ईरान परमाणु समझौते की बहाली | 03 Mar 2021
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में ईरान परमाणु समझौते व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
हाल ही में ‘जो बाइडन’ (Joe Biden) को संयुक्त राज्य अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित किया गया है। विदेश नीति के मोर्चे पर बाइडन ने शीघ्र ही ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते में पुनः शामिल होने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है, ध्यातव्य है कि इस समझौते को संयुक्त व्यापक कार्य योजना (Joint Comprehensive Plan of Action- JCPOA) के रूप में भी जाना जाता है।
JCPOA पर वर्ष 2015 में हस्ताक्षर किये गए थे, परंतु पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने इसे वर्ष 2018 में वापस ले लिया और ईरान को बातचीत की मेज पर वापस लाने के लिये 'अधिकतम दबाव' की नीति अपनाई।
अधिकतम दबाव के इस अभियान ने ईरान की अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित किया परंतु यह नीति ईरान को वार्ता की मेज पर वापस लाने या इराक, सीरिया अथवा लेबनान में अपने हस्तक्षेप को कम करने के लिये विवश करने में विफल रही।
जो बाइडन ने JCPOA में वापसी की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया है, बशर्ते ईरान द्वारा इस समझौते के प्रावधानों का पूर्ण अनुपालन सुनिश्चित किया जाए। JCPOA में अमेरिका की वापसी मध्यपूर्व की क्षेत्रीय शांति की दिशा में एक सकारात्मक कदम हो सकता है। हालाँकि अमेरिका और ईरान के वार्ता की मेज पर लौटने के मार्ग में अभी भी कई चुनौतियाँ हैं।
ईरान परमाणु समझौता: घटनाक्रम और पृष्ठभूमि
- JCPOA ईरान और P5+1 देशों (चीन, फ्राँस, जर्मनी, रूस, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ, या EU) के बीच वर्ष 2013 एवं वर्ष 2015 के बीच चली लंबी बातचीत का परिणाम था।
- यह ओमान की मध्यस्थता के साथ अमेरिका (अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा) और ईरान के बीच आयोजित गुप्त बैक चैनल वार्ताओं के कारण संभव हो सका, ये वार्ताएँ वर्ष 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद उत्पन्न स्थिति में पुनः विश्वास बहाली के प्रयासों का हिस्सा थी।
- JCPOA ने ईरान को उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को आंशिक रूप से हटाने के बदले में एक अंतर्वेधी निरीक्षण प्रणाली की निगरानी में अपने परमाणु संवर्द्धन कार्यक्रम को सीमित करने के लिये बाध्य किया।
- हालाँकि एक आक्रामक रिपब्लिकन सीनेट के साथ राष्ट्रपति ओबामा इस परमाणु समझौते पर सीनेट से मंज़ूरी प्रदान कराने में असमर्थ रहे थे, परंतु ईरान पर लगे प्रतिबंधों में छूट के लिये इसे आवधिक कार्यकारी आदेशों के आधार पर लागू किया गया। डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद वे इस समझौते से पीछे हट गए और उन्होंने इसे एक "बहुत ही खराब, एकतरफा सौदा बताया, जिसे कभी नहीं लागू किया जाना चाहिये था।”
- अमेरिका के इस समझौते से अलग होने के निर्णय की JCPOA में शामिल अन्य सदस्यों (यूरोपीय सहयोगियों सहित) ने आलोचना की क्योंकि उस समय तक ईरान इस समझौते के तहत अपने दायित्वों का अनुपालन कर रहा था और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) द्वारा इसे प्रमाणित भी किया गया था।
- ईरान पर अमेरिका के एकतरफा प्रतिबंधों की सख्ती के साथ दोनों देशों के बीच तनाव भी बढ़ गया, अमेरिकी प्रतिबंधों के विस्तार के साथ वैश्विक वित्तीय प्रणाली से जुड़े लगभग सभी ईरानी बैंक, धातु, ऊर्जा, और शिपिंग से संबंधित उद्योग, रक्षा, खुफिया तथा परमाणु प्रतिष्ठानों से संबंधित लोग आदि सभी इसके दायरे में आ गए थे।
- अमेरिका के इस समझौते से पीछे हटने के पहले वर्ष में ईरान की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं देखने को मिली क्योंकि इस दौरान E-3 देशों (फ्राँस, जर्मनी, यू.के.) और यूरोपीय संघ ने अमेरिकी फैसले के प्रभावों को कम करने हेतु समाधान खोजने का वादा किया था।
- E-3 देशों ने ‘इंसटेक्स’ (Instrument in Support of Trade Exchanges- INSTEX) के माध्यम से कुछ राहत प्रदान करने का वादा किया, ध्यातव्य है कि इंसटेक्स की स्थापना वर्ष 2019 में ईरान के साथ सीमित व्यापार की सुविधा के लिये की गई थी।
- हालाँकि मई 2019 तक ईरान का यह रणनीतिक धैर्य समाप्त हो गया क्योंकि वह E-3 द्वारा अपेक्षित आर्थिक राहत पाने में विफल रहा। ऐसे में जब ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का प्रभाव तीव्रता से होने लगा तो ईरान ‘अधिकतम प्रतिरोध’ की रणनीति की तरफ स्थानांतरित हो गया।
'अधिकतम प्रतिरोध' की ईरानी नीति:
- मई 2019 से ईरान ने स्वयं को JCPOA की बाध्यताओं से लगातार दूर करना शुरू कर दिया, इसके तहत ईरान ने निम्न संवर्द्धित यूरेनियम पर 300 किलोग्राम और भारी जल पर 130 मीट्रिक टन की सीमा को पार करने के साथ संवर्द्धन स्तर को 3.67% से बढ़ाकर 4.5% कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्नत सेंट्रीफ्यूज पर अनुसंधान और विकास को आगे बढ़ाने के साथ फोरदो परमाणु केंद्र में यूरेनियम संवर्द्धन का कार्य पुनः शुरू कर दिया गया तथा उपयोग में लाए जाने वाले अधिकतम सेंट्रीफ्यूज की संख्या पर लगी सीमा का भी उल्लंघन किया गया।
- जनवरी 2020 में इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स के कमांडर जनरल कासिम सुलेमानी पर ड्रोन हमले के बाद ईरान ने घोषणा की कि वह अब JCPOA की बाध्यताओं का पालन नहीं करेगा।
समझौते की पुनर्बहाली से जुड़ी चुनौतियाँ:
- ईरान और सऊदी अरब के बीच क्षेत्रीय शीत युद्ध: सऊदी अरब, अमेरिका की मध्य-पूर्व नीति की आधारशिला है। अमेरिका ने सऊदी-अरब के साथ अपने संबंधों को इसलिये भी मज़बूत किया है, ताकि वह इस क्षेत्र में शक्ति संतुलन को बनाए रखने के लिये ईरान के खिलाफ एक काउंटर बैलेंस के रूप में काम कर सके।
- हालाँकि ईरान और सऊदी अरब के बीच पारंपरिक शिया बनाम सुन्नी संघर्ष एक क्षेत्रीय शीत युद्ध में बदल गया।
- ऐसे में JCPOA को बहाल करने हेतु अमेरिका के लिये एक बड़ी चुनौती इन दो क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों के बीच शांति बनाए रखना है।
- ईरान की आक्रामकता: वर्तमान परिस्थिति में JCPOA को पुनः शुरू करने की चुनौती यह है कि ईरान अब भी इस समझौते की कई महत्त्वपूर्ण प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन कर रहा है, जैसे-समृद्ध यूरेनियम के भंडार की सीमा आदि।
- अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (International Atomic Energy Agency-IAEA) के अनुसार, नवंबर 2020 तक ईरान के पास उपलब्ध निम्न संवर्द्धित यूरेनियम लगभग 2,440 किलोग्राम से अधिक था, जो कि वर्ष 2015 के परमाणु समझौते के तहत निर्धारित सीमा से आठ गुना अधिक है।
- इसके अतिरिक्त ईरान को हुए अरबों डॉलर के आर्थिक नुकसान के लिये उसने अमेरिका से क्षतिपूर्ति की मांग की है, जिसका सामना ईरान को तब करना पड़ा जब वर्ष 2018 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने स्वयं को JCPOA से अलग करते हुए उस पर पर पुनः प्रतिबंध लागू कर दिये थे।
JCPOA की पुनर्बहाली का भारत पर प्रभाव:
JCPOA की बहाली से ईरान पर कई प्रतिबंधों में कटौती हो सकती है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत की मदद कर सकता है। इसे निम्नलिखित उदाहरणों के आधार पर समझा जा सकता है:
- क्षेत्रीय कनेक्टिविटी को बढ़ावा: ईरान पर लगे प्रतिबंधों के हटने से चाबहार, बंदर अब्बास बंदरगाह, और क्षेत्रीय कनेक्टिविटी से संबंधित अन्य योजनाओं में भारत की हितों को संरक्षण प्रदान किया जा सकेगा।
- यह पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह में चीनी उपस्थिति को बेअसर करने में भारत की मदद करेगा।
- चाबहार के अलावा ईरान से होकर गुज़रने वाले ‘अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण पारगमन गलियारे’ (INSTC) से भारत के हितों को भी बढ़ावा मिल सकता है। गौरतलब है कि INSTC के माध्यम से पाँच मध्य एशियाई देशों के साथ कनेक्टिविटी में सुधार होगा।
- ऊर्जा सुरक्षा: अमेरिका की आपत्तियों और CAATSA (Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act) के दबाव के कारण भारत को ईरान से आने वाले तेल के आयात को शून्य करना है।
- अमेरिका और ईरान के बीच संबंधों की बहाली से भारत को ईरान से सस्ते तेल की खरीद करने और अपनी ऊर्जा सुरक्षा को समर्थन प्रदान करने में सहायता मिलेगी।
निष्कर्ष:
ईरान परमाणु समझौता कई देशों का संयुक्त प्रयास है। हालाँकि ट्रंप के इस समझौते से अलग होने के निर्णय ने इसे पूरी तरह से समाप्त तो नहीं किया परंतु JCPOA को गंभीर क्षति पहुँचाई है। ट्रंप की तरह जो बाइडन भी इस संधि को मध्य-पूर्व में अपने प्रशासन के दृष्टिकोण का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाना चाहेंगे, परंतु इस समझौते को सफलतापूर्वक पुनः लागू करना कहीं अधिक कठिन हो सकता है।
अभ्यास प्रश्न: ईरान परमाणु समझौते का संक्षिप्त परिचय देते हुए भारत के हितों पर इसके प्रभावों की समीक्षा कीजिये।