि वे अपने किसी मुकदमे में अनुकूल फैसले की मांग रखते हुए न्यायाधीश पर दबाव डाल सकते हैं।

‘वकील की भूमिका में कानून-निर्माता’ के पक्ष में तर्क

  • वकील स्पष्ट और तार्किक सोच के लिये जाने जाते हैं। कानून का प्रशिक्षण उन्हें कानून और कानून-निर्माण को बेहतर ढंग से समझने में मदद करता है। आखिरकार, देश को विधि के शासन के अनुरूप ही चलाया जाना है।
  • वकील अधिवक्ता अधिनियम और बार परिषद के नियमों के अधीन होते हैं, जो कानून का अभ्यास करने वालों पर कुछ प्रतिबंध लगाता है। भेदभाव इस तथ्य में भी निहित है कि अन्य पेशों में लगे कर्मचारी जैसे-अभियंता, चिकित्सक आदि अधिवक्ता अधिनियम के समान किसी भी कानून के तहत ऐसे प्रतिबंधों का सामना नहीं करते हैं।
  • खास तौर से कानूनी पेशे के संबंध में, जब कोई वकील किसी कॉर्पोरेट हाउस से किसी वाद का संक्षिप्त विवरण स्वीकार करता है और वह सदन का सदस्य भी है, तब हितों के टकराव का प्रश्न हमेशा उठता है। यह सुस्पष्ट है कि कोई भी किसी खास व्यक्ति के लिये सदन में उपस्थित नहीं होता है और न ही वह उसके पक्ष में गुटबाज़ी कर सकता है।
  • हालाँकि, यह हर किसी पर लागू होता है। संसद गुटबाज़ी जगह नहीं है। अगर किसी ने पैसा स्वीकार किया है या किसी भी तरीके से किसी को लाभान्वित किया है या किसी विशेष मामले में जानकारी दी है और संसद में उस व्यक्ति के लिये गुटबाज़ी किया है, तो यह गैर-कानूनी एवं नैतिकता के दृष्टिकोण से गलत है।
  • यह उन उद्यमियों के लिये भी समान रूप से लागू होता है जो विधान सभा या सांसद के सदस्य हैं। उल्लंघन की स्थिति में कोई भी विशेषाधिकार समिति या नैतिकता समिति को सूचित कर सकता है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कानून-निर्माताओं को पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता क्योंकि इस परिस्थिति में नियोक्ता और कर्मचारी जैसा कोई संबंध नहीं है।
  • कानून-निर्माता अधिनियम 1954 (संसद सदस्य वेतन, भत्ता और पेंशन अधिनियम 1954) के तहत वेतन या इसी अधिनियम के अंतर्गत बनाए गए प्रासंगिक नियमों के तहत विभिन्न भत्ते प्राप्त करता है। केवल इस तथ्य के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि सरकार और कानून-निर्माता के बीच नियोक्ता-कर्मचारी संबंध बनता है।
  • विधायकों को सरकारी नौकर माना जाता है, लेकिन उनकी स्थिति "सुई जेनरिस" (सामान्य से अद्वितीय या अलग) जैसी है और निश्चित रूप से वे किसी भी व्यक्ति, सरकार, कंपनी या निगम के पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारियों में से एक नहीं हैं।
  • कानून-निर्माताओं को सरकारी नौकर माना जाता है, लेकिन उनकी स्थिति "सुई जेनरिस" (अद्वितीय या सामान्य से अलग) जैसी है और निश्चित रूप से ये किसी भी व्यक्ति, सरकार, कंपनी या निगम के पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारियों की श्रेणी में नहीं आते हैं।
  • जब तक सदन भंग नहीं हो जाता है तब तक वे किसी पद पर होते हैं। सदन के अध्यक्ष द्वारा उनके खिलाफ अनुशासनात्मक या विशेषाधिकार के तहत कार्रवाई शुरू की जा सकती है। इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें कर्मचारियों के रूप में माना जा सकता है।
  • इसी तरह, सदन के कार्य हेतु कानून-निर्माताओं द्वारा की जाने वाली भागीदारी को किसी भी मानक के तहत नियोक्ता को कर्मचारी द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवा के रूप में नहीं माना जा सकता है।
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